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स्त्री-मुक्ति के नए आयाम

नया स्‍त्रीवाद हर वर्ग की विशिष्ट समस्याएं स्वीकारता है, स्‍त्री देह घाव भी है, घाव दिखाना देह दिखाना नहीं
स्‍त्री-मुक्ति दिल तोड़ने और घर फोड़ने वाली ओछी ‌स्त्रियों का कोरा वाग्विलास नहीं

स्‍त्री-मुक्ति के नए आयामों पर बात करते हुए मुझे सबसे पहले याद आती है मीरा की प्रेम-बेलः

‘अंसुवनजल सींच-सींच प्रेम बेल बोई

अब तो बेल फैल गयी, आनंद फल होई’

यह बेल जो फैली है कंटीली चारदीवारियों के पार, उसे मैं स्‍त्री-विमर्श की प्रेम-बेल की तरह पढ़ना चाहूंगी। स्‍त्री-विमर्श की यह प्रेम-बेल न सिर्फ मध्य एशियाई, दक्षिण एशियाई, लातिन अमेरिकी, अफ्रीकी खेतों तक फैली है, बल्कि पारिवारिकता, यौनिकता, श्रम, संसाधन-वितरण, विस्थापन, युद्ध, आतंक, नव-उपनिवेशन, धर्मेतर अध्यात्म, बाजार और पर्यावरण तक के सब महत्वपूर्ण प्रश्नों पर गंभीर विश्लेषणात्मक और समाधानमूलक समवेत चिंतन के कई नए शक्तिपीठ इसने कायम किए हैं।

प्रेम-बेल यह इस तरह से है कि इसने हमेशा सबको छांह देने की सोची। कभी अपने ‘स्व’ का घेरा सीमित नहीं रखा, खासकर पिछली सदी के सातवें दशक के बाद से जब रैडिकल स्‍त्रीवादी अश्वेत आंदोलन से जुड़ी!

इसके पहले के वर्षों में भी जब यह उपनिवेशवादी पश्चिम की समृद्ध महिलाओं का अधिकार सजग आंदोलन था, इसके दोनों संकाय-लिबरल संकाय और मार्क्सवादी संकाय-अपने समय के बृहत्तर प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे, युद्ध और वर्ग-उन्मूलन के प्रश्न से। भारत तक आते-आते वर्ग उन्मूलन का प्रश्न जाति-उन्मूलन के बृहत्तर पक्ष से जुड़ा, खासकर उन स्त्रियों के यहां जो स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थीं। ध्यान से उस समय का स्‍त्री-लेखन पढ़ने बैठें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्र देश की कल्पना एक खुशदिल संयुक्त परिवार के रूप में उन्होंने की थी, जहां दिल से दिल तक राह जाती है और ज्यादातर विवाद आपसी बातचीत से सुलझा लिए जाते हैं, कम से कम अपने यूटोपियाई स्वरूप में।

नवें दशक के बाद जब अचानक सभी भाषाओं में स्‍त्री-लेखन और स्‍त्री-चिंतन का सैलाब-सा उमड़ा या कहिए कि स्‍त्री आंदोलन परवान चढ़ा, ज्यादातर देशों में लोग घबरा-से गए। स्वाभाविक थी यह घबराहट! आज जिस कुर्सी पर हम धम्म से बैठ जाते हैं या जिसको जब चाहें लात से, हाथ से इधर-उधर धकिया देते हैं, कल वह कुर्सी उठकर हमसे कहे कि भाई, मेरा पखुड़ा उखड़ गया है, प्लीज ऐसे न पेश आओ नहीं तो हम भी घबरा जाएंगे। पूरे स्‍त्री-विमर्श का सार आखिर तो एक पंक्ति में यही बनेगा कि स्‍त्री-पुरुष में भेड़-भेड़िया, शिकार-शिकारी वाला रिश्ता न रहे, दोस्ताना रिश्ता हो। दोनों की मानवीय गरिमा की रक्षा हो, संसाधान और अवसर दोनों को बराबर मिलें, स्‍त्री को ही नहीं, मानव मात्र को।

