अमूमन हर लोकसभा के आखिरी सत्र सत्ता-पक्ष और विपक्ष की अगली मोर्चेबंदियों का चश्मदीद बनते हैं या उसके संकेत साफ कर देते हैं। लेकिन 16वीं लोकसभा कुछ पहले वर्षाकालीन सत्र में ही जोरदार गर्जना के साथ मोर्चेबंदियों का खुलासा करने लगी, मानो सियासी माहौल पूरी तरह पक गया हो। बेशक, अभी कहने को तो दो या एक मुकम्मल शीतकालीन सत्र बाकी है, लेकिन सियासी गलियारों में कानाफूसी भी इतनी आम और ऊंची है कि अब अगले सत्रों के इंतजार का धैर्य सत्ता-पक्ष और विपक्ष दोनों में ही टूटता जा रहा है। इसलिए यह पहले से ही तय था कि तेलुगु देशम के अविश्वास प्रस्ताव का मकसद 2014 में ऐतिहासिक बहुमत लेकर आई नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली एनडीए सरकार को संख्याबल में हराना नहीं है, बल्कि उसकी दरारों को कुछ अधिक चौड़ा करना और विपक्ष की खेमेबंदी को साफ करना था। यही हुआ भी।
यही वजह है कि सबसे ज्यादा फोकस में कांग्रेस आ गई। प्रस्ताव पर बहस से पहले ही यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा, “कौन कहता है कि हमारे पास नंबर नहीं है।” यह विपक्ष को पूरी तरह आक्रामक बने रहने का संकेत था तो सत्ता-पक्ष को इशारा था कि तैयारी मुकम्मल है। शायद इसी वजह से भाजपा ने उनके बयान को हंसी में उड़ाने की कोशिश की। लेकिन बाद में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने बेहद तीखे भाषण से स्पष्ट कर दिया कि वे न सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को “आंख चुराने” पर मजबूर कर सकते हैं, बल्कि अगले चुनावों के सभी मुद्दों को दो-टूक शब्दों में धारदार ढंग से पेश कर सकते हैं। उन्होंने बैंकों के एनपीए, माल्या-ललित मोदी-नीरव मोदी, भाजपा अध्यक्ष के बेटे की कमाई, राफेल सौदे में कथित घोटाले, मॉब लिंचिंग, दलित तथा महिला उत्पीड़न, किसानों की नाराजगी, बढ़ती बेरोजगारी जैसे तमाम मुद्दे सिलसिलेवार ढंग से गिनाए। यही नहीं, उन्होंने कट्टर हिंदुत्व बनाम उदार हिंदूधर्म को भी अगले चुनावों में मुद्दा बनाने का स्पष्ट संकेत दिया। इसी से आप उस वाकये को भी जोड़ सकते हैं, जिसे अगले दिन उत्तर प्रदेश की एक सभा में प्रधानमंत्री ने “गले पड़ना” बताया।
नतीजा यह हुआ कि लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव का जवाब देने उठे प्रधानमंत्री मोदी के करीब डेढ़ घंटे के भाषण का दो-तिहाई हिस्सा कांग्रेस को ही समर्पित था। प्रधानमंत्री ने न सिर्फ कांग्रेस के पुराने “पापों” का हवाला दिया, बल्कि गिन-गिनकर उन विपक्षी नेताओं और पार्टियों का हवाला दिया, जिन्हें कांग्रेस ने “दगा” दिया। मानो बाकी विपक्षी दलों को कांग्रेस का हाथ थामने से आगाह कर रहे हों। इससे यह संकेत तो जाहिर था कि सत्ता-पक्ष को कांग्रेस से ज्यादा विपक्षी महागठजोड़ की संभावना आशंकित कर रही है, जिसके संकेत कई हलकों से मिल रहे हैं। लेकिन बाद के घटनाक्रमों ने साबित किया कि प्रधानमंत्री की बाकी विपक्षी और क्षेत्रीय दलों को चेतावनी का कुछ उलटा ही संकेत गया।
लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव गिरने के अगले ही दिन तेलुगु देशम के नेता, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु दिल्ली में थे। प्रधानमंत्री अपने भाषण में उन्हें “अपरिपक्व” कह गए थे। जवाब में नायडु ने कहा, “मोदी 2001 में मुख्यमंत्री बने जबकि वे 1995 में मुख्यमंत्री बन गए थे। ऐसी भाषा प्रधानमंत्री पद की गरिमा गिराती है।” नायडु ने इसके साथ यह संकल्प भी दोहराया कि विपक्ष पूरी तरह तैयार है और अगले चुनावों में एनडीए को ज्यादातर सीटों पर सीधा मुकाबला मिलेगा। उसी दिन बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती ने भी दिल्ली में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक में साफ संकेत दिया कि उत्तर प्रदेश में तो तालमेल होना ही है, पार्टी राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के अलावा कुछ और राज्यों में गठजोड़ में शामिल हो सकती है। इसे संयोग भी कह सकते हैं कि तृणमूल कांग्रेस की नेता, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उसी दिन कोलकाता में अपने शहीदी दिवस के कार्यक्रम में कहा कि फेडरल फ्रंट वास्तविकता है और कांग्रेस से कोई गुरेज नहीं है।
