भाजपा के समर्थन वापस लेने के साथ कश्मीर आठवीं बार राज्यपाल शासन के दौर में प्रवेश कर गया है। विशिष्ट प्रावधानों के चलते जहां बाकी देश में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था है वहीं जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 92 के तहत वहां राष्ट्रपति की सहमति से राज्यपाल शासन लगाया जाता है। हालांकि, राज्यपाल की नियुक्ति सीधे दिल्ली से होने के बाद दोनों में कोई खास फर्क नहीं रह गया है।
देश भर में विपक्षी एकता के प्रयासों के मद्देनजर महबूबा मुफ्ती के इस्तीफे के बाद लोग कयास लगा रहे थे कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस उन्हें समर्थन दे सकते हैं। लेकिन कश्मीर में जहां घाटी में प्रतिद्वंद्विता नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी में है, वहीं जम्मू में यह कांग्रेस और भाजपा के बीच है। भाजपा की नजर ऊधमपुर, जम्मू और लद्दाख की सीटों पर होगी। इसीलिए उमर अब्दुल्ला और कांग्रेस दोनों ने ही जल्दी से जल्दी चुनाव कराने की मांग की। फिलहाल किसी सरकार की कोई संभावना दिख नहीं रही।
कश्मीर में चुनाव और लोकतांत्रिक प्रक्रिया हमेशा से बाधित होती रही है। 1947 में कबायली हमले के बाद जब हरि सिंह ने भारत के साथ अधिविलय का समझौता किया और शेख अब्दुल्ला को कश्मीर की सत्ता सौंपी गई, तभी से अपनी विशिष्ट अवस्थिति के कारण दिल्ली की सरकारें जम्मू-कश्मीर के प्रति विशेष संवेदनशील रही हैं और सत्ता में अपनी पसंद और सुविधा के व्यक्ति को रखने का चलन रहा है। 1951 में संविधान सभा के लिए हुए पहले चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सभी 75 सीटों पर जीत हासिल की। इनमें केवल दो सीटों पर चुनाव हुए और बाकी सभी पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए। 1977 से पहले गांदेरबल, अनंतनाग, कंगन, करनाह, पुलवामा और लोलाब जैसी कई सीटों पर कोई चुनाव हुआ ही नहीं था। ऐसी जगहों पर विपक्षी उम्मीदवारों के पर्चे खारिज कर दिए जाते थे।
तब संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में कश्मीर की जनता के अपने प्रति समर्थन को दर्शाने के लिए भारत के पास शेख अब्दुल्ला सबसे बड़े प्रतीक थे और इसलिए पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी इस चुनाव से कोई एतराज नहीं था। प्रजा परिषद का प्रभाव जम्मू की कुछेक सीटों पर ही था। विपक्ष के रूप में एक दक्षिणपंथी हिंदू पार्टी का रहना नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण के रूप में एक खास तरह की सुविधा भी थी। विधानसभा की अधिकतर सीटें घाटी में होने के कारण जम्मू और लद्दाख पर ध्यान देना शेख अब्दुल्ला को जरूरी नहीं लगा। सत्ता-केंद्र जम्मू से श्रीनगर चले जाने, भूमि सुधार के चलते डोगराओं की जमीनें और जागीरें छिन जाने और नई सत्ता व्यवस्था में अपनी बेहद कम भागीदारी के चलते जो असंतोष जम्मू में उपजा उसे केवल हिंदू सांप्रदायिकता का उभार कह देना राजनैतिक रूप से फायदेमंद होने के बावजूद सरलीकरण भी है।
एक सच यह भी है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कभी अपनी तरफ से आगे बढ़कर जम्मू के लोगों को अपने साथ जोड़ने के लिए उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने की कोशिश भी नहीं की। नतीजतन हिंदू सांप्रदायिकता को जम्मू में अपनी जमीन बनाने और विस्तार करने के लिए अबाध अवसर हासिल हुआ और दोनों क्षेत्रों के बीच की खाई लगातार बढ़ती गई, जो नब्बे के दशक में कश्मीरी पंडितों के विस्थापन से इतनी बढ़ चुकी है कि अब शायद उसको पाटना असंभव है। 2008 में अमरनाथ यात्रा विवाद और हाल में कठुआ बलात्कार घटना के बाद हमने इसके विकृत रूप को देखा है।
