स्त्री-विमर्श पर कुछ कहने के लिए प्रस्तुत होते ही मन में यह आशंका जन्म लेती है कि सामने मौजूद पाठक या श्रोता समुदाय घोर वैमनस्य, लगभग शत्रुता के भाव से मोर्चा बांधे, प्रत्याक्रमण की मुद्रा में बैठा है और सुनने के पहले ही खारिज कर देने की मंशा ठान चुका है। इस समुदाय में न केवल पुरुष, बल्कि स्त्रियां भी शामिल हैं; वे स्त्रियां भी जिनको स्त्री-विमर्श की पुरोधा का दर्जा दिया जा सकता है। ऐसा अक्सर होता है कि एक समय के मुक्ति-योद्धा अगले समय में मुक्ति की आकांक्षा के प्रति शंकालु और आक्रामक हो उठते हैं। मानो जहां तक हम पहुंचे थे वहां तक तो प्रगति थी, लेकिन अब हमारे बाद, प्रलय!
लेकिन, फिर या तो संवाद और संप्रेषण को असंभव मान कर उदासीन हो जाएं या आशंका के प्रत्युत्तर में स्वयं आक्रामक हो उठें, या फिर संवाद की दुर्बल से दुर्बल संभावना को बल देने की कोशिश करें। और जो सहमत हैं उनके साथ मिलकर विमर्श को अगले विकास की दिशा में ले चलें।
मैं तीसरा विकल्प चुनना चाहती हूं। मुझे लगता है कि स्त्री-विमर्श के प्रति इस वैमनस्य की जड़ उपयुक्त सूचना के अभाव और अपरिचय में है। स्त्री-विमर्श के बारे में सामान्यत: एक आमफहम या कॉमन-सेन्स हावी है जिसके तहत समझ लिया जाता है कि हम जानते हैं, जबकि दरअसल हम नहीं जानते।
स्त्री-विमर्श अब तक विषय-बहुल, शास्त्र-बहुल, शाखा-बहुल सुविकसित विवेचन, विश्लेषण, समाधान का रूप धारण कर चुका है। पिछले अंक में अपने आलेख में अनामिका ने एक विषय-सूची दी है-पारिवारिकता, यौनिकता, श्रम, संसाधन-वितरण, विस्थापन, युद्ध, आतंक, नव उपनिवेशन, धर्म, अध्यात्म, बाजार, पर्यावरण और कोई भी अन्य विषय क्योंकि कुछ भी ऐसा नहीं, जो यहां विवेचन से वर्जित हो। शास्त्रों को देखें तो दर्शन, इतिहास, भूगोल, राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, शरीर-विज्ञान, मनोविज्ञान, भाषा शास्त्र आदि। फिर स्वयं स्त्री-विमर्श की अनेक शाखाएं हैं जो पितृसत्ता के अधीन स्त्री के जीवन की दशाओं-दुर्दशाओं का आकलन करती हैं, पितृसत्ता के साथ स्त्री के संबंध के विविध समीकरणों का विवेचन, विश्लेषण और मूल्यांकन करती हैं, उनके प्रति अपना रुख तय करती हैं, और अपने चुने हुए मुद्दे, संकल्प और उद्देश्य के अनुकूल प्रतिकार-प्रत्याख्यान के विविध मोर्चों का विधान करती हैं। कई बार ‘अति’ और कई बार ‘अत्यंत’ भी कर देती हैं। नई दुनिया का नक्शा आखिर अनुमान और कल्पना पर ही तो आधारित होता है।
सूत्र-संक्षेप में कहें तो स्त्री-विमर्श का मतलब स्त्री की नजर से देखी गई दुनिया का–समूची दुनिया का–लेखा-जोखा और उसे गहराई से बदलने का कार्यक्रम है।