आवाजें समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव की ओर से भी लोकसभा में राहुल के भाषण की तारीफ में उठीं। द्रमुक के कार्यकारी अध्यक्ष एम.के. स्टालिन ने मोदी सरकार के समर्थन के लिए अन्नाद्रमुक की आलोचना ही नहीं की, बल्कि यह भी बताया कि ऐन अविश्वास प्रस्ताव के दिन ही सुबह तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलानीसामी के यहां ईडी के छापे भी अपनी कहानी कहते हैं। ओडिशा के बीजद ने तो प्रस्ताव पर बहस का बहिष्कार किया ही। एनडीए के लिए खतरे की घंटी यह थी कि उसकी सहयोगी शिवसेना ने भी बहिष्कार किया और उसके मुखपत्र सामना में राहुल के भाषण की तारीफ की गई। इससे या किन्हीं बातों से बिदक कर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा भी कि महाराष्ट्र में भाजपा अगले चुनाव में अकेले ही उतरेगी।
दरअसल, एनडीए की दिक्कतें इतनी ही नहीं हैं। एकाध दिन बाद ही उसके एक और सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी के नेता, केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान और उनके सांसद पुत्र चिराग ने ऐलान किया कि सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज ए. के. गोयल को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का अध्यक्ष नियुक्त करने से गलत संदेश गया क्योंकि उन्होंने अनुसूचित जाति उत्पीड़न कानून को नरम बनाने का फैसला सुनाया था। ये लोग विरोध में दलित सांसदों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन भी सौंपने वाले हैं। इसी तरह बिहार में दूसरे सहयोगी लोक समता पार्टी के नेता, केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा भी हाल में सीटों के बंटवारे का मामला उठा चुके हैं। यह मामला तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जदयू भी उठा चुकी है। लेकिन पासवान और कुशवाहा की मांगों के सियासी संकेत कुछ और पढ़े जा रहे हैं।
दूसरी ओर, सूत्रों की मानें तो विपक्षी गठबंधन का एक मोटा खाका तैयार हो चुका है। इसके संकेत भी हाल में एक पत्रिका को इंटरव्यू में ममता बनर्जी कुछ इस तरह दे चुकी हैं, “जहां क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, वहां वे लड़ें, जहां कांग्रेस ताकतवर है, वहां वह लड़े। कुल मिलाकर 75 सीटों पर सीधा मुकाबला हो गया तो समझिए कि खेल खत्म है।” याद करें कि कर्नाटक चुनावों के ऐन पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव कोलकाता में ममता बनर्जी से मिलने पहुंच गए थे। कुछ तालमेल क्षेत्रीय स्तर पर भी अंतिम दौर में बताया जाता है। उसके पहले मायावती और अखिलेश के अलावा रालोद के जयंत चौधरी के बीच तालमेल की कई दौर की बातचीत हो चुकी है और शायद सीटों के बंटवारे का गणित भी तय कर लिया गया है। महाराष्ट्र में कांग्रेस और राकांपा के तालमेल की बात तो तय है ही, शिवसेना से भी तालमेल की संभावनाओं से सियासी पंडित इनकार नहीं कर रहे हैं। वैसे, महाराष्ट्र में यह एक पेच सामने आ सकता है कि शिवसेना शायद अपना वोट बैंक कांग्रेस को न दिलवा पाए। अमित शाह के अकेले चुनाव लड़ने के बयान का शायद यही मतलब और शिवसेना को संकेत है।
संभव है, विपक्ष के इसी गणित के आधार पर कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में पी. चिदंबरम ने कांग्रेस के 300 सीटें लड़ने और 150 सीटें जीतने का दावा किया है। लेकिन यह कहना भारी अतिशयोक्ति होगी कि एनडीए के हाथ से सभी पत्ते उड़ रहे हैं। जैसा कि पूर्व भाजपा सांसद चंदन मित्रा के तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो जाने के बाद राहुल ने ट्वीट किया। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि मोदी सरकार के साढ़े चार साल के दौरान भाजपा का असर पूरे देश में फैला है और उसके जनाधार में विस्तार हुआ है। फिर विपक्षी दलों की आपसी रंजिशों का फायदा उठाना भी उसे आता है। यही नहीं, भाजपा का वोट आधार गरीब तबके में भी काफी बढ़ा है।
बहरहाल, अगला मुकाबला दिलचस्प होने वाला है। यह भी ख्याल रखिए कि भाजपा और उसके विरोधियों की तैयारियों में आम चुनाव जल्दी होने के भी संकेत हैं। वैसे भी चुनाव आयोग सितंबर तक पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की अपनी तैयारी का संकेत पहले ही दे चुका है। अब देखना यह है कि दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनाव के रूप में सेमीफाइनल होता है या फिर एकबारगी देश फाइनल बाजी में उतर जाएगा। जो भी हो, देश के लोग भी शायद इसी मुकाबले के इंतजार में हैं।