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भगवा प्रेमचंद!

सरदार पटेल, आंबेडकर वगैरह के बाद अब प्रेमचंद का भगवा संस्करण तैयार करने का दयनीय प्रयास
प्रेमचंद को ‘सनातनी हिंदू’ के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश

स्वाधीनता दिवस आ गया है और स्वाधीनता आंदोलन से सदा अपने को दूर रखने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बेचैनी बढ़ गई है। बेचैनी इस बात की है कि हर समय राष्ट्रप्रेम की माला जपने वाला यह संगठन किस तरह हर उस राष्ट्रप्रेमी को अपने रंग में रंग कर पेश करे जिसने इस देश को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने के बहुआयामी और बहु-स्तरीय संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जिसका आज भी जनमानस पर असर बना हुआ है।

महात्मा गांधी की हत्या के लिए उपयुक्त माहौल तैयार करने और हत्या के बाद मिठाई बांटने वाले इस संगठन ने-ये आरोप मेरे नहीं हैं, नवस्वाधीन देश भारत के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के हैं जिन्होंने हत्या के बाद संघ के हजारों कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके उस पर प्रतिबंध लगा दिया था-महात्मा गांधी को प्रातःस्मरणीय महापुरुषों की सूची में जगह दी और दावा किया कि उन्होंने तो संघ के “अनुशासन” की प्रशंसा की थी। सरदार पटेल को तो संघ और उसके भीतर से निकली भारतीय जनता पार्टी जवाहरलाल नेहरू के बरक्स रखकर इस तरह प्रस्तुत करती है मानो वे जीवन भर कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता और नेता न होकर संघ के स्वयंसेवक रहे हों। पिछले वर्षों में दलितों के सर्वमान्य तेजस्वी नेता, असाधारण विचारक, समाज सुधारक और भारतीय संविधान के निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भीमराव आंबेडकर को भी संघी खेमे में शामिल करने का प्रयास किया गया, बिना यह सोचे-समझे कि जिनके बनाए संविधान की संघ ने हमेशा भर्त्सना की और उस ‘मनुस्मृति’ को स्वाधीन भारत का संविधान बनाने की मांग की जिसे सार्वजनिक रूप से जलाकर आंबेडकर उसके प्रति अपनी नफरत व्यक्त कर चुके थे, उन्हें कैसे हिंदुत्ववादी खेमे के पक्षधर के रूप में पेश किया जा सकता है?

लेकिन झूठे इतिहास-लेखन के सहारे अपना वैचारिक प्रभाव बढ़ाने के आदी हो चुके संघ के लिए इन सब बातों का कोई अर्थ ही नहीं है। अब उसके इस अभियान की चपेट में पिछली एक शताब्दी से हिंदी कथा-साहित्य के शीर्ष पर विराजमान प्रेमचंद भी आ गए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ का पांच अगस्त, 2018 का अंक प्रेमचंद का भगवा संस्करण तैयार करने का दयनीय प्रयास है। 31 जुलाई को प्रेमचंद की जयंती मनाई जाती है। स्वाधीनता दिवस के ठीक पहले इस अवसर का उपयोग प्रेमचंद के “वामपंथी” व्याख्याकारों पर प्रहार करने और उन्हें ‘सनातनी हिंदू’ के रूप में प्रस्तुत करने के लिए किया गया है।

इसके लिए ‘राष्ट्रवाद’ को आधार बनाया गया है, बिना यह सोचे-समझे कि प्रेमचंद का राष्ट्रवाद या राष्ट्रप्रेम संघ के राष्ट्रवाद या राष्ट्रप्रेम से मूलतः भिन्न ही नहीं, उसके ठीक उलटा भी है, इस अंक में प्रकाशित संपादकीय और लेखों में अजीबोगरीब दावे किए गए हैं। संपादकीय के आरंभिक पैराग्राफ में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह बयान उद्धृत किया गया है कि उन्हें प्रेमचंद की ईदगाह कहानी बहुत पसंद है और उन्हें उसके मुख्य पात्र हामिद से प्रेरणा मिली है। मोदी के “मुस्लिम प्रेम” के बारे में कौन नहीं जानता! प्रेमचंद पर दशकों से शोध कर रहे कमल किशोर गोयनका, जो 1958 में ही संघ के स्वयंसेवक बन गए थे, को भी संपादकीय में उद्धृत किया गया है और दावा किया गया है कि “प्रेमचंद की भारतीयता उनके हिंदू होने का पर्याय है।” इस दावे को पुष्ट करने के लिए यह हास्यास्पद तर्क दिया गया है कि प्रेमचंद साहित्य का 95 प्रतिशत हिंदू समाज पर केंद्रित है।

ये प्रेमचंद ही थे जिन्होंने संघ जैसे हिंदू संस्कृति के आधार पर “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” की नींव रखने वाले संगठनों को लक्ष्य करके लिखा था : “सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। ...वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड...यह सीधे-सादे आदमियों को सांप्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मंत्र है और कुछ नहीं। हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, ...इन संस्थाओं को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें...।” ‘पांचजन्य’ के इस विशेषांक में प्रेमचंद को मुस्लिम-विरोधी दिखाने के लिए उनकी जिहाद कहानी को छापा गया है लेकिन उनके सांप्रदायिकता विरोधी कथनों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है। मसलन, “अगर हम श्री रामचंद्र को स्मरणीय समझते हैं तो कोई कारण नहीं कि हुसैन को भी उतना ही आदरणीय न समझें”, “वह कोई छोटी और महत्वहीन बात नहीं है कि 1857 के विद्रोह में हिंदू-मुसलमान दोनों ही ने जिसे अपना नेता बनाया, वह दिल्ली का शक्तिहीन बादशाह था। हिंदू-मुसलमान नृपतियों में पहले भी लड़ाइयां हुई हैं, पर वे लड़ाइयां धार्मिक द्वेष के कारण नहीं, स्पर्धा के कारण थीं। उसी तरह जैसे हिंदू राजे आपस में लड़ा करते थे। उन हिंदू-मुस्लिम लड़ाइयों में हिंदू सिपाही मुसलमानों की ओर होते थे और मुसलमान सिपाही हिंदुओं की ओर।” प्रेमचंद ने बार-बार जोर देकर लिखा कि “इस्लाम तलवार के बल से नहीं, बल्कि अपने धर्म-तत्वों की व्यापकता के बल से फैला। इसलिए फैला कि उसके यहां मनुष्य मात्र के अधिकार समान हैं।” क्या ऐसे प्रेमचंद को भगवा चोला पहनाया जा सकता है?

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं) 

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