जब शेख अब्दुल्ला के सुर बदले तो उन्हें जेल में डालकर बख्शी गुलाम मोहम्मद को सत्ता सौंप दी गई। नेहरू जब तक रहे उन्होंने कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस के लिए कोई भूमिका नहीं तलाशी लेकिन उनकी मृत्यु के बाद गुलाम मोहम्मद सादिक के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस की पूरी राज्य इकाई कांग्रेस की राज्य इकाई में बदल गई। 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस को 61 सीटों पर जीत मिली, जिसमें 22 सीटों पर उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए। गुलाम नबी हागरू बताते हैं कि उन दिनों इन चुने हुए विधायकों को विपक्षी उम्मीदवारों के पर्चे खारिज करा देने में माहिर रिटर्निंग ऑफिसर अब्दुल खालिक मलिक के नाम पर “मेड बाय खालिक” कहा जाता था ।
1972 का चुनाव बांग्लादेश के निर्माण और शिमला समझौते के साये में हुआ। शेख अब्दुल्ला इसमें हिस्सा लेना चाहते थे, लेकिन उम्मीदवारों का नाम घोषित करने से पहले उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके संगठन प्लेबिसाइट फ्रंट को प्रतिबंधित कर दिया गया। 13 नवंबर 1974 को शेख अब्दुल्ला के प्रतिनिधि मोहम्मद अफजल बेग और भारत सरकार के प्रतिनिधि जी. पार्थसारथी ने “कश्मीर समझौते” पर हस्ताक्षर किए, जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत का हिस्सा माना गया और यह तय हुआ कि कश्मीर का शासन अनुच्छेद 370 के अनुसार ही चलता रहेगा। इसके अगले कदम के रूप में कांग्रेस ने शेख अब्दुल्ला को कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस की संयुक्त सरकार का नेतृत्व का प्रस्ताव दिया, जिसे शेख ने स्वीकार कर लिया।
मीर कासिम और मुफ्ती मोहम्मद सईद के विरोध के बावजूद 25 फरवरी 1975 को शेख 22 साल बाद कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। इस मंत्रिमंडल में तीन सदस्यों में से दो निर्दलीय थे। शुरू से ही इसे लेकर खींचतान चलती रही। इमरजेंसी लगने के बाद शेख अब्दुल्ला ने नेशनल कॉन्फ्रेंस को ज़िंदा किया। देश भर में अपने खिलाफ चल रही हवा के बीच इंदिरा गांधी ने कश्मीर में जब कांग्रेस को मजबूत करने की कोशिशें शुरू कीं, तो नेशनल कॉन्फ्रेंस से उनका टकराव स्वाभाविक था। शेख अब्दुल्ला जल्दी चुनाव कराने की मांग कर रहे थे, लेकिन प्रदेश में सत्ता और विपक्ष की जुड़वा भूमिका निभा रही कांग्रेस शायद राज्य की बिगड़ी हुई आर्थिक स्थितियों में शेख के अलोकप्रिय होते जाने की प्रतीक्षा कर रही थी। फिर भी 1977 के लोकसभा चुनावों में दोनों के बीच समझौता हुआ। नेशनल कॉन्फ्रेंस को श्रीनगर, बारामूला और जम्मू की सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस को लद्दाख, अनंतनाग और ऊधमपुर की। इस चुनाव में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने सभी सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस के कर्ण सिंह भी ऊधमपुर सीट से विजयी रहे। 1977 के चुनावों में हार के बाद शेख अब्दुल्ला ने इंदिरा गांधी को बेगम अब्दुल्ला द्वारा जीती गई श्रीनगर सीट खाली कराकर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया। लेकिन इंदिरा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की सलाह मान कर मंत्रिपरिषद के सवाल और शेख पर भ्रष्टाचार और नाकामी का आरोप लगाकर समर्थन वापस ले लिया और सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। शेख ने राज्य के संविधान की धारा 53 के तहत तुरंत विधानसभा भंग करने और नए चुनाव कराने की मांग की। दिल्ली की सत्ता बदलने के साथ केंद्र का रवैया भी बदला और राज्यपाल एलके झा ने विधानसभा भंग कराकर नए चुनाव कराने की घोषणा कर दी।