नया स्‍त्रीवाद यह मानता है कि हर वर्ग, हर वर्ण, हर नस्ल, हर संप्रदाय की ‌‌स्त्रियों की अपनी विशिष्ट समस्याएं भी हैं, पर कुछ दुख हैं जो अमीर-गरीब, गोरी-काली, हिंदू-मुस्लिम, दलित-गैरदलित, शहराती-देहाती-सब ‌‌िस्‍त्रयों के साझा हैं। सब तरह की ‌‌स्त्रियों की देह, उनके बहुविध शोषण की साइट है। स्‍त्री देह से जुड़े अपराधों की फेहरिस्त लंबी है-भावहीन, यांत्रिक संभोग और बलात्कार, भ्रूणहत्या और साफ-सुथरे प्रसव की व्यवस्था का अभाव, पोर्नोग्राफी, एड्सभीत देशों में बच्चियों का निर्यात, पण्‍यीकरण या कॉमॉडिफिकेशन, मार-पीट, गाली-गलौज, दहेज-दहन, डायन-दहन, सती, वेश्यावृत्ति...देह से जुड़े ये दुख और फिर एक और साझा दुख ये कि किए-दिए, लिखे-पढ़े को, उनकी घोर मेहनत के उत्पादों को लगातार खारिज किया जाता या उसको कमतर करके आंका जाता है, सिर्फ इसलिए कि इसका शिल्प अलग है और भाषा भी। जो ‘मेरा’ या ‘मेरे जैसा’ नहीं, वह घृणा और हिकारत के लायक है-यह धारणा फासीवाद का चरम है।

पहले स्त्रियां तन-मन से सेवा करती थीं और वह भी अपने पूरे घर की, अब की ‌स्त्रियां तन-मन-धन से घर-बाहर दोनों संवारती हैं, फिर भी उद्धत अतिपुरुषों की दुनिया कहती है कि स्‍त्री-मुक्ति दिल तोड़ने और घर फोड़ने वाली ओछी ‌स्त्रियों का कोरा वाग्विलास है, जो अपनी देह का तमाशा बना रही हैं। देह से जुड़े दुख की बात कहते हुए देह सामने आएगी ही! स्‍त्री-देह एक टभकता घाव ही तो है और घाव दिखाना देह दिखाना नहीं होता। हां, स्‍त्री-देह में आनंद निर्झर भी बहता है! गर्भधारण, दूध पिलाना आदि विशिष्ट अनुभूतियों के अलावा घर-मुहल्ले की ‌िस्‍त्रयों का साझा मातृत्व, उन ‌स्त्रियों की ममता जिन्होंने गर्भधारण नहीं किया, ‌फिर भी जिनकी दृष्टि-मातृ‌दृष्टि ही है... ये कुछ बातें स्त्रियों की देह और उनकी भाषा को एक अलग तरह की पुलक से भर देती हैं। अगर कोई इस पुलक की चर्चा कर भी देता है तो क्या! कालिदास और लॉरेन्स की काव्यात्मक उड़ान स्‍त्री भाषा के निकट है- स्‍त्री-पुरुष और प्रकृति, इस प्यारी तिकड़ी का उच्छल, समवेत संवेग पकड़ने वाली भाषा ही तो आखिर शीर्षस्थ रचनात्मकता का उत्स है।

