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वादी में आगे क्या?

पिछले तीन-चार साल से जारी नीतियों से संकट बढ़ा, लेकिन जरूरी है कि नई राह तलाशी जाए
फिर से एक्शन में जवान

हाल में अचानक टूटी भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार के तहत बीते साढ़े तीन साल आखिर कैसे रहे? सुरक्षा, मानवाधिकार, प्रशासन हर मोर्चे पर तो इसका प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा।

अगर सुरक्षा के मामले में देखें तो हमलों, सीमा पर गोलीबारी, हताहतों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ और घाटी में हथियार उठाने वाले नौजवानों की तादाद लगातार बढ़ती गई। ज्यादा चिंताजनक यह है कि आतंकियों के प्रति आम लोगों का झुकाव इस कदर बढ़ गया कि वे आंतकरोधी अभियानों में अड़ंगा डालने लगे, जो घाटी में कुछ दशकों से देखा नहीं गया था। हजारों लोगों को सीमाई इलाकों से हटाना पड़ा है और उनकी वापसी की कोई सूरत नहीं है। सीमावर्ती क्षेत्रों से ह‌जारों लोग बार-बार विस्थापित हुए।

जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच सांप्रदायिक खाई लगातार चौड़ी होती गई है। सरकार में शामिल और दूसरे स्थानीय तथा राष्ट्रीय नेताओं ने माहौल को बिगाड़ा ही है। गठबंधन सरकार के पहले साल में कथित मवेशी तस्कर की हत्या, गोमांस प्रतिबंध पर शोर-शराबे से लेकर इस साल कठुआ में दुष्कर्म के आरोपियों का जिस तरह धार्मिक आधार पर बचाव किया गया, उससे जम्मू और घाटी के बीच खाई बेहिसाब बढ़ गई है।

मानवाधिकार के मोर्चे पर 2009-10 के अशांत वर्षों के मुकाबले 2016-17 में ज्यादा लोग मारे गए या जख्मी हुए। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार की शह पर सैन्य ट्रिब्यूनल ने कोर्ट मार्शल के बाद माछिल ‘फर्जी मुठभेड़’ मामले में जवानों को आजीवन कारावास की सजा को पलट दिया। चुनावकर्मियों की सुरक्षा के नाम पर जीप के आगे एक व्यक्ति को बांधकर कश्मीरियों के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करने वाले युवा मेजर की भाजपा नेताओं ने तारीफ की। पीड़ित को मुआवजा देने के मानवाधिकार आयोग के फैसले को भाजपा-पीडीपी की सरकार ने खारिज कर दिया।

प्रशासन के मोर्चे पर छोटे-मोटे कदम तो उठाए गए लेकिन  प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच निरंतर संघर्ष में ये गुम हो गए। रेल संपर्क बढ़ाने और शौचालयों के निर्माण जैसे थोड़े-बहुत जो काम हुए, वे असंतोष के महासागर में छोटी बूंदों के समान हैं।

दरअसल, 2014 के खंडित जनादेश के बाद अस्तित्व में आई गठबंधन सरकार का उद्देश्य तो प्रशंसनीय था, लेकिन प्रतिबद्धताएं मजबूत नहीं थीं। महीनों की बातचीत के बाद भाजपा और पीडीपी ने जो गठबंधन एजेंडा बनाया, उसके ज्यादातर बिंदु शांति बहाली के पैरोकारों के मांग-पत्रों से लिए गए थे। इस एजेंडे पर ढंग से काम किया गया होता तो हालात बदल सकते थे। लेकिन इसके लिए कोई राजनैतिक कदम नहीं उठाया गया और विकास योजनाओं का कार्यान्वयन भी आधे-अधूरे इरादों से किया गया। अनुच्छेद 370 और 35ए जैसे विवादित मुद्दों को हवा दी गई। असंतुष्ट तत्वों से बातचीत से किनारा किया गया और मानवाधिकारों की बात करने वालों या समस्या के मूल कारणों की ओर इशारा करने वालों को पाकिस्तानपरस्त और राष्ट्रविरोधी के तौर पर प्रचारित किया गया।

