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पुणे महाभारत का मैदान

सनातन संस्था पर प्रतिबंध की मांग जोर पकड़ी तो देशभर में पुणे पुलिस की कार्रवाई से उठे सवाल
इस धर-पकड़ के क्या मायनेः वरवर राव

मराठी में पुणे को लेकर एक प्रसिद्ध कहावत है “पुणे तिथे काय उणे” यानी क्या नहीं है पुणे में! यह इस शहर की महान सांस्कृतिक विरासत, उम्दा जीवन-शैली और अकादमिक श्रेष्ठता पर गर्वोक्ति जैसा है। पिछले कुछ साल या महीने की घटनाओं पर गौर करें तो मानो यह कहावत अपना विलोम भी पेश करती दिख रही है। आखिर इस साल ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स (गुजर-बसर की सहूलियत का सूचकांक) के मामले में देश में सबसे उम्दा शहर पुणे ने क्या कुछ नहीं देखा, तर्कवादी सुधारक डॉ. नरेंद्र डाभोलकर की हत्या से लेकर उग्र हिंदुत्ववादी संगठन सनातन संस्‍था से जुड़े संदिग्‍धों की गिरफ्तारी, यलगार परिषद का आयोजन, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की पुणे पुलिस द्वारा गिरफ्तारी और उसके बाद मौजूदा सरकार के खिलाफ देश भर में नागरिक समूहों के विरोध तक।

इन घटनाओं की शुरुआत 2013 में डॉ. नरेंद्र डाभोलकर की हत्या और मामले की जांच को लेकर स्‍थानीय पुलिस के उदासीन रवैए से हुई। इसी के आसपास दिवंगत बाल ठाकरे और शिवाजी महाराज को लेकर फेसबुक पर कथित अपमानजनक टिप्पणी के कारण काम से लौटते वक्त मोहसिन शेख की उग्र भीड़ ने हत्या कर दी। भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्‍थान में गजेंद्र चौहान को निदेशक बनाने के बाद लंबी हड़ताल चली। फिर, अगर आप पुणे शहर से पूरे जिले का रुख करें तो इसके तहत समृद्ध औद्योगिक इलाके चाकन, पिंपरी, चिंचवाड में हिंसक मराठा आंदोलन, किसानों का विरोध-प्रदर्शन और यहां तक कि प्रदर्शनकारियों तथा ह्विसल ब्लोअर पर पुलिसिया कार्रवाई को भी इसी कड़ी में रख सकते हैं। यहां तक कि शरद पवार की सक्रियता से राजनैतिक उठा-पटक को भी इसी कड़ी में जोड़ सकते हैं।

बॉम्बे हाइकोर्ट की निगरानी में सीबीआइ जांच के बाद पिछले महीने महत्वपूर्ण सफलता तब मिली जब एटीएस ने नाला सोपारा, पुणे और औरंगाबाद से हथियारों और विस्फोटकों के साथ संदिग्‍धों को पकड़ा। कथित तौर पर ये संदिग्ध सनातन संस्था और बेंगलूरू में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या से जुड़े हैं। ऐसे संगठन पर प्रतिबंध लगाने की मांग जब जोर पकड़ी तो पुणे पुलिस हरकत में आई और उसने सरकार को अस्थिर करने के कथित आरोप में देश भर से पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर “फासीवादी साजिश” का खुलासा करने का दावा किया, जिसके तार 31 दिसंबर 2017 को भीमा-कोरेगांव में आयोजित यलगार परिषद के कार्यक्रम से जुड़े थे। सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं का दावा है कि जल्दबाजी में की गई पुलिस कार्रवाई हिंदू चरमपंथियों की गतिविधियों से ध्यान हटाने की रणनीति का हिस्सा है।

कांग्रेस नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल कहते हैं, “ऐसा कभी नहीं देखा गया कि अदालत में साक्ष्य पेश करने के बजाय पुलिस प्रेस कॉन्फ्रेंस करे। पुणे पुलिस ने इसी तरह की प्रेस कॉन्फ्रेंस तब क्यों नहीं की जब सनातन संस्‍था से जुड़े संदिग्‍ध गिरफ्तार किए गए थे। मौजूदा सरकार बुनियादी अधिकारों पर हमले कर रही है।” उन्होंने कोल्हापुर में कॉमरेड गोविंद राव पंसारे के परिवार से मुलाकात की और राज्य कांग्रेस के नेता “जन संघर्ष यात्रा” के जरिए इस मुद्दे को आगे ले जाने में जुटे हैं। कॉमरेड पंसारे की भी हत्या कथित उग्र हिंदूवादी समूहों ने फरवरी 2015 में कर दी थी।