जितनी बड़ी और विविधतापूर्ण यह दुनिया है, उतने ही विविध इन कार्यक्रमों के विधान और भाषाएं। एक छोर पर खुद को मात्र मानव की पहचान दिलाने की याचना, तो वहीं कहीं मानवाधिकार पर स्त्री का दावा, वहीं आसपास कहीं पुरुष की बराबरी में पुरुष का प्रतिरूप हो उठने का उग्र आक्रोश, कहीं स्त्री के सारभूत अस्तित्व की तरह उसके प्राकृतिक गुणों की पहचान और मूल्य-मंडन में दुनिया की समस्याओं के समाधान की संभावनाओं का दर्शन तो वहीं कहीं स्त्री के एक स्वयं-पर्याप्त संसार की कल्पना और स्त्री जगत से पुरुष का निष्कासन। स्त्री-विमर्श की वैचारिकी अपनी बहुलता में अतिशय कोमल से लेकर अतिशय उग्र तक की सीमाओं के बीच हर संभव अनुपात में फैली हुई है और उनमें आपस में भी बहस जारी रहती है।
इतने सब विस्तार को गिनाने लायक स्पेस इस आलेख में नहीं है। मेरे पास उसकी योग्यता भी नहीं है। बहस में एक फोकस को कायम रखने के लिए मुझे अपना संभावित पाठक समुदाय परिभाषित करना और एक मुद्दा चुन लेना चाहिए।
जिस पाठक या श्रोता समुदाय से मेरा वास्ता है, वह हिंदी साहित्य का प्रेमी पाठक है और स्त्री-विमर्श से उसका परिचय भी शायद हिंदी साहित्य के तहत कविता-कहानी के माध्यम से हुआ होगा, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। और न केवल हिंदी की कविता-कहानी बल्कि जिये जाते जीवन के संदर्भ में स्त्री-विमर्श के जिस मुद्दे ने सबसे अधिक प्रचंड वैर-भाव को आमंत्रित किया है, वह स्त्री-शरीर है।
यह जानी-मानी बात है कि अस्मिता-विमर्शों का उद्भव सामाजिक अन्याय के प्रतिकार के राजनीतिक आंदोलन के रूप में हुआ है। विमर्श उसका वैचारिक अनुषंग है। विमर्श की संपूर्ण भाषा-प्रसूत सामग्री में साहित्य सिर्फ एक छोटा-सा हिस्सा है। विमर्श में हिस्सा लेने वाले अपने मुद्दे के हिसाब से किसी भी रचना को उद्धरणीय पा सकते हैं। जरूरी नहीं कि उसे रचनाकार ने विमर्श की मंशा से रचा हो। विमर्श के जिम्मे चेतना-प्रसार का काम है और अपने आप में वह भी एक स्तर का एक्टिविज्म है। इसलिए जब ममता कालिया कहती हैं कि “नई वैचारिकी को वातानुकूलित कमरों में अंग्रेजी गिटपिट से बाहर निकलकर उन कच्ची बस्तियों की गलियों में जाना होगा, जहां भाषण की जगह राशन और समीक्षा की जगह रक्षा की जरूरत है” या मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं कि “ये जो शगूफे हैं, इनमें न तो कहीं किसान स्त्रियों को जगह है, न मजदूर औरतों के अभावों की चिंता” तो उनकी चिंता को समझा और सद्भावना का सम्मान किया जा सकता है लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं कि नई वैचारिकी या कि रचना वहां गई नहीं है। अस्मिता की निशानदेही के जितने भी पैमाने हैं–वर्ग, जाति, धर्म, लिंग, नस्ल–उन सबमें स्त्री दलित, दमित और शोषित की हैसियत से मौजूद है और सभी जगह अब शिक्षा और चेतना-प्रसार के अनुपात में उसके पास अपना-अपना विमर्श या तो मौजूद है या रचे जाने की राह पर है। और जाहिर है कि न तो इसका सारा श्रेय और न ही इसकी जिम्मेदारी साहित्य की है। इनका श्रेय और दायित्व सरकारी संस्थाओं, गैर-सरकारी संगठनों, नए कानूनों और आचरण संहिताओं के संशोधनों को है। साहित्य में जो अभिव्यक्त होता है, वह पहले जीवन और यथार्थ का हिस्सा बन चुका होता है।
