पुणे पुलिस ने 28 अगस्त को कई शहरों में छापेमारी कर पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया। पुलिस ने यह कार्रवाई आतंकवाद-रोधी कानून गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत की। उन पर इस साल जनवरी में भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने और प्रतिबंधित माओवादी संगठन की मदद करने का आरोप था। पुणे पुलिस की कार्रवाई को फिलहाल एक बड़ा झटका लगा है, जो मीडिया के एक वर्ग द्वारा संदिग्ध चिट्ठी के खुलासे के बाद किसी अनिष्ट साजिश के भंडाफोड़ के बाद पूर्वाग्रह से ग्रसित थी और निचली अदालत ने भी फटाफट ट्रांसफर रिमांड पर दस्तखत किए थे।
कई मायनों में इससे धुंधली-सी पुरानी याद ताजा हो उठती है। क्या हम ऐसा शातिराना मीडिया ट्रायल पहले भी नहीं देख चुके हैं, खासकर गृह मंत्रालय के तात्कालिक रुझानों के मद्देनजर जब-जब कोई सरकारी एजेंसी अपनी ताजा धर-पकड़ को किसी प्रतिबंधित संगठन से जुड़ा बताती है? क्या हमने कोर्ट को जांचकर्ताओं को खुली छूट देते नहीं देखा है, चाहे वह रिमांड की अवधि बढ़ाने की बात हो या हिरासत में यातना के मामले में आंखें मूंद लेने का रवैया? जनवरी से ही कथित संदिग्धों का लगातार बढ़ाया जाता दायरा, भीमा-कोरेगांव की हिंसक घटना में शामिल हिंदू संगठनों के खिलाफ मामला दर्ज करने से पुलिस का इनकार, खुद को ही फंसाने वाली चिट्ठी की बरामदगी, ये सभी यूएपीए के तहत गिरफ्तारियों का एक पैटर्न बताती हैं।
अरुण फरेरा से बेहतर इसे कौन जानता है? वे फिलहाल घर में नजरबंद हैं और सुप्रीम कोर्ट की वजह से पुणे पुलिस की गिरफ्त से बचे हुए हैं। उन्हें 2007 में नागपुर में दीक्षाभूमि में एक स्मारक उड़ाने की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उसके बाद फरेरा के खिलाफ 10 और मामले दायर किए गए, जिनमें पुलिस की गाड़ी उड़ाने, आगजनी, हमला, हत्या और पुलिस पर गोलीबारी करने के मामले शामिल हैं। इनमें एक घटना तो कथित तौर पर तब हुई जब फरेरा जेल में थे। उनसे एक पेन ड्राइव बरामद किया गया, जो उनके कथित अपराध का कुल जमा सबूत था। पांच साल की जेल के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
यूएपीए के तहत कुछ इसी तरह के मामले दर्ज किए गए हैं और मुकदमा चलाया गया है। इनमें मामले जुड़ते जाते हैं और जमानत बिरले ही मिलती है। लेकिन, सिर्फ तौर-तरीका यूएपीए कानून को हास्यास्पद नहीं बना रहा है।
यूएपीए कानून 1967 में पारित हुआ और इसमें लगातार संशोधन होते रहे। यह अधिनियम केंद्र सरकार को अधिकार देता है कि अगर कोई संगठन देश की “संप्रभुता और अखंडता” के लिए बड़ा खतरा हो या वह विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाता हो या राष्ट्र की एकता के लिए खतरा लगता हो तो उसे “गैर-कानूनी” घोषित किया जा सकता है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि ये ऐसे मानदंड हैं, जो मौजूदा सरकारों की वैचारिक धारणा पर निर्भर करते हैं। 2001 में स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) पर प्रतिबंध के बाद देश भर में सैकड़ों मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार किया गया। ये गिरफ्तारियां इन युवाओं द्वारा कथित तौर पर सिमी की गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए की गईं। यहां तक कि प्रतिबंध के 17 साल बाद भी यह एक खास समुदाय के लोगों को बार-बार संदेह के दायरे में रखने का शक्तिशाली औजार बना हुआ है।
इस अधिनियम की धाराओं-3, 10, 13 में हिंसा का जिक्र नहीं है, बल्कि सिर्फ गैर-कानूनी और आतंकी संगठनों की बात कही गई है। हालांकि, जिस संगठन का अब अस्तित्व ही न हो, उसकी सदस्यता और उसमें भागीदारी कैसे साबित होगी? लेकिन, पुलिस इसका आसान तरीका यह निकाल लेती है कि किसी के पास से प्रतिबंधित संगठन के साहित्य या दस्तावेज ‘जब्त’ हुए हैं। उदाहरण के तौर पर, अनेक मामलों में सिमी के मुखपत्र 'इस्लामिक मूवमेंट' की प्रतियों को मूल साक्ष्य के रूप में पेश किया गया है, जबकि यह मुखपत्र तब निकलता था जब सिमी गैर-कानूनी नहीं घोषित किया गया था। इसी तरह उसके उन पर्चों, पोस्टरों या कार्यक्रमों के कागजात को साक्ष्य मान लिया जाता है, जब उस पर प्रतिबंध नहीं लगा था। यही नहीं, यह भी जानकर चौंकिए नहीं कि मुखपत्र की एक ही प्रति को कई अलग-अलग लोगों या अलग शहरों की गिरफ्तारियों में भी पेश कर दिया जाता है।
यूएपीए के तहत संदिग्ध का ‘इरादा’ किसी को आतंकवादी के रूप में पेश करने का मुख्य बिंदु बन जाता है ( यानी जो कोई भी भारत की एकता, अखंडता, सुरक्षा या संप्रभुता को खतरा पहुंचाने का इरादा रखता हो या उस इरादे से सक्रिय लगता हो...)। ‘गैर-कानूनी गतिविधि’ भी वह है जो “किसी के बोले, लिखे, संकेतों या दृश्य या अन्य तरीके से जाहिर हो रही हो।” इससे तो सरकार को वस्तुतः किसी भी विचार, सोच, कला या लेखन को आपराधिक घोषित करने का अधिकार मिल जाता है, जो प्रचलित विकास, प्रशासन और सामाजिक गैर-बराबरी पर सवाल उठाए।
यह सच है कि समय-समय पर अदालती फैसलों ने प्रतिबंधित संगठनों के सक्रिय और सहयोगी सदस्यों में फर्क करके इस कानून की सख्ती को कम करने का प्रयास किया है। लेकिन, इससे अभियोजन पक्ष को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। इसलिए व्हीलचेयर पर आश्रित 90 फीसदी विकलांग साईबाबा ने पाया कि उन्हें मुख्य रूप से विचारों के लिए आजीवन कारावास की सजा हो गई है।
और फिर भी, वह शानदार ऑपरेशन था। हाल में कई शहरों में छापेमारी का मतलब हमें हां में हां मिलाने के लिए मजबूर करना था और इस सरकार की शहरी नक्सल की कथित अवधारणा को हमरे गले उतारना था। विपक्ष भी जब इसे वाजिब ही असहमति पर हमला बताता है तो उसे इस कानून को हटाने के लिए प्रतिबद्धता जाहिर करनी चाहिए।
(लेखिका वकील हैं और उनकी चर्चित पुस्तक काफ्कालैंडः लॉ, प्रीज्यूडिस ऐंड काउंटरटेररिज्म इन इंडिया है)