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माटी के लाल कर गए सुनहरा कमाल

18वें एशियन गेम्स में पदकों के लिहाज से बनाया इतिहास, लेकिन अधिकांश विजेताओं का खेत-खलिहान और ग्रामीण पृष्ठभूमि से ताल्लुक
एशियाड में रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन

एशियन गेम्स- 15 स्वर्ण, 24 रजत और 30 कांस्य पदक यानी कुल 69 पदक। पदकों की कुल संख्या के मामले में भारत का यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। स्वर्ण पदक के मामले में हमने 1951 के एशियन गेम्स की बराबरी की है। लेकिन यह ऐतिहासिक सफलता उस इंडिया की नहीं है, जो चमक-दमक में खोया रहता है। न ही उन खेलों की सफलता है, जिसमें हमारा देश पैसा और शोहरत के लिहाज से ताकतवर माना जाता है। एशियन गेम्स में हमारी सफलता उस भारत की है, जो गांवों में बसता है और तमाम तरह की उपेक्षाओं का शिकार बना रहता है। यह सफलता खेती-किसानी से जुड़े परिवारों में अभाव की जिंदगी में ही कुछ कर दिखाने की तमन्ना रखने वाले खिलाड़ियों की है।

चाहे वह पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी के घोषपाड़ा इलाके में रहने वाली 21 साल की स्वपना बर्मन का हेफ्टाथलॉन में भारत को पहली बार स्वर्ण पदक दिलाना हो या फिर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 16 वर्षीय सौरभ चौधरी का सोने पर निशाना साधना। स्वपना के रिक्शाचालक पिता पांच साल से बिस्तर पर हैं। घर चलाने के लिए मां कभी चाय बागान में काम करती हैं, तो कभी बतौर घरेलू नौकरानी। स्वपना के दोनों पैरों में छह अंगुलिया हैं, जिससे जूते भी ठीक से नहीं आ पाते। फिर भी उसने 18वें एशियाई खेलों में हेफ्टाथलॉन स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रच दिया। वह इस स्पर्धा में गोल्ड जीतने वाली भारत की पहली खिलाड़ी है।

इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ के कलीना गांव के सौरभ चौधरी ने 10 मीटर एयर पिस्टल मुकाबले में स्वर्ण पदक जीता। एक किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले सौरभ को गांव में लगने वाले मेले में गुब्बारों पर निशाना साधकर निशानेबाजी का चस्का लगा। सौरभ खुद कहता है कि पढ़ाई में ज्यादा मन नहीं लगता था तो उसने अपना ध्यान निशानेबाजी पर ही लगाना शुरू कर दिया। उसने शुरुआती एक साल तक कोच की राइफल से ही ट्रेनिंग की। बाद में पिता ने कर्ज लेकर लगभग 2.75 लाख रुपये की राइफल दिलाई। आज सौरभ ने गोल्ड मेडल जीतकर पिता के सपने को साकार कर दिया। सौरभ की सफलता पर उसके और भारतीय जूनियर टीम के कोच जसपाल राणा का कहना है, “इस गोल्ड का सारा श्रेय सौरभ की मेहनत को जाता है। इतनी कम उम्र में उसने जो कर दिखाया है, वह अच्छे-अच्छों के बस की बात नहीं है।”

ऐसी महज एक या दो मिसालें नहीं हैं, जो एशियन गेम्स में भारत की ऐतिहासिक सफलता की कहानी बयां करती हैं। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर की रहने वाली 20 वर्षीय दिव्या काकरान ने कुश्ती में इसी साल जूनियर से सीनियर वर्ग में कदम रखा और ब्रॉन्ज मेडल अपने नाम किया। उसकी सफलता भी ऐसे भारत की तस्वीर पेश करती है, जहां जिंदगी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए मशक्कत करता एक परिवार देश को अंतरराष्ट्रीय मंच पर सम्मान दिलाता है। दिव्या का परिवार अब दिल्ली के भजनपुरा में किराए पर रहता है। पिता अखाड़ों में लंगोट बेचते हैं और मां सिलाई करती हैं, ताकि परिवार का गुजारा हो सके। दिव्या के पिता सूरज पहलवान कहते हैं, “घर चलाने के लिए मेरी बेटी ने लड़कों से दंगल लड़ा है। कौन बाप चाहेगा कि उसकी बेटी लड़कों से लड़े पर मेरी मजबूरी थी। घर का खर्च दिव्या के दंगल में जीते पैसों से ही चलता था और आज भी चलता है।”