“ये जो नये शिगूफे” के नाम की व्याख्या में मैत्रेयी बताती हैं, “इन दिनों औरत की ब्रा और माहवारी मुख्य मुद्दे हैं, सेनेटरी पैड सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण डिमांड है, तो फिर तय हो जाए कि स्त्री स्वतंत्रता की क्रांति यहीं आकर दफन होनी है कि आगे भी कोई और मुद्दा जगह पाएगा।”
स्त्री-शरीर के बारे में बात की शुरुआत यहां से करते हुए मैत्रेयी पुष्पा के इस कथन को स्त्री-विमर्श के मूल सरोकार से जोड़ कर समझने की कोशिश की जा सकती है। सिमोन द बोउवा के इस सूत्रवाक्य ने स्त्री-विमर्श के आर्षवाक्य की जगह हासिल कर ली है कि ‘स्त्री होती नहीं, बनाई जाती है।’ स्त्री का स्वत्व धुर बचपन से ही परिवार और समाज के द्वारा जिस किस्म के दबावों के जरिए स्त्रीत्व के सांचे में ढाला और जिन प्रहारों के जरिए तराशा जाता है, वे एक पुरुष शिशु के लालन-पालन से बिलकुल भिन्न हैं। वे स्त्री को अपने स्त्रीत्व के लिए शर्मिंदा रहना और स्त्रीसूचक लक्षणों को गोपनीय रखना सिखाते हैं। मेरी पीढ़ी की िस्त्रयांे में मैत्रेयी पुष्पा जैसी प्रबुद्ध स्त्री तक माहवारी और सैनिटरी पैड के जिक्र से असहज होती और इस जिक्र को स्वतंत्रता की क्रांति के दफन होने की जगह की तरह देखती है। वरना डॉक्टर बेटियों की मां होकर वे क्या जानती नहीं कि स्त्री-शरीर के स्वास्थ्य के लिए मासिक चक्र की नियमितता और तरह-तरह के संभावित संक्रमणों से बचाव के लिए सैनिटरी नैपकिन की क्या अहमियत है और कैसे अपनी इन अस्वस्थताओं का जिक्र तक स्त्रियों के लिए कठिन हुआ करता है? और नई पीढ़ी की लड़कियां अगर बेझिझक इन शब्दों का इस्तेमाल कर पा रही हैं, और इन मुद्दों को विमर्श का विषय बना पा रही हैं तो बेशक अपने स्त्री शरीर के भीतर सहज निवास का पहला पड़ाव उन्होंने पार कर लिया है।
‘स्वतंत्रता की क्रांति’ जैसे बड़े-बड़े अभियानों की सिद्धि दैनिक जीवन की तथाकथित छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण समस्याओं के हल में हुआ करती है। उन्हें आपत्ति करवाचौथ, शादी के लिए लाखों के लहंगे, मेकअप, मेहंदी, फैशन, बाजार से है। बहुत मायनों में सही भी है। अति हमेशा वर्जनीय होती है लेकिन इसे स्त्री-विमर्श की एक धारा के साथ दूसरी धारा की बहस का मामला माना जा सकता है। एक धारा अगर “स्त्रियोचित” नाम से परिभाषित गुणों से इनकार करना चाहती है तो दूसरी धारा देह को अस्तित्व की प्राथमिक और बुनियादी शर्त मानते हुए, उसकी सहज स्वीकृति मात्र से आगे बढ़कर देह का उत्सव मनाना चाहती है। छोटे-छोटे कपड़े फैशन के साथ बदल जाने वाले हैं। फैशन और सौंदर्य-प्रसाधन का बाजार रोजगार के ऐसे अवसर उपलब्ध कराता है जिनमें बड़े पैमाने पर स्त्री का आधिपत्य है और वे उसकी आर्थिक स्वतंत्रता और आत्म-निर्भरता का साधन हैं। ममता कालिया ने भी अपने आलेख में किंचित परिहासपूर्वक