तो, कुल मिलाकर जो बात सामने आती है, वह यह कि स्‍त्री-‌मुक्ति दिल तोड़ने और घर फोड़ने वाली ओछी स्त्रियों का कोरा वा‌ग्विलास नहीं है। वस्तुस्थिति यह है कि घर और दिल दोनों का दायरा बढ़ा देने की कोशिश स्‍त्री-मुक्ति ने हमेशा ही की है। ज्यादातर स्‍त्री-लेखन जिस परिवार का गढ़ंत सामने रखता है, उसके सदस्य सिर्फ यौन-संबंध और रक्त के रिश्ते नहीं, आत्मा के संबंध से भी जुड़े हैं और इन आत्मीय संबंधों का परिसर इतना बड़ा है कि इसमें सब वंचित जन, बेरोजगार, वृद्ध, बीमार, चिरई-चुरंग, पेड़-पौधे, पशु, ‌नदियां, पहाड़ और वे सब कामगार आ जाते हैं जो छोटे रोजगारों से जुड़े हैं। यह बिलाशक कहा जा सकता है कि ‌स्त्रियां हैं तो दिल खोलकर अपना दुख-सुख बतिया लेने की विरासत बची है, भाव-संवेग और यकीनी बची है।

आतंकवादी भी यह बात समझते हैं। आइएसएस से जुड़े कुछ आतंकियों की जीवनी पढ़ते हुए भी यह बात स्पष्ट होती है कि उन्हें आतंकवाद का प्रशिक्षण देने के लिए मां की गोद से लपक लिया जाता है, उन्हें प्रेम की इजाजत नहीं होती, इसका खास निर्देश होता है कि यौन-संबंध बनें भी तो प्रेमविरत यानी कि पशुवत। पितृसत्ता से भी स्‍त्री-मुक्ति प्रजातांत्रिक संवाद ही चाहती है, कोई सिर-फुड़ाावल नहीं चाहती। सहज मानवीय विवेक से वह यह समझती है कि प्रतिशोध किसी भी समस्या का समाधान नहीं बन सकता, एक दमन-चक्र का जवाब दूसरा दमनचक्र होता रहा तब तो सभ्यता बैक-गियर में चलती-चलती सीधी पाषाण युग तक पहुंच जाएगी।

स्‍त्री आंदोलन दुनिया का एकमात्र आंदोलन है (इंग्लैंड के ग्लोरियस आंदोलन के सिवा) जिसने कभी एक बूंद खून नहीं बहाया, पूर्णतः अहिंसात्मक रहा, साम-दाम के बाद दंड-भेद आजमाया, और दंड स्वरूप भी डंडे नहीं भांजे।

पुरुष का मानसिक-आत्मिक-भाषिक परिष्कार ही इसका मुख्य प्रयोजन है, इस दिशा में इसने जो संघर्ष किए हैं-मनोवैज्ञानिक युद्ध के रूप में ही। और अभी भी आस नहीं तोड़ी कि नई स्‍त्री का गोइयां बनने लायक नए पुरुष स्‍त्री-आंदोलन की कोख से पैदा होंगे, ऐसे पुरुष जिनसे बराबरी का प्रेम किया जा सके, जिद्दी बच्चा समझ कर जिन्हें रोज माफ न करना पड़े, जो काम-क्रोध-लोभ से मताए अतिपुरुष न हों, हंसमुख-से दोस्त पुरुष हों केवल।

कुल मिलाकर विमर्श जो कहता है, उसका सारांश यह कि नई स्‍त्री वह है जो प्यार करती है, प्रतिबद्ध रहती है, जिम्मेदारियां उठाती है और सबको मिलाकर चलती है। स्‍त्री-पुरुष, नाचना-गाना, खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना सबसे प्रेम करती है। संघर्ष से प्रेम करती है, पशुओं से, पेड़ से, पहाड़ से, दुश्मन से प्रेम करती है और प्रेम करती है खुद से भी! तब ही तो वह चाहती है कि लज्जा, धीरज, सहिष्णुता, ममता, त्यागादि सब सद्‍गुण सिर्फ स्‍त्री-धन न रहें, दूसरे संसाधनों की तरह वे भी बराबर बंटें। बेचारे पुरुषों की भी झोली भर जाए सब सद्‍गुणों से और घृणा की राजनीति से वे बाज आएं।

(लेखिका प्रख्यात कवयित्री, साहित्यकार और दिल्ली के सत्‍यवती कॉलेज में अंग्रेजी की रीडर हैं) 

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