फिर, 800 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीतने वाले 29 साल के मंजीत सिंह ने तो इस खेल को ही अलविदा कहने का मन बना लिया था। लेकिन, अपनी नौकरी गवां चुके मंजीत ने न केवल 800 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक दिलाया, बल्कि 1 मिनट 46.15 सेकेंड का व्यक्तिगत समय भी निकाला। इससे पहले 1982 में भारत ने 800 मीटर में आखिरी बार दिल्ली एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता था। मंजीत के कोच अमरीश कुमार कहते हैं, “मुझे याद नहीं है कि कब उसने एक दिन की छुट्टी ली होगी। मुझे काबिलियत पर पूरा भरोसा था और जहां काबिलियत होगी, वहां कामयाबी को तो आना ही पड़ेगा।”

महिलाओं के चार गुना चार सौ रिले में स्वर्ण पदक जीतने वाली 18 वर्षीय हिमा दास की कहानी भी इन सभी से अलग नहीं है। हिमा के पिता भी किसान हैं और उन्हें भी अपनी बेटी को यहां तक पहुंचाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। हिमा असम के गांव में पली-बढ़ी जहां रनिंग ट्रैक की भी सुविधा नहीं है। फिर भी उसने हार नहीं मानी और तमाम सुविधाओं के न होने के बावजूद कीचड़ से सने फुटबॉल के मैदान में दौड़ने का अभ्यास करती थी।

शख्सियत का उभार

जैवलीन थ्रो (भाला फेंक) खिलाड़ी 20 साल का नीरज चोपड़ा आज देश में हर घर में जाना-पहचाना नाम बन चुका है। इसी साल कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मेडल जीतने के बाद उसे एशियाई खेलों में भारतीय दल का ध्वजवाहक बनाया गया। एशियन गेम्स में भी स्वर्ण पदक जीतने के बाद वह एक बड़ी स्पोर्ट्स शख्सियत के तौर पर उभरा है। इससे पहले भारत 1951 और 1982 में कांस्य पदक ही जीत पाया था।

इनके अलावा, कुछ ऐसे खिलाड़ी भी उभरे जिन्होंने आने वाले वर्षों में उम्मीद की नई किरण जगाई है। चाहे टेनिस में अंकिता रैना का कांस्य पदक जीतना हो या 400 मीटर की पगबाधा दौड़ में धारुन अय्यासामी का कांस्य पदक जीतना। फिर 400 मीटर की दौड़ में मोहम्मद अनस याहया और 800 मीटर में जिन्सन जॉनसन के रजत पदक ने एथलेटिक में भारत की सफलता की नई कहानी लिखी है।

बैन से मेडल तक का सफर

एशियन गेम्स में खिलाड़ियों की सफलता मुश्किलों और कठिन परिस्थितियों में हार न मानने की भी कहानी है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं दुती चंद। ओडिशा के एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली दुती पर एक बार बैन भी लगा था। जुलाई 2014 में ग्‍लासगो कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स के शुरू होने से कुछ दिन पहले ही इंडियन फेडरेशन ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। यह पाबंदी दुती के शरीर में टेस्‍टोस्‍टेरोन का लेवेल कई गुना ज्‍यादा होने की वजह से लगाई गई थी। लेकिन, उसने हार नहीं मानी और इस बार 100 मीटर की स्पर्धा में सिल्वर मेडल अपने नाम किया।

पदकों की कहानी

भारत को सबसे अधिक सफलता एथलेटिक में मिली। कुल 69 पदकों में सबसे अधिक 19 इसी वर्ग से हैं, जिनमें सात स्वर्ण, 10 रजत और दो कांस्य पदक शामिल हैं। इसके बाद दूसरे नंबर पर निशानेबाज रहे, जिन्होंने दो स्वर्ण, चार रजत और तीन कांस्य सहित कुल नौ पदक दिलाए।

भारतीय पदक तालिका में कुश्ती तीसरे नंबर पर रही, जिसमें दो स्वर्ण और एक कांस्य पदक मिले। इसमें एक स्वर्ण विनेश फोगाट ने दिलाया और इसके साथ ही वह कुश्ती में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बन गईं। इसके अलावा ब्रिज, नौकायान, टेनिस और बॉक्सिंग में भी भारत के हिस्से एक-एक गोल्ड आया। मगर, तीरंदाजी में सिर्फ दो रजत पदक से ही संतोष करना पड़ा। अगर राज्यों के लिहाज से बात करें तो हरियाणा इस सूची में शीर्ष पर है। वैसे, कॉमनवेल्थ गेम्स से तुलना करें तो पदक जीतने के मामले में राज्यों की भागीदारी अधिक हुई है। कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने वाले राज्यों की संख्या 15 थी। वहीं, एशियन गेम्स में यह दायरा 21 राज्यों तक बढ़ गया। हरियाणा ने पांच स्वर्ण, पांच रजत और आठ कांस्य मेडल सहित कुल 18 मेडल जीते।

वहीं, इस सूची में दूसरे नंबर पर तमिलनाडु का नाम है। तमिलनाडु के खिलाड़ियों ने पांच रजत और सात कांस्य मेडल जीते। केरल, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के पदकों की संख्या नौ-नौ है। केरल के खिलाड़ियों ने दो स्वर्ण, पांच रजत और दो कांस्य मेडल, तो दिल्ली के खिलाड़ियों ने एक स्वर्ण, तीन रजत और पांच कांस्य मेडल जीते। वहीं, उत्तर प्रदेश के हिस्से एक स्वर्ण, चार रजत और इतने ही कांस्य मेडल आए। कर्नाटक के हिस्से छह, तो पंजाब और राजस्थान ने पांच-पांच मेडल जीते। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर ने भी एक मेडल जीता। कुछ ऐसे राज्य भी रहे, जिनका प्रतिनिधित्व दिखा ही नहीं। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों के खिलाड़ी एक भी पदक नहीं जीत सके या उनका प्रतिनिधित्व नहीं रहा। वुशु और सेपकटाकरा में पदक, कबड्डी-हॉकी में निराशा

एशियन गेम्स में कुछ खेलों में उम्मीद से अधिक सफलता मिली, तो जिनमें हम मजबूत माने जाते थे, उनमें निराशाजनक प्रदर्शन देखने को मिला। इनमें सबसे बड़ा नाम हैं, हॉकी और कबड्डी। कबड्डी में भारतीय टीम को ईरान से हार मिली, जो अपने-आप में ऐतिहासिक है, क्योंकि पिछले 28 साल में पहली बार है जब भारतीय पुरुष टीम कबड्डी में गोल्ड मेडल नहीं जीत पाई। साल 1990 यानी जब से एशियन गेम्स में कबड्डी की शुरुआत हुई, तब से भारतीय टीम ही स्वर्ण पदक जीतती रही है। वहीं, हॉकी में भी भारत को गोल्ड मेडल का प्रबल दावेदार माना जा रहा था, लेकिन उसे ब्रॉन्ज मेडल से ही संतोष करना पड़ा। जबकि महिला हॉकी टीम ने रजत मेडल अपने नाम किया।  वहीं, वुशु में भारतीय खिलाड़ियों ने दमदार खेल दिखाते हुए कुल चार कांस्य पदक हासिल किए, जबकि सेपकटाकरा में भी एक कांस्य पदक मिला। जबकि दिल्ली की पिंकी बल्हारा ने कुराश में सिल्वर मेडल जीता।

कुल मिलाकर यह सुनहरी सफलता उस सबक को एक बार फिर नए सिरे से सामने ले आई है कि चमक-दमक और सुविधा-संसाधनों से भरपूर इंडिया  नहीं, गांव-देहात में अभाव में जीने वाले मिट्टी के लाल चमके तो भारत भी सुनहरी चमक से लहलहा उठा। क्या हमारे नीति-निर्माता और सत्तानवीश इस सबक पर गौर करेंगे! यही सबक हमें दुनिया में गौरव दिला सकता है। 

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