कश्मीर में जब फोटोग्राफी विडंबनाओं और त्रासदियों की गवाह बनने की फितरत में उतर आई, उन्हीं बरसों यानी 1986 से लेकर 2016 के बीच कश्मीरी फोटोग्राफरों की तस्वीरों को विटनेस (चश्मदीद गवाह) में संजोया गया है। इन उथल-पुथल भरे दशकों में खींची गई तस्वीरों में अतीत से गहरा अलगाव दिखता है। इसके पहले फोटोग्राफरों की लेंस वादियों की खूबसूरती कैद करने में ही मस्त दिखती है और तस्वीरें पर्यटकों को लुभाने या चकित करने का माध्यम जैसी लगती हैं और उसके पहले तो कैमरे औपनिवेिशक दौर को ही कैद करने में अपनी अहमियत समझते थे। उनमें कश्मीरी लोग कहीं नजर नहीं आते थे। नई पीढ़ी के फोटोग्राफरों की नजर मानो इससे चौंक उठी और शिद्दत से लोगों पर फोकस करने लगी।
1990 के दशक में सेना और अर्द्धसैनिक बलों का सख्त अलगाववाद विरोधी अभियान शुरू हुआ और कश्मीर खून-खराबे से लथपथ हो उठा, पुरानी यादें धुंधली होने लगीं। उस दौर की यादें भी अब घुंधली पड़ने लगी हैं। ऐसे में फोटो-पत्रकारों के काम उन्हें फिर ताजा करते हैं। हालांकि वे यादें भी खौफनाक हैं।
विटनेस नौ जिंदगियों और उनके काम की भी दास्तां है। इनमें सबसे बुजुर्ग 1986 में ही स्थापित फोटोग्राफर थे तो सबसे युवा 2016 में अभी 20 बरस का भी नहीं था। इनकी तस्वीरें कोई एक तरह की ही विटनेस नहीं हैं, न ही कई बार पूरी सच्चाई खोलती हुई लगती हैं। इन गवाहियों को उनकी पेचीदगी और बड़े फलक के साथ ही आंका जा सकता है। फिर भी घटनाओं के इन सिलसिलों में कश्मीर और उसके लोगों की दास्तां बयान करने में यह किताब काफी हद तक कामयाब है।
श्रीनगर ः डल झील में फूल विक्रेता, 2007 (जावीद शाह)
पेहलीपोरा ः एक आतंकवादी का अंतिम संस्कार, 2016 (डार यासिन) © एपी फोटो
श्रीनगरः ग्रेनेड हमले के बाद बर्बादी और सन्नाटा, 2006 (अलताफ कादरी)
अनंतनाग: प्रवासी मजदूर परिवार, 2015 (जावेद डार)
श्रीनगर: डल झील में परिवार को मिली पनाह, 2014 (सैयद शहरयार)
बारामूला: शहीद कब्रगाह में गिरफ्तारी से बचता सकीब, 2014 (शौकत नंदा)
(वृत्तचित्रकार संजय काक विटनेस के संपादक हैं)