एक दशक किसी भी देश के लिए लंबा समय होता है जो नई पीढ़ी के बेहतर भविष्य को मजबूत आधार देने में कारगर साबित हो सकता है। इसलिए आर्थिक और सामाजिक प्रगति के आकलन के लिए एक दशक पर्याप्त अवधि है। पिछले चार दशकों का आकलन करें तो हमें दो तरह के नतीजे देखने को मिलते हैं। पिछली 20वीं सदी के अस्सी और नब्बे के दशकों में भारी उथल-पुथल दिखी। कई तरह की नेगेटिविटी भी दिखी तो कई बड़े बदलावों की शुरुआत भी उन दो दशकों में हुई।
अस्सी का दशक तो भयावह हिंसक घटनाओं के साथ बड़े राजनैतिक घटनाक्रमों के लिए जाना जाएगा। यही दौर भिंडरांवाले से लेकर पंजाब में खौफनाक आतंकवाद, दिल्ली में सिख दंगे, भागलपुर, मलियाना, असम में नेली और भोपाल गैस कांड का गवाह बना। इसी में शाहबानो प्रकरण, मंदिर-मंडल आंदोलनों की नींव पड़ी, जिसके अक्स नब्बे के दशक में खुलकर दिखे। नब्बे के दशक में मुंबई दंगों से लेकर देश के कई हिस्सों में भयानक दंगे हुए, जो सांप्रदायिक खाई चौड़ी कर गए।
लेकिन सदी के अंतिम दशक में चीजें बदल भी रही थीं। एक बड़े संकट के बाद अर्थव्यवस्था पटरी पर आने लगी। आर्थिक सुधारों ने आंत्रप्रन्योरशिप के नए आयाम दिखाए। देश में एक बड़ा आइटी क्षेत्र खड़ा होने लगा, जिसकी धमक विकसित देशों तक में सुनाई दी। देश और विदेश में भारतीय पेशेवरों को मजबूत पैठ बनाने का मौका मिला। नौकरी के लिए सरकारी मौकों के बजाय निजी क्षेत्र में बेहतर मौके मिलने का दौर आया। यह दौर चालू 21वीं शताब्दी के पहले दशक में काफी हद तक आगे बढ़ा।
लेकिन 21वीं शताब्दी का दूसरा दशक शुरू होते ही ठहराव और गर्त की ओर बढ़ने के नजारे दिखने लगे। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार एक के बाद एक भ्रष्टाचार के आरोपों से पस्त होने लगी। बाद के दिनों में तो माहौल ऐसा हो गया कि लोग सरकार का कार्यकाल पूरा होने का इंतजार करने लगे। अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही थी। रोजगार के लिए युवाओं की उम्मीदें पूरी नहीं हो पा रही थीं। इसी बीच गुजरात मॉडल की कामयाबी की बातें उछलीं। यूपीए सरकार की नाकामी के बीच नरेंद्र मोदी देश की केंद्रीय राजनीति में मजबूती से अवतरित हुए। 2014 के लोकसभा चुनावों में तीस साल बाद किसी एक पार्टी के रूप में भाजपा को बहुमत हासिल हुआ। 'अच्छे दिन' के वादे से नरेंद्र मोदी नई आशाओं के प्रतिबिंब बन गए। लोगों को उम्मीद बंधी कि अर्थव्यवस्था की विकास दर नए आयाम छुएगी, रोजगार के अवसर पैदा होंगे, भ्रष्टाचार थमेगा और गर्वनेंस बेहतर होगा। मोदी ने 'मिनिमम गवर्नमेंट' और 'मैक्सिमम गवर्नेंस' का वादा जो किया था।
लेकिन मोदी की अगुआई में एनडीए सरकार के पचास महीने बीतने के बाद लगता है कि जो कहा गया था, वह नहीं हुआ। उल्टे देश में विभाजन की खाई बहुत गहरी हो गई है। विकास दर को बेहतर दिखाने के लिए नए पैमाने बनाए गए, मगर इस पैमाने से भी दर पिछले दशक से नीचे है। रोजगार के मौके थोड़े ही पैदा हुए और किसान सड़क पर हैं क्योंकि उनको जो उम्मीद बंधाई गई थी, वह पूरी नहीं हुई है।
यही नहीं हुआ, कानून का राज खत्म होता लगा। आये दिन सरेआम भीड़ की हिंसा आम हो गई है। इस मायने में सरकारी बैंकों को हजारों करोड़ रुपये की चपत लगाने वाले एक भगोड़े कारोबारी का ताजा बयान चौंकाने के लिए काफी है। उसने कहा है कि वह भारत इसलिए नहीं आना चाहता क्योंकि वहां भीड़ उसे मार डालेगी। यह बयान देश की छवि के लिए बहुत घातक है। ऐसा वह तभी कह सका जब माहौल यही बनता जा रहा है। लिंचिंग की घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट को सख्त टिप्पणी करनी पड़ी। उसके बाद भी 80 साल के स्वामी अग्निवेश के साथ झारखंड के पाकुड़ में मारपीट हुई। अलवर में रकबर की लिंचिंग से तो सवाल खड़े हो गए कि जब पुलिस भी संदिग्ध हो तो किस पर भरोसा किया जाए।
यह चिंता किसी को नहीं कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में देश की क्या छवि बन रही है! राजनैतिक दल आरोप-प्रत्यारोप में मशगूल हैं कि किसके राज में ज्यादा लिंचिंग हुई। संसद में सरकारी पक्ष पुराने मामलों का हवाला भर देकर हाथ झाड़ लेता है, न कि समस्या को हल करने के कदम उठाये जाएं। केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों के विवादास्पद बयान साबित करते हैं कि समस्या को राजनैतिक शक्ल देकर वोट बैंक को मजबूत करने पर जोर है। यह किसी पार्टी की राजनैतिक ताकत पाने की रणनीति तो हो सकती है लेकिन देश और समाज के हित में नहीं।
अगर यही सब चलता रहा तो यकीनन हम एक पूरा दशक गंवा बैठेंगे। जहां आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियां बढ़ रही हैं, वहीं सामुदायिक खाई बढ़ती जा रही है। जो हमें पिछली शताब्दी के आठवें दशक की ओर धकेल रही है। यह किसी के लिए हितकर नहीं है। बेहतर होगा कि सरकार और राजनैतिक दल हालात बदलने के लिए गंभीरता से काम करें और अपने सत्ता-स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के लोगों का जीवन बेहतर बनाने की दिशा में काम करें!