खुफिया रिपोर्ट असंतोष बढ़ने को लेकर लगातार आगाह कर रही थी और कई जानकारों का मानना है कि गठबंधन टूटने के हालात साल भर पहले ही बन गए थे। 2017 के अंत में दोनों दल शांतिपूर्ण पहल की दिशा में बढ़े। केंद्र ने दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार नियुक्त किया और पहली बार पत्‍थरबाजों को माफी देने की पहल हुई। इसके बाद रमजान के दौरान आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई रोकने की एकतरफा घोषणा की गई। लेकिन, रमजान के दौरान हिंसा और सीमा पार से गोलीबारी में इजाफा हुआ। जब अमन के पैरोकार पत्रकार शुजात बुखारी की ईद से एक दिन पहले हत्या हुई और उसी दिन सेना के जवान औरंगजेब की अगवा कर बर्बर तरीके से हत्या की गई तो केंद्र सरकार ने सीजफायर वापस ले लिया। उसके बाद भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार से समर्थन भी वापस ले लिया।

कश्मीर में अब राज्यपाल का शासन है और वार्ता अनिश्चित काल के लिए टाल दी गई है। फिलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि विधानसभा चुनाव जल्द या छह महीने के भीतर हो सकते हैं। मतलब यह कि 2019 तक राज्य में कोई निर्वाचित सरकार नहीं होगी। राज्य के अधिकांश राजनैतिक दलों ने राज्यपाल शासन पर सतर्क प्रतिक्रिया दी। इससे माहौल ठंडा होने और कुछ हद तक शासन बहाल होने की उम्मीदें हैं। जम्मू-कश्मीर के हालात के लिहाज से राज्यपाल वोहरा शायद सर्वाधिक उपयुक्त हैं। उनके कार्यकाल में तीसरी बार राज्यपाल शासन लगा है और वे केंद्र के वार्ताकार भी रह चुके हैं। घाटी में उन्हें सभी पक्षों का भरोसा हासिल है और उन्हें काम करने की आजादी दी गई तो वे हालात काबू करने में सफल हो सकते हैं। यह बात अलग है कि 2015 और 2016 के राज्यपाल शासन के मुकाबले इस बार उनके सामने ज्यादा चुनौतियां हैं।

केंद्र सरकार के लिए बीते चार साल में केवल नकारात्मक परिणाम देने वाली नीति को जारी रखना मुनासिब नहीं होना चाहिए। यह सही है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त की रिपोर्ट में कई तथ्यात्मक गड़बड़‌ियां हैं और पर्याप्‍त सबूतों के बावजूद यह रिपोर्ट पाकिस्तान की शह वाले आतंकी गुटों और पाकिस्तानी सेना को लेकर अपेक्षाकृत नरम है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन से कोई इनकार नहीं कर सकता। सशस्त्र संघर्ष वाले क्षेत्रों में ऐसे उल्लंघनों से बचना मुश्क‌िल है। भले ही भारतीय सुरक्षा बलों ने संयम बरतने की कोश‌िश की है। इसके बावजूद ह‌िंसा जारी रही। सो, बातचीत और मानवाधिकारों की रक्षा का रास्ता तलाशना ज्यादा जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र मानवाध‌िकार आयुक्त की रिपोर्ट की कई बातें हमारी वार्ताकार सम‌ित‌ि की रिपोर्ट में भी थीं और यूपीए सरकार ने उन पर थोड़े-बहुत सुरक्षा संबंधी सुधारात्मक कदम भी उठाए थे। 

हर गुजरते दिन के साथ कश्मीर के हालात बदतर होते जा रहे हैं। शुजात बुखारी और कश्मीरी सैन‌िक की हत्या इसी का संकेत हैं। फ‌िर भी राज्यपाल शासन के बावजूद मोदी सरकार दो कदम उठा सकती हैः वार्ताकार मुहिम को मजबूती देकर बातचीत के रास्ते की तलाश करे और विभाजन को बढ़ावा देने वाली राजनीति से भाजपा नेतृत्व और समर्थकों को दूर रहने का संदेश दे।

(लेखिका प्रति‌ष्ठित स्तंभकार और राजनैतिक विश्लेषक हैं)

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