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विदेश में पिकनिक बंद हो

हिंदी भी हैसियत और ताकत की भाषा के रूप में विकसित हो तभी उसकी पूछ बढ़ेगी
ये हिंदी प्रेमी! विश्व हिंदी सम्मेलन या महज एजेंडे पर जोर

मॉरीशस में ग्यारहवां विश्व हिंदी सम्मेलन कुछ इस तरह संपन्न हुआ कि भारत में बड़ी खबर न बन सका। इतना ठंडा सम्मेलन इतिहास में नहीं हुआ। जो भाषा इतनी जीवंत है, जिसमें कदम-कदम पर बहसें खड़ी होती हैं, जो अपने विकास के लिए प्रतिपल व्याकुल है, जो हर पल अंग्रेजी से अपमानित है और जो बड़े भू-भाग की ही नहीं, दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली दूसरी भाषा है, उसी का विश्व सम्मेलन हो और बिना कोई नया सवाल उठाए चुपचाप संपन्न हो जाए तो क्या कहेंगे?

यह बहाना है कि अटल जी के निधन ने हिंदी को मारा, उसे बड़ी खबर न बनने दिया! सम्मेलन में जान होती और वह हिंदी के विवादी सुरों से इतना ‘इम्यून’ न बनाया गया होता तो वह खबर जरूर बनता। अगर अशोक चक्रधर, अनंत विजय और ओम निश्चल जैसे साहित्यकारों को छोड़ दें तो अधिकतर साहित्यकार नदारद थे। बाकी जो थे वे या तो कुछ हिंदी अध्यापक थे या ‘हिंदी सेवी’ और ‘हिंदी प्रेमी’ नामक जीव थे या एक दल से जुडे़ छोटे-मोटे राजनेता थे। कहने की जरूरत नहीं कि हर विश्व सम्मेलन जितनी तालियां बजवाता है, उसके मुकाबले हिंदी के लिए बहुत-से अफसोस और बहुत-सी निराशाएं छोड़ जाता है। जो संकल्प पहले सम्मेलनों में लिए गए, उनमें दो-एक भले लागू हुए, बाकी तो रिपीट ही होते हैं। इतने भर के लिए बाहर जाकर क्यों इतराया जाए? विदेशों में जो हिंदी वाले हैं, उनको भारतीय हिंदी की कॉलोनी या हिंदी के एक्सटेंशन काउंटर की तरह क्यों माना जाए?

लेकिन ऐसा ही होता है। हिंदी यूएन की भाषा बने, हिंदी तकनीकोन्मुख बने, कंप्यूटरोन्मुख बने। कंप्यूटर भी हिंदी उन्मुख बनें, उसमें समाई हीनता-दीनता खत्म हो, अंग्रेजी का दबदबा खत्म हो, शुद्ध हिंदी हो कि हिंग्लिश हो? वह शिक्षा का माघ्यम बने, उच्चतर ज्ञान निर्माण का माध्यम बने, अन्य भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी का मित्र संबंध कैसे बढ़े? उनके बीच आदान-प्रदान की क्या व्यवस्था हो? अंतर्भाषायी अनुवाद हों या क्या हो? आदि इत्यादि। हिंदी कामनाओं की ऐसी लंबी लिस्ट हर सम्मेलन में दोहराई जाती है।

हिंदी देश की एकता-अखंडता की भाषा है, वह सबको जोड़ने वाली है, टैगोर से गांधी तक सबने हिंदी को राष्ट्रभाषा माना है। हम सब ऐसी ही महान हिंदी के सेवक हैं। उसकी परंपरा के वाहक हैं, वह आगे बढ़ रही है, आगे बढ़ेगी!

ऐसी ही निकम्मी शुभकामनाओं ने हिंदी को मारा है। मैंने दो सम्मेलन अटेंड किए हैं, एक दिल्ली वाला, दूसरा न्यूयॉर्क वाला! विदेश मंत्रालय इसके लिए बजट देता है, सुविधाएं देता है, विदेश में जाकर सभी ‘हिंदी सेवी’ और ‘हिंदी प्रेमी’ अहो-अहो भाव से मिलते-जुलते हैं, सब वीर मुद्रा में रहते हैं जैसे अभी मोर्चा मारेंगे। लेकिन जब लौटते हैं तो किसी को याद नहीं रहता कि सम्मेलन ने कुछ संकल्प दिए हैं जिनको पूरा करना है!

