आधुनिक पश्चिमी विश्वविद्यालय मध्यकालीन यूरोप की देन हैं। उन्हें उस समय की सत्ता और संपत्ति के दो प्रमुख केंद्र चर्च और सरकार का समर्थन हासिल था। इसके उलट, जैसा कि शिक्षा के इतिहासकार डेविड लाराबी ने लिखा है, “अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में कॉलेज स्थानीय संस्था जैसे ही थे। प्रतिस्पर्धी चर्चों के द्वारा देश में कॉलेज की स्थापना “अपने झंडे को ऊपर रखने और अपने धर्म के प्रचार-प्रसार” का प्रभावी तरीका था। कॉलेज की स्थापना किसी नगर को चर्चा में लाने का कारगर तरीका था, ताकि वह रेलवे स्टॉप, काउंटी सीट या यहां तक कि राज्य की राजधानी का दर्जा मांगे और अचल संपत्ति की कीमतों में इजाफा हो।”
यूरोपीय विश्वविद्यालयों की विश्वव्यापी महत्वाकांक्षाओं के उलट अमेरिकी विश्वविद्यालयों की शुरुआत सादगी भरी स्थानीय व्यवस्था के तौर पर हुई। समुदाय से गहरे जुड़ाव और कॉलेज स्तरीय खेल-कूद और पूर्व छात्रों के समर्थन से जुड़ी प्रतिबद्धता के कारण आज भी यह इतिहास जीवंत है। बाद में वहां दो बेहद अलग किस्म के विचार यूरोप से आयात किए गए और आश्चर्यजनक रूप से स्थानीयता के रंग में पिरो लिए गए। इनमें एक, जर्मनी की रिसर्च यूनिवर्सिटी का विचार था तो दूसरा, ब्रिटेन की अंडरग्रेजुएट कॉलेज-प्रणाली थी।
20वीं सदी में सबसे बड़ी संस्थागत ताकत को आकार देने के लिए तीन विरोधाभासी पक्षों लोकलुभावन, कुलीन और व्यावहारिकतावादियों का साथ आना एक अप्रत्याशित घटना थी।
ऑक्सब्रिज शैली के अंडर ग्रेजुएट कॉलेजों ने लोकलुभावन पक्षों मसलन, भाईचारा, सामुदायिक जीवन, फुटबॉल, सहयोगी अध्यापन शैली और आवासीय जीवन से छात्रों को परिचित कराया। व्यावहारिक कार्यों की स्पष्ट झलक कॉलेज के लिए भूमि अनुदान में दिखती है, जो मोरिल लैंड ग्रांट एक्ट 1862 और 1980 के तहत सरकारी जमीन पर स्थापित किए गए।
अमेरिका में जर्मनी के रिसर्च यूनिवर्सिटी के मॉडल के आगमन ने 1880 के दशक में वैज्ञानिक और दार्शनिक अनुसंधान को विशिष्ट स्वरूप दे दिया। जॉन हॉपकिंस इस मॉडल को अपनाने वाला पहला संस्थान था।
अन्य अमेरिकी संस्थानों ने तेजी से इस रास्ते का अनुसरण किया। यही कारण है कि स्थानीय दायरे में सिमटे और प्रायोजित अमेरिकी संस्थान आखिरकार वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा हासिल करने में कामयाब रहे।
समय के साथ दुनिया बदलती है और अक्सर यह अतिवादी मोड़ लेती है। आज अमेरिकी उच्च शिक्षा व्यवस्था के केंद्रीय संस्थान, ललित कला-विज्ञान के विश्वविद्यालय को प्रतिकूल वातावरण ने जकड़ रखा है। संस्थाओं के निर्माण के लिए 19वीं शताब्दी में बनी लोकलुभावनवादी, कुलीन और व्यावहारिकतावादियों की अविश्वसनीय तिकड़ी आपसी अदावत से बिखरी हुई है। कुलीनों की कड़वाहट, अत्यधिक अनुसंधान और बौद्धिक उपलब्धियों ने श्वेतों के कामकाजी वर्ग में बड़े पैमाने पर निराशा पैदा करने और ट्रंप जैसे राष्ट्रपति के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। इसने 20वीं शताब्दी में पूरी दुनिया के लिए ईर्ष्या का विषय रही अमेरिकी विश्वविद्यालय की व्यवस्था में लोगों के भरोसे को कम किया है।
