अटल जी के साथ मेरा परिचय एक लेखक-पाठक के रूप में हुआ था। 1991 के आम चुनाव संपन्न हुए ही थे। एक दोपहर कथा पत्रिका सारिका के दफ्तर में वरिष्ठ सहयोगी रमेश बतरा जी ने आवाज दी, वीरेंद्र, तुम्हारे लिए फोन है। मैं उनकी टेबल तक गया और फोन कान से लगाकर बोला, कहिए। दूसरी ओर से बताया गया, अटल बिहारी वाजपेयी आपसे बात करना चाहते हैं। अगली आवाज अटल बिहारी वाजपेयी जी की सुनाई दी। उन्होंने मुझे डूब उपन्यास लिखने के लिए बधाई दी। वे बोले, डूब बहुत प्रभावशाली उपन्यास है। आंचलिक पृष्ठभूमि पर इतनी सशक्त रचनाएं कम ही लिखी गई हैं।
अटल जी की प्रशंसा भरी बातें सुनकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न था। फिर भी मैंने जानना चाहा कि कुल पांच महीने पहले आए उपन्यास को वे पढ़ कैसे पाए क्योंकि इस बीच तो वे रातो-दिन आम चुनावों में व्यस्त रहे होंगे। अटल जी ने बताया कि चुनावों के दौरान उन्हें डूब की प्रति जनसत्ता के पत्रकार आलोक तोमर से हासिल हुई थी। फिर कुछ महीनों बाद तोमर ही मुझे उनके घर ले गए। जब साक्षात मिलना हुआ तब उन्होंने यह इच्छा जाहिर की कि मैं उनके संसदीय भाषणों में चुनिंदा भाषण संकलित करने और उन्हें संपादित कर पुस्तक रूप देने में उनके मित्र डॉ. नारायण माधव घटाटे की मदद करूं। यह काम मैंने सहर्ष स्वीकार किया। हम दोनों ने 1991 से 2004 के बीच अटल जी के भाषणों की आठ जिल्दें संपादित की। संसद में तीन दशक (तीन खंडों में), मेरी संसदीय यात्रा (चार खंडों में), संकल्प काल और गठबंधन की राजनीति।
जिन दिनों संसद में तीन दशक पर काम कर रहा था, उन दिनों हिंदी के यशस्वी कवि बाबा नागार्जुन मेरे पड़ोसी हुआ करते थे। मैं घर के बाहरी कमरे में कागज फैलाकर काम में जुटा होता था। बाबा के आने पर जब कभी उन कागजों को समेटने का अवसर न मिलता, तब उन पर चादर डाल दिया करता था। एक दिन बाबा ने मुझसे पूछा कि मैं जो काम कर रहा हूं, उस पर उनकी नजर क्यों नहीं पड़ने देना चाहता? मैंने बताया कि बाबा मैं इन दिनों अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण संपादित कर रहा हूं, उनमें आपकी कोई रुचि हो नहीं सकती, इसलिए उन्हें ढंक देता हूं। बाबा बोले, अटल सिंह प्रकृति के व्यक्ति हैं, उनकी सोच उनकी पार्टी के अन्य लोगों से भिन्न है।
अटल जी से भेंट होने पर मैंने यह घटना उन्हें सुनाई। अटल जी ने मुझसे एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन बार यह घटना सुनी। फिर बोले, आप सच कह रहे हैं न! मैंने कहा, तो आप क्या समझते हैं, मैं आपकी चमचागीरी कर रहा हूं। अटल जी ने प्रतिवाद किया, नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है। दरअसल मुझे यह सुनकर बेहद खुशी हो रही है कि बाबा नागार्जुन मेरे विषय में ऐसी राय रखते हैं, इसीलिए मैं आपसे बार-बार सुनाने को कह रहा हूं।
एक दिन मैंने अटल जी से कहा, आपके भाषण पढ़ने के बाद मुझे लगता है कि आप नेता नहीं होते तो अच्छे लेखक या कवि होते। अटल जी बोले, उससे क्या अंतर पड़ता, फिर मैं राज्यसभा में आने का प्रयास करता। जब दिनकर जी का राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने को था, तब वे कहा करते थे कि राज्यसभा की आदत-सी हो गई है, फिर से बुलवा लीजिए न। मैंने कहा, यह जरूरी तो नहीं, आप नागार्जुन हो सकते थे, त्रिलोचन हो सकते थे, केदार हो सकते थे। अटल जी बोले, आपसे गलतबयानी नहीं करूंगा, होना तो दिनकर ही चाहता था, हो न सका।
राजेंद्र यादव जी ने हंस में अपनी प्रकृति के अनुरूप एक बेहद तीखा संपादकीय लिखा, उसे शीर्षक दिया ‘सुनो अवाजो’ यानी अडवानी, वाजपेयी, जोशी। मैंने हंस का वह अंक अटल जी को दिया और बताया कि राजेंद्र जी ने अपना संपादकीय आप तीनों को संबोधित करते हुए लिखा है। मैं चाहता हूं कि आप इसे पढ़ें भी और अपनी प्रतिक्रिया से राजेंद्र जी को अवगत भी करवाएं। अटल जी ने हंस हाथ में लेते ही पहला वाक्य कहा, राजेंद्र जी के साहस और धैर्य की प्रशंसा करनी होगी जो अकेले के दम पर साहित्यिक पत्रिका अब तक निकाले जा रहे हैं। फिर हंस को एक ओर रखते हुए बोले, मैं इसे पढ़कर अपनी राय राजेंद्र जी को अवश्य पहुंचाऊंगा।
संसद में तीन दशक के तीनों खंडों के अंतिम प्रूफ अटल जी ने स्वयं पढ़े। जब दिल्ली भाजपा बारह साल बाद अपना सम्मेलन कर रही थी, अटल जी मेरे साथ अज्ञात स्थान में बैठकर अपनी किताबों के प्रूफ पढ़ रहे थे। इस किताब का विमोचन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा करने वाले थे। अटल जी ने अपने हाथ से निमंत्रण पत्र का मैटर भी लिखकर दिया था। फिर वह कार्यक्रम टल गया। कुछ महीनों बाद लोकसभा अध्यक्ष शिवराज पाटील ने विमोचन किया, तब भी निमंत्रण पत्र की इबारत में अटल जी ने अपने हाथों से सुधार किया। विमोचन समारोह में राजमाता विजयाराजे सिंधिया जी से मेरा परिचय करवाते हुए अटल जी बोले, इन्होंने अपनी किताब में आपको बहुत बार याद किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं)