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लालच की अर्थव्यवस्था का नतीजा

केरल की प्राकृतिक, मानवीय और सामाजिक स्थितियों को ध्यान में रखकर संतुलित विकास ‍हो
तबाहियों का सिलसिला थमने पर ही टिकाऊ विकास

हमेशा ही प्रकृति और वन्यजीव मुझे लुभाते रहे हैं, लेकिन 1973 में पश्चिमी घाट में मैंने जंगली हाथियों को देखा तो चमत्कृत हो उठा। मैंने उनकी संख्या जानने के लिए तमाम वैज्ञानिक साहित्य उलटा-पुलटा पर कुछ भरोसेमंद जानकारी नहीं मिली। इसलिए मैंने तय किया कि खुद उनकी गिनती करूंगा। इसकी शुरुआत मैंने मैसूर के पठार और नीलगिरि से की और फिर केरल के वयानाड की ओर बढ़ गया। वहां मुझे यह देख झटका-सा लगा कि दोनों जगह हाथी तो एक जैसे थे, मगर लोगों की संस्कृति एकदम अलग थी। कर्नाटक और तमिलनाडु में ग्रामीण और वन विभाग के निचले कर्मचारी अधिकारियों के साथ मातहत की तरह पेश आते थे। लेकिन केरल में ऐसा नहीं है। वहां समाज में सामाजिक-आर्थिक फासले काफी कम हैं। इसकी एक वजह केरल शास्‍त्र साहित्य परिषद का व्यापक वैज्ञानिक आंदोलन हो सकता है, जिसका आदर्श वाक्य ‘विज्ञान के जरिए सामाजिक क्रांति’ था। मैं उससे काफी प्रभावित हुआ और तभी से केरल के कई सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों के साथ काम कर रहा हूं। आज के संदर्भ में, मेरे लिए खासकर प्रेरक अनुभव 1990 के दशक के अंत में पीपुल्स प्लानिंग अभियान था, जिसका उद्देश्य लोगों को इस तरह जागरूक बनाना था, ताकि लोग विकास की आकांक्षाओं के मद्देनजर स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर नजर रखें, उनका अध्ययन करें और सावधानीपूर्वक उनका प्रबंधन करें।

मेरा फील्ड-वर्क जारी था, न सिर्फ हाथियों के मामले में, बल्कि वहां अपनी जड़ाें से जुड़े लोगों, किसानों, वनोपज जुटाने वालों, मछुआरों और कारीगरों, जमीन-किसानों, जड़ी-बूटियों पर आधारित लोगों और कारीगरों के साथ भी। मुझे जल्द ही एहसास हुआ कि इसका स्वस्थ पर्यावरण, स्वस्‍थ समाज और स्वस्थ अर्थव्यवस्था से एक मजबूत सकारात्मक संबंध है। हमारे लिए सबसे प्रासंगिक और प्रेरणादायक उदाहरण तो पूर्वी महाराष्ट्र के हमारे वे गांव हैं, जहां लोगों ने अपने वन संसाधनों को अपने अधिकार क्षेत्र में लिया हुआ है और ग्राम सभाओं के जरिए उनका टिकाऊ ढंग से इस्तेमाल कर रहे हैं। वे सा‌बित कर रहे हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से कैसे स्वस्थ पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था साथ-साथ जारी रह सकती है। केरल को अब पूरे राज्य में ऐसी ही व्यवस्‍था पर अमल करना चाहिए। खासकर इसलिए भी कि वर्तमान वित्त मंत्री थॉमस आइजक पीपुल्स प्लानिंग अभियान के मुख्य सूत्रधार रह चुके हैं।

हमारे देश की सभ्यता प्रकृति के साथ तादात्म रखने वाली है। हमारे ज्यादातर, करीब तीन-चौथाई लोग अपनी आजीविका, सेहत और खुशहाली के लिए अपने इलाके के प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं। उनके लिए खुशहाल अर्थव्यवस्‍था की पूर्व शर्त है कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी पूरी तरह से स्वस्थ हो। देश में कुल आबादी का महज पांचवां हिस्सा ही ऐसा है, जो खास इलाकों और प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ा नहीं है। ये थोड़े-से लोग दूर-दराज के प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन या उन्हें प्रदूषित करके मोटी कमाई करते हैं। लेकिन मुट्ठी भर लोगों का यही वर्ग देश की राजनीति, नीति-निर्माण और अफसरशाही पर नियंत्रण रखता है, यही मीडिया के जरिए नजरिया तय करता है। यही लोग मिथ्या विरोधाभास पैदा करते हैं कि आर्थिक संपन्नता के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और पारिस्थितिकीय असंतुलन जरूरी है।

ऐसे ही सिद्धांत के पैरोकार समूचे पश्चिमी घाट में स्‍थानीय लोगों की इच्छा के विरुद्ध बड़े पैमाने पर अवैध पत्थर खनन में जुटे हुए हैं। मुझे इसका अंदाजा तब लगा, जब मैं पांच साल पहले चेम्बनमुडी गांव में पहुंचा। वहां लोग पत्‍थर खनन पर रोकथाम के लिए ग्यारह महीनों से क्रमिक भूख-हड़ताल कर रहे थे। दरअसल, खनन से भूस्खलन और वायु-प्रदूषण बेतहाशा बढ़ गया था और खेती तथा जल-स्रोतों को भारी नुकसान हो रहा था। समूचे केरल में लोग ऐसी गतिविधियों के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। इससे कई तरह की त्रासदी भी हो रही है।

नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज जोर देकर कहते हैं कि हर देश को अपने चार पूंजी भंडारों के संतुलित और सहज विकास का लक्ष्य रखना चाहिए, न सिर्फ जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) बढ़ाने वाली मानव निर्मित पूंजी, बल्कि प्राकृतिक पूंजी, मानव संसाधन पूंजी और सामाजिक पूंजी की भी। जीडीपी-केंद्रित विकास के नजरिए का फोकस संगठित उद्योग और सेवा क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों पर होता है। इस तरह यह नजरिया चेम्बनमुडी के मामले में न केवल खनन, स्टोन क्रसिंग और ट्रक से माल ढुलाई को आर्थिक फायदे के रूप में आंकेगा, बल्कि पत्‍थर खनन की वजह से भयावह वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के लिए कैंसर-रोधी और अस्‍थमा-दमा की दवाइयों की बिक्री को भी आर्थिक गतिविधियों में शुमार मानेगा। इस तरह मुट्ठी भर लोगों के फायदे की नीतियां बदलनी होंगी।

दरअसल, चेम्बनमुडी में भूस्खलन और नदियों के रास्ते में रुकावटें भूमि, जल, जंगल और जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं। बहरहाल, केरल में पुनर्वास और पुनर्निर्माण का भारी चुनौतियों से सामना है। ऐसे में हम अब तक के सबक को याद रखेंगे और स्‍थानीय मानव संसाधन तथा प्राकृतिक पर्यावरण को ध्यान में रखेंगे तो टिकाऊ विकास भी होगा और तबाहियों का सिलसिला भी थमेगा या घटेगा।

(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरण विज्ञानी हैं और पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल के अध्यक्ष रह चुके हैं)

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