एरिजोना से फ्लोरिडा तक ललित कला और विज्ञान, यहां तक कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई को रिपब्लिकन नेताओं के समर्थन में काफी कमी आई है और उसकी जगह व्यावसायिक और पेशेवर पाठ्यक्रमों की पैरोकारी की जा रही है। परंपरागत विश्वविद्यालयों को पेशेवर प्रमाण-पत्र देने वाले ऑनलाइन प्रोग्राम में बदलने की भी अपील हो रही है। अमेरिकी विश्वविद्यालय में पूर्णता प्राप्त करने वाली ललित कला की व्यापक व्यवस्था, मानविकी तथा सामाजिक और मौलिक विज्ञान की बहुआयामी शिक्षा में तेजी से कमी आई है।
यह विडंबना है कि आधुनिक ललित कला की शिक्षा जिस देश में पैदा हुई, वहीं यह जमीन खोने लगी है और उन देशों में लोकप्रिय हो रही है जिनमें से ज्यादातर 20वीं सदी के पेशेवर प्रशिक्षण के जुनून से प्रभावित हैं।
तकनीकी शिक्षा के प्रति दीवानगी के कारण चीन, कोरिया, सिंगापुर और भारत में यह आगे बढ़ रहा है। इसके अलावा, इन देशों की गिनती शिक्षा व्यवस्था पर नौकरशाही के अत्यधिक दबाव, वर्गीकृत पाठ्यक्रम और परीक्षा केंद्रित अध्यापन शैली को लेकर होती रही है, जहां दशकों तक प्रोफेसर लेक्चर देते रहे और छात्र पूरी वफादारी से नोट तैयार करते रहे।
हालांकि, 21वीं शताब्दी में चीन, जापान और दक्षिण कोरिया में ललित कला और विज्ञान के कई नए कॉलेज उभरे हैं। इनमें से कुछ अमेरिकी सहयोग से स्थापित किए गए हैं, मसलन ः एनवाइयू-शंघाई, ड्यूक कुनशान और शायद सबसे प्रसिद्ध येल-एनयूएस। सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी, चाइनीज यूनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग, कुंग ही यूनिवर्सिटी और ईवा वूमेंस यूनिवर्सिटी जैसे अन्य संस्थान भी घरेलू स्तर पर ललित कला कॉलेज और पाठ्यक्रम के क्षेत्र में पहल कर रहे हैं।
चीनी विश्वविद्यालयों में अंडरग्रेजुएट एजुकेशन को ज्यादा धार देने और बहुआयामी अनुभव के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। इसके तहत ही चीन और हांगकांग ने पहली बार मिलकर 2005 में यूनाइटेड इंटरनेशनल कॉलेज की स्थापना की। चीन के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों द्वारा छोटे आवासीय अंडरग्रेजुएट कॉलेज खोलना एक प्रभावशाली चलन बन गया है। अन्य विश्वविद्यालयों ने सामान्य शिक्षा कार्यक्रम शुरू किए हैं और दूसरे वर्ष में विशेषज्ञता देने में देरी कर रहे हैं। बीजिंग विश्वविद्यालय के युआनपेई कॉलेज, शिंगुआ यूनिवर्सिटी के शिन्या कॉलेज, यूनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग में कई प्रकार के कोर और विस्तार और फुडान यूनिवर्सिटी में अंडरग्रेजुएट एजुकेशन के लिए अपग्रेड प्लान 2020 की आवश्यकता से भी यह जाहिर होता है। ऐसा देश जहां आमतौर पर कैंपस में पांव रखने से पहले ही छात्र ई-कॉमर्स और मेकेनिकल इंजीनियरिंग जैसे विषयों को चुन लेते थे, यह लीक से हटकर चलने जैसा है। चीन के केंद्रीय अधिकारियों ने भी तेजी से यह स्वीकार किया है कि 1950 के दशक की सोवियत शैली के पाठ्यक्रम जो अत्यधिक विशेषज्ञता और राजनीतिक सिद्धांत पर जोर देते हैं, अब लंबे समय के लिए प्रासंगिक नहीं रह गए हैं।
भारत में कला और विज्ञान की शिक्षा पर औपनिवेशिक काल में स्थापित विश्वविद्यालयों का प्रभुत्व रहा है। शुरुआत से ही इनका मुख्य मकसद शाही प्रशासन के लिए बड़ी संख्या में क्लर्क और नौकरशाह पैदा करना था। इसलिए, इन विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम परीक्षा केंद्रित रहे और सीखने से ज्यादा रटने पर जोर रहा। आजादी के बाद कई दशकों तक इस मॉडल में बदलाव नहीं किया गया। लेकिन, नई सहस्राब्दि में यहां भी कई निजी और गैर-सरकारी संस्थानों की स्थापना हुई जो बहुआयामी ललित कला पाठ्यक्रम और