1977 के चुनावों में न केवल नेशनल कॉन्फ्रेंस बल्कि कांग्रेस और जनता पार्टी ने भी पूरी ताकत से हिस्सेदारी की। लोकसभा चुनावों की जीत से उत्साहित जनता पार्टी शेख विरोधी सभी प्रकार के तत्वों को एक मंच पर लाकर कश्मीर में सफलता पाना चाहती थी। ये चुनाव कश्मीर में हुए सबसे ईमानदार चुनाव थे, जिनमें नेशनल कॉन्फ्रेंस को 47 सीटों पर जीत मिली। 8 सितंबर 1982 को शेख अब्दुल्ला की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी ने सबसे पहले फारूक को मुख्यमंत्री पद पर बिठवाया। रात के दस बजे फारूक ने राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। फारूक पार्टी के भीतर और बाहर अपना प्राधिकार स्थापित करने के लिए जल्द से जल्द चुनाव चाहते थे। इंदिरा गांधी ने उनके सामने नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन का प्रस्ताव रखा, लेकिन वह नहीं माने। इंदिरा गांधी ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया और पूरे दस दिन जम्मू-कश्मीर में चुनाव प्रचार किया। “पुनर्वास बिल” को मुद्दा बनाया गया और जम्मू में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जैसी स्थिति पैदा हुई। भाजपा की परंपरागत सीटों पर कांग्रेस ने कब्जा किया और 26 सीटें मिलीं, लेकिन घाटी में उसे कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली।
नेशनल कॉन्फ्रेंस न केवल घाटी में अपनी पकड़ बनाए रखने में सफल हुई बल्कि जम्मू में भी उसने पिछली बार से एक सीट अधिक जीती और 46 सीटों के साथ बहुमत हासिल किया। चुनावों में भारी जीत से उत्साहित फारूक ने अपने पिता की कश्मीर में केंद्रित रहने की नीति को त्याग कर श्रीनगर की जामा मस्जिद में घोषणा की कि “मैं कांग्रेस से देश की हर गली, हर नुक्कड़ पर लड़ूंगा।” इस रवैए से नाराज इंदिरा गांधी ने उन्हें बर्खास्त करने का मन बनाया तो तत्कालीन राज्यपाल बीके नेहरू इसके लिए राजी नहीं थे। ऐसे में जगमोहन को कश्मीर भेजा गया और जुलाई 1984 में जीएम शाह के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ्रेंस से टूटे विधायकों की मदद से फारूक को बर्खास्त कर जीएम शाह को कश्मीर का शासन सौंप दिया गया।
इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद राजीव और फारूक में सुलह हुई और मार्च 1986 में शाह की सरकार बर्खास्त कर पहली बार कश्मीर में राज्यपाल शासन लगा दिया गया। राजीव गांधी ने कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन का प्रस्ताव रखा और इस बार फारूक राजी हो गए। सैयद अली शाह गिलानी की जमात-ए-इस्लामी, जमात-ए-तुलबा, उम्मत-ए-इस्लामी, मुस्लिम इम्प्लाइज एसोसिएशन जैसी कई पार्टियों ने मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) बनाकर चुनाव लड़ना तय किया।
23 मार्च 1987 को हुए ये चुनाव कश्मीर के चुनावी इतिहास में एक बदनुमा दाग की तरह हैं, जिसमें भयावह धांधली हुई। इसी चुनाव में श्रीनगर के अमीराक दल से मोहम्मद यूसुफ शाह एमयूएफ के उम्मीदवार थे। शुरुआती मतगणना के रुझानों से स्पष्ट था कि शाह बड़े अंतर से जीत रहे हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस के मोइउद्दीन शाह इस कदर निराश हुए कि मतगणना के बीच से ही उठकर घर चले गए। लेकिन थोड़ी देर बाद मतगणना अधिकारी ने उन्हें वापस बुलवाया और विजयी घोषित कर दिया!