मॉरीशस सम्मेलन के दौरान प्रकाशित स्मारिका की सामग्री बताती है कि इस बार तकनीक और कृत्रिम बुद्धि के साथ हिंदी के मुखामुखम की चर्चा हुई, साथ ही कंप्यूटर से लेकर मोबाइल के सॉफ्टवेयर और हिंदी ऐप्स की बात भी हुई है। यह सब हिंदी को तकनीक सक्षम बनाने के लिए जरूरी था।

लेकिन इस बार सम्मेलन में हिंदी को भाषा और साहित्य की जगह ‘भारतीय संस्कृति’ से जोड़ कर देखने की कोशिश की गई, इस कारण भाषा संबंधी बहुत-सी समस्याएं ओझल हो गईं।

सम्मेलन अपने एक सत्र में ‘राजभाषा अधिनियम’ के तहत सरकारी दफ्तरों में हिंदी में कामकाज की समीक्षा ही कर लेता तो बहुत-सी चुनौतियां स्पष्ट हो गई होतीं। अगर तीन भाषा फार्मूला और हिंदी की स्थिति को लेकर चर्चा हुई होती तो अंतरभाषाई बहुत-सी समस्याओं को सुलझाने के लिए सोचा गया होता। आज जरूरत है हिंदी के अनेक स्तरीय ऑडिटिंग, उसके विविध स्तरीय उपयोग, कामकाज के मूल्यांकन और अकाउंटेबिलिटी की।

राजभाषा नियम के अंतर्गत सरकारी दफ्तरों में हिंदी अधिकारी हिंदी दिवस के अवसर पर कर्मचारियों के बीच सरस्वती वंदना से लेकर कविता, कहानी, निबंध और भाषण प्रतियोगिताएं और दफ्तरी कामकाज की रिपोर्ट हिंदी में देते हैं लेकिन फाइलों की नोटिंग और प्रस्तावों की मूल ड्राफ्टिंग अंग्रेजी में होती है। यही हाल हिंदी सरकारों के दफ्तरों का है। हमारी हिंदी सरकारें भी नीति-चिंतन अंग्रेजी में करती हैं, फिर वह हिंदी में आता है!

अन्य भाषाओं से हिंदी के संबंध आज नाना कारणों से असहज होते जा रहे हैं लेकिन हिंदी की जै-जै के चक्कर में इन पर ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसे बहुत-से नए सवाल हैं जिन पर पिछले सौ साल से ध्यान नहीं दिया गया है। हम न हिंदी को भाषा की तरह समझते हैं, न उसके साहित्य से अनुराग रखते हैं, न उसकी व्याप्ति का महत्व समझते हैं। वह हमारी मजबूरी की भाषा है। वह बड़ी कमाई और बड़े गौरव की भाषा नहीं है, चाहे हम टैगोर गांधी को उदधृत कर अपने मन को भरमा लें।

हिंदी घर में ही बेघर नजर आती है लेकिन विचार करने के लिए हम विदेश जाते हैं। यह समस्या से, हिंदी से पलायन है। अगर हमारी मानें तो कुछ बरसों के लिए विश्व हिंदी सम्मेलन निलंबित रखें और जितना धन विदेशों में हिंदी की पिकनिकें मनाने-मनवाने और हिंदी के नाम पर नकली गर्व दिखाने पर खर्च होता है उसे हिंदी के विकास के लिए एक स्थायी कमीशन बनाने में लगा दें तो हिंदी की वर्तनी से लेकर उसके की-बोर्ड, उसके शब्दकोश, उसके व्याकरण, उसके व्यापक ‘जन स्थान’ (पब्लिक स्फीयर) और नए साहित्यकोश, संस्कृति कोश को तैयार करने का रास्ता खुल जाए।

नौ-दस राज्य हिंदी भाषी हैं। वे सब दस-दस करोड़ रुपये एकत्र कर, हिंदी के लिए एक स्थायी निधि बना दें और हिंदी पर पुनर्विचार के लिए विविध अनुशासनों के विद्वानों और हिंदी साहित्यकारों एवं विशेषज्ञों का स्थायी कमीशन बना दें जो योजनापूर्वक काम करे और इसकी ऑडिटिंग की जाती रहे, तो हिंदी भी हैसियत और ताकत की भाषा के रूप में विकसित हो सकती है। कोई भाषा हैसियत और ताकत देने वाली नहीं होती तो उसकी पूछ नहीं होती।

हिंदी की समस्या घर में है जिसका हल पता नहीं क्यों हम बाहर जाकर ढूंढ़ते हैं। अगर घर में ही ढूढें और हिंदी के नाम पर विदेशों में पिकनिक मनाना बंद कर दें तो हिंदी शायद कुछ कदम आगे बढ़े।

(लेखक वरिष्ठ आलोचक हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं)

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