कहा है, “राजेंद्र जी ने धिक्कार से, मक्कार से, जयकार से सिद्ध किया कि स्त्री लेखक को सबसे पहले देह-मुक्ति की मांग सामने रखनी चाहिए।” जब तक हम “देह-मुक्ति” के अर्थ और अभिप्राय परिभाषित नहीं करते तब तक पूरी तरह से उन विकट समस्याओं का समाधान तो क्या, पहचान तक भी संभव नहीं जिनकी बुनियाद स्त्री-देह में है, पुरुष के लिए भी और स्त्री के लिए भी। स्त्री के लिए अपने शरीर पर दावे का औचित्य अपने शारीरिक अस्तित्व के साथ सहज होने की आकांक्षा में है। पितृसत्ता में पुरुष के स्वामित्व में निरंतर भीत और आशंकित रहने की यातना के पीछे अपने अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न है। इसके लिए अपने सिवाय किसी और पर विश्वास नहीं किया जा सकता, पुरुष पर तो बिलकुल नहीं, यह सबक वह सीख चुकी है। असुरक्षित अब वह पहले से अधिक है, लेकिन पहले से अधिक निडर भी। अपने शरीर के लिए शर्मिंदगी से अगर वह मुक्त होना सीखती है तो नतीजे में शरीर को लेकर गर्वित भी होना चाहती है। शरीर को दिखाने का औचित्य कपड़ों के आसान और आरामदेह होने के अलावा इस गर्व में भी है।
इन बहुत-सी बातों के साथ मैं बहुत बार खुद को असहमत भी पाती हूं लेकिन एक तो वे मेरे अपने निजी सौंदर्यबोध से जुड़ी बातें हैं, दूसरे मैं जानती हूं कि वे पुरुष के लिए उसके सौंदर्य को आक्रामक बनाती हैं और प्रत्याक्रमण के लिए बेकाबू चुनौती देती हैं। मेरी असहमति आग से न खेलने की चेतावनी जैसी किसी भावना से निकलती है, किसी नैतिक अस्वीकृति से नहीं।
अब असल में झगड़ा अपने सांस्कृतिक आग्रहों के साथ है, इसलिए संगीन है। संस्कार हमारी सामूहिक, सामुदायिक स्मृतियों का गहनतम रूप हैं। वे हमारी संस्कृति के गुणसूत्र हुआ करते हैं। उनसे लड़ाई एक विकट लड़ाई है। लेकिन संस्कृति मानवीय स्मृति के लंबे इतिहास में ज्यादातर समय पितृसत्तात्मक और स्त्री के प्रति अन्यायपूर्ण और अत्याचारी रही है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता आया स्त्री का संघर्ष अंततः इन गहनतम सांस्कृतिक गहराइयों तक पहुंचना ही था कि वह हमें अपरिचित और भयानक प्रतीत होने लगे। पुरुष के लिए यह अपदस्थ होने का आशंका-समय है।
पुरुष भी इसी पितृसत्तात्मक संस्कृति की रचना है। अपने स्वभाव के लिए दोषी वह भले न हो, लेकिन लाभ और वर्चस्व की स्थिति में रहता आया है। वह अपने वर्चस्व की रक्षा के लिए लड़ता है और उसे संस्कृति की रक्षा का नाम देता है। दबी, झुकी, सहमी, सकुची स्त्री उसके पौरुष का संबल और पोषक थी। यह आत्मविश्वास से भरी-पूरी, स्वतंत्र निर्णय में समर्थ, आत्म-निर्भर नई स्त्री उसके वजूद के लिए चुनौती है लेकिन नई पीढ़ी में वह पुरुष भी पनप रहा होगा जरूर, जो इस नई स्त्री का साथी होगा। स्त्री-विमर्श की वह पुरुष भी रचना होगा।
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं। हंस की पूर्व संपादक और दिल्ली के मिरांडा हाउस में प्रोफेसर हैं)