पुणे पुलिस के खिलाफ कम से कम 30 संगठनों ने संयुक्त प्रदर्शन किया। एआइडीडब्‍ल्यूए की किरन मोघे कहती हैं, “पुणे पुलिस की बेईमानी को बेनकाब करने के लिए सभी संगठनों ने मिलकर प्रदर्शन किया। क्या यह चौंकाने वाला नहीं है कि हथियार और बम बनाने की सामग्री जमा कर रहे सनातन संस्‍था जैसे संगठन पर प्रतिबंध नहीं लगता, लेकिन फुले, मार्क्स और आंबेडकर का साहित्य रखने वालों को ‘राष्ट्रविरोधी’ होने के आरोप में गिरफ्तार किया जा रहा है!” उन्होंने कहा कि विरोधी विचारों को दबाने के लिए सरकार सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर रही है, उससे लगता है कि हम फासीवाद की ओर बढ़ रहे हैं। संगठनों ने अपने साझा बयान में कहा है कि संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति के मूलभूत अधिकार को कम करने के प्रयास को वे बर्दाश्त नहीं करेंगे। हालांकि, मोघे मानती हैं कि ज्यादा लोगों तक यह बात पहुंचाने की जरूरत है, क्योंकि समाज के कई तबके अब भी इससे बेखबर या उदासीन हैं।

पुणे की यह जटिलता अब राज्य के सबसे महत्वपूर्ण आइटी हब, शैक्षणिक राजधानी और सभी तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों के दायरे में भी फैल गई है, जहां जबर्दस्त कॉरपोरेट और औद्योगिक गतिविधियों के कारण पुरातनपंथी नहीं पहुंच सके थे। आइटी कर्मचारियों का देश का पहला श्रमिक संगठन होने के बावजूद हिंगवाड़ी के अंतहीन ट्रैफिक में फंसा यह तबका अब भी वंचित और ऑटोमेशन के कारण नौकरी के अपरिहार्य खात्मे से सहमा हुआ है। जब जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा और मोबाइल के कारण बढ़ते संघर्ष से सामाजिक मसलों से दूरी बढ़ रही हो तो “नहीं मालूम, सोचा नहीं, या क्या फर्क पड़ता है” वाले रवैए को खत्म करना मुश्किल जान पड़ता है।

मानवाधिकार वकील असीम सरोड का मानना है, “तेजी से हम दो ध्रुवों में बंटते जा रहे हैं, लोगों का ब्रेन वॉश किया जा रहा और वे बिना सवाल पूछे दुष्प्रचार पर ठीक उसी तरह भरोसा कर रहे हैं जैसे कोई धर्म को अपनाता है। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि मानवाधिकार सुशासन से जुड़ा मसला है, न कि किसी का खास अधिकार। मेरा मानना है कि महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की दो अलग-अलग वैचा‌रिक धाराओं से हमारे समाज का भला नहीं हुआ है। ऐतिहासिक रूप से, दोनों ने कभी एक-दूसरे को खारिज नहीं किया और उनके बीच फर्क का दक्षिणपंथी खेमा इस्तेमाल कर रहा है।”

यदि पुणे की सांस्कृतिक विरासत पर नजर डालें तो पाएंगे कि यहां की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नागरिक अभियान और भागीदारी का अभाव नहीं रहा है। अकादमिक से लेकर थिएटर और सिनेमा तक पुणे हमेशा से प्रगतिशील विचारों का अड्डा रहा है। साथ ही राज्य के ब्राह्मण शासकों पेशवा (जिनके खिलाफ लड़ाई का दलित भीमा-कोरेगांव में उत्सव मनाते हैं) की भी पुणे में ऐतिहासिक जगह है और भीमा-कोरेगांव हिंसा के कथित साजिशकर्ता संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे को मजबूत समर्थन भी। यह भी केवल संयोग नहीं है कि डाभोलकर पुणे में सक्रिय थे और भंडारकर इंस्टीट्यूट पर हमला करने वाला संभाजी ब्रिगेड मानता है कि ब्राह्मणों को “सुरक्षा की दरकार” है और वह उन्हें फिर से एकजुट करने का प्रयास कर रहा है।