जनता सड़कों पर आ गई तो पुलिस ने यूसुफ शाह और उसके एजेंट को गिरफ्तार कर लिया। अगले 20 महीने दोनों बिना किसी केस के जेल में रहे–शाह को जेल से निकलने के बाद सैयद सलाहुद्दीन के नाम से जाना गया और उसके एजेंट का नाम था यासीन मलिक! आमतौर पर इससे उपजी निराशा और कुंठा को नब्बे के दशक के आतंकवाद और अराजकता के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
नब्बे का पूरा दशक कश्मीर के इतिहास के सबसे भयावह दौर के रूप में दर्ज़ है। आतंकवाद अपने चरम पर पहुंचा, कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी, हजारों की संख्या में लोग मारे गए और इस अराजकता में कश्मीर की सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था चरमरा गई। 1989 में जब राजीव गांधी ने लोकसभा चुनावों के साथ कश्मीर में भी चुनाव का निर्णय लिया तो जेकेएलएफ के बहिष्कार के चलते बारामूला में एक वोट नहीं पड़ा, सोपोर में पांच वोट पड़े और श्रीनगर में एनसी के अलावा किसी ने पर्चा नहीं भरा। आज जो हालात हैं उनमें इसकी पुनरावृत्ति की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबइया सईद के अपहरण के बाद बदली परिस्थितियों में जनवरी, 1990 में वीके कृष्णराव की जगह जगमोहन को राज्यपाल बनाकर भेजा गया तो फारूक ने इस्तीफा दे दिया। 21 मई को मीरवायज की हत्या के बाद निकले जनाजे पर गोलीबारी में 50 से अधिक लोगों की मृत्यु होने पर जगमोहन को इस्तीफा देना पड़ा। इन्हीं छह महीनों में वहां से कश्मीरी पंडितों का पहला बड़ा सामूहिक पलायन हुआ। 26 मई 1990 में गिरीश चंद्र सक्सेना के आने के बाद भी स्थितियां कुछ खास नहीं सुधरीं। 12 मार्च 1993 को कृष्णराव को दोबारा कश्मीर भेजा गया और लगभग छह साल बाद 1996 में चुनावों के बाद राज्यपाल शासन की समाप्ति और फारूक अब्दुला की वापसी हुई।
आज 22 साल बाद जब कश्मीर एक बार फिर से राज्यपाल शासन के अधीन है तो कई बड़े सवाल हमारे सामने हैं। वर्तमान राज्यपाल एनएन वोहरा वहां 2008 से हैं और कश्मीर को अच्छी तरह से जानते ही नहीं, बल्कि वहां की मुख्यधारा की पार्टियों में उनका सम्मान भी है। सवाल यह है कि उन्हें पदस्थ रखा जाएगा या फिर कड़े कदम उठाने के लिए किसी हार्डलाइनर को भेजा जाएगा। फिर यह भी कि कश्मीर में फिर कड़ी नीति अपनाने का असर क्या होगा? कहीं हम नब्बे के दशक जैसे हालात की तरफ तो नहीं बढ़ रहे। ऐसा हुआ तो क्या 2019 में लोकसभा के साथ कश्मीर में चुनाव कराया जाना संभव होगा?
(लेखक की हाल ही में आई किताब ‘कश्मीरनामा’ काफी चर्चित रही है)