संवादात्मक अध्यापन शैली की उच्च शिक्षा के अमेरिकी मॉडल से प्रभावित हैं। देश में कई संस्थान हैं, जिनमें शामिल अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में सामाजिक विकास, शिव नाडर यूनिवर्सिटी में इंजीनियरों की सर्वांगीण शिक्षा और ओपी जिंदल यूनिवर्सिटी में कानूनी पेशेवरों के लिए संपूर्ण शिक्षा पर जोर दिया जाता है। फ्लैम, अशोका और केआरईए जैसे विश्वविद्यालय ललित कला की शिक्षा पर विशेष ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं।
एशियाई परिदृश्य के लिहाज से ये संस्थान उच्च शिक्षा की मौलिक परंपरा की जगह नई शैली का अनुकरण कर रहे हैं, इसलिए नए ललित कला संस्थान कई तरह की आलोचनाओं का सामना कर रहे हैं।
- ऐसे देश में महंगी निजी शिक्षा की शुरुआत के क्या मायने हैं, जहां उच्च शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी मानी जाती है? अमेरिका में मांग होना किसी भी चीज से ज्यादा उत्कृष्ट निजी संस्थानों की ओर लुभाता है, क्योंकि इससे सत्ता और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के खास नेटवर्क की सदस्यता मिल जाती है। ऐसे संस्थानों के लिए अमूमन वंचित तबके तक पहुंचना कठिन होता है। इसी साल हार्वर्ड ने मील का पत्थर माने जाने वाले एक फैसले में ऐसी कक्षा की शुरुआत की है, जिसमें आधे अश्वेत हैं। इसके लिए विरासत में मिली दाखिला व्यवस्था में बदलाव जरूरी थे, जिससे यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्रों के दफ्तर में कुछ बेहद गरमागरम बहस शुरू हो गई। पहले से व्याप्त पदानुक्रम के सख्त ढांचे में महफूज सामाजिक-आर्थिक कुलीनता के डिजाइन को तोड़ने के लिए एशिया के निजी संस्थानों को आगे बढ़कर किस तरह के प्रयास और दाखिले की प्रक्रिया में सुधार करने होंगे?
-क्या इस तरह के अवसर से निजी और कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व बढ़ेंगे? निश्चित तौर पर दुनिया में कहीं भी सरकारी विश्वविद्यालयों को उच्च शिक्षा की रीढ़ होनी चाहिए। वास्तव में अमेरिका में भी ऐसा है और बड़े सरकारी विश्वविद्यालय पूरे देश में फैले हुए हैं। लेकिन, सरकार के ढुलमुल रवैए से स्पष्ट है कि नए अनुसंधान और पढ़ाई के अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए निजी स्तर पर समर्पित पहल की भी जरूरत है।
-तालीम देने, अनुसंधान और सामुदायिक भागीदारी को जोड़कर लंबे समय तक बनाए रखने की चुनौती स्थानीय और वैश्विक दोनों स्तर पर होगी। भारत में इन तीनों कार्यों को सुव्यवस्थित करने के लिए अलग-अलग तरह के संस्थान हैं। फिर भी आज की दुनिया के कुछ प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय इन तीनों के युग्म से ही नामचीन हुए हैं।
-ललित कला और विज्ञान की शिक्षा के बढ़ते मौके भारत जैसे देशों की बढ़ती युवा आबादी के लिए रोमांचक अवसरों के दरवाजे खोलते हैं। हार्वर्ड के प्रसिद्ध अध्यक्ष चार्ल्स विलियम एलियट ने चिकित्सा और कानून की पेशेवर शिक्षा के लिए ललित कला-विज्ञान की डिग्री को औपचारिक शर्त बनाने की शुरुआत की थी। आज की दुनिया में जब नौकरियों की प्रकृति तेजी से बदल रही है, जिंदगी में लोग कई बार नए सिरे से कॅरिअर शुरू करने की कोशिश करते हैं, बड़े पैमाने पर मौलिक कला और विज्ञान से जोड़ने वाली शिक्षा, अतीत के झरोखे से कहीं ज्यादा भविष्य का दर्शन है।
(लेखक स्तंभकार हैं। उनकी हालिया किताब है, कॉलेजः पाथवेज ऑफ पॉसबिलटी)