प्रोफेसर जोसेफ पिंटो का कहना कि मौजूदा सरकार विभिन्न सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल कर केवल गुजरात मॉडल को आगे बढ़ा रही है, जिससे पुलिस और ‌हरेक समुदाय एक-एक कर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो रहे हैं-दलित बनाम मराठा बनाम ब्राह्मण। उन्होंने कहा, “मध्यवर्ग प्रधानमंत्री मोदी के साथ है और उसकी नजर स्टॉक मार्केट पर है। नक्सलवाद का हौवा कांग्रेस भी खड़ा कर चुकी है, इसलिए वामपंथियों को निशाना बनाना और जनसमर्थन हासिल करना आसान लगता है। हालांकि, यलगार परिषद से जुड़ा मामला साफ है और यह अदालत में नहीं टिकेगा।”

डाभोलकर हत्याकांड में संदिग्‍धों की गिरफ्तारी के बाद 29 दिसंबर से पुणे में शुरू होने वाले तीन दिवसीय सनबर्न फेस्टिवल में हमले की साजिश का पुलिस ने खुलासा किया। इसके बावजूद पुणे के मध्यवर्ग की बेरुखी बनी हुई है। फेस्टिवल में शामिल होने वाले लोग भले ही मानें कि उनका राजनीति या इन मामलों से कोई लेना-देना नहीं, लेकिन ‌अस्मिता धर्म की राजनीति के कारण अब वे अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित होने को मजबूर हैं।

पुणे की सावित्रीबाई फुले यूनिवर्सिटी में समाज शास्‍त्र की प्रोफेसर शुभांगी तांबे का मानना है कि अलगाव की प्रक्रिया या घटना के बजाय इन चीजों को व्यापक नजरिए से देखने की जरूरत है। वे कहती हैं, “पुणे में माहौल हमेशा से उदार रहा है लेकिन बीते कुछ साल में ध्रुवीकरण बढ़ा है...।”

देश भर में लगातार और नियमित रूप से हो रही भीड़ की हिंसा को लेकर विरोध जता चुके पूर्व केंद्रीय गृह सचिव माधव गोडबोले का मानना है, “किसी बाहरी के लिए यह कहना आसान है कि पुणे में यह सब क्या हो रहा है।” जबकि पत्रकार निखिल वागले जैसे राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि पुणे की घटनाएं महाराष्ट्र की प्रगतिशील सोच में पतन को दिखाती हैं। वे कहते हैं, “ऐसे माहौल के लिए कांग्रेस और राकांपा भी जिम्मेदार हैं। संभाजी भिड़े को राकांपा ने संरक्षण दिया और अब वह मजबूत हो गया है। नागरिक अभियानों और प्रगतिशील विचारों को लेकर पुणे ही नहीं, बल्कि पूरा महाराष्ट्र वह रुख नहीं दिखा पा रहा, जैसा ऐतिहासिक रूप से दिखाता रहा है।” भिड़े को बचाने के लिए मौजूदा सरकार की आलोचना हो रही है फिर भी अब तक कार्रवाई नहीं की गई है।

कार्यकर्ता और समाजवादी डॉ. अभिजीत वैद्य पुणे और राज्य की हालिया घटनाओं को महाराष्ट्र में बौद्धिक आंदोलनों में ह्रास से जोड़कर देखते हैं। वे कहते हैं, “यह बेरोजगारी और नाकाम आर्थिक नीतियों का नतीजा है। युवा वाद्य यंत्रों (बैंड) के साथ समय बिता रहे हैं और धर्म एवं संस्कृति को लेकर भ्रमित हैं। उस मध्यकालीन युग में हम पहले ही पहुंच चुके हैं जहां भीड़ की हिंसा स्वीकार्य है। मध्यवर्ग तानाशाही का समर्थक है, लेकिन आम आदमी और गरीब ज्यादा लोकतांत्रिक है। राज्य के युवा भाजपा की मौजूदा राजनीति के शिकार हो रहे हैं। हालांकि मैं मानता हूं कि अब भी आम आदमी हस्तक्षेप करेगा, जैसा कि लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए वह हमेशा करता आया है।” शायद तभी पुणे को नए महाभारत का मैदान बनने से बचाया जा सकता है। 

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