भारत में स्कूल से निकलने के बाद और नौकरी ढूंढ़ने या करने के बीच के वक्त में आम मध्यमवर्गीय नौजवान आम तौर पर जहां वक्त बिताता है, उसे कॉलेज कहते हैं। आम तौर पर इसे उच्च शिक्षा कहा जाता है, हालांकि इसका ऊंचाई से क्या संबंध है, यह स्पष्ट नहीं है। कुछ छात्रों का कद इस दौरान बढ़ता है, तमाम पुरुष छात्रों की दाढ़ी मूंछ भी बढ़ने लगती है, लेकिन इस आधार पर इसे उच्च शिक्षा कहना जंचता नहीं है, फिर भी ऐसा कहने का चलन है। सरकार में इसे चलाने के लिए जो विभाग होता है उसे उच्च शिक्षा विभाग कहते हैं और इसका जो मंत्री होता है, उसे भी उच्च शिक्षा मंत्री कहते हैं। अगर ज्यादातर उच्च शिक्षा मंत्रियों को देखा जाए तो ही स्पष्ट हो जाएगा कि इसे उच्च शिक्षा कहना कितना गलत हैा। लेकिन मुझे लगता है नीच शिक्षा विभाग या नीच शिक्षा मंत्री कहना ठीक नहीं लगता, इसलिए इसे उच्च शिक्षा कहा जाता है।
स्कूल में न चाहते हुए भी बच्चे कुछ न कुछ सीख ही लेते हैं। बारहवीं पास करते-करते लगभग हर बच्चा थोड़ी बहुत गिनती, जोड़ घटाना और पढ़ना सीख लेता है। नकल की पर्चियां और परीक्षा के पेपर लिखने लायक लिखना भी आ जाता है। इसके बाद कॉलेज में नौजवान क्या सीखते हैं यह विवाद का विषय है। यह भी खोजना बहुत मुश्किल है कि इस दौर में उनकी उम्र के अलावा क्या बढ़ता है।
यह सारी कश्मकश एक कागज के लिए होती है जिसे डिग्री कहते हैं। अगर बच्चों को स्कूल से निकलते ही डिग्री दे दी जाएगी तो दुनिया हंसेगी, इसलिए शायद डिग्री देने से पहले कुछ साल कॉलेजों में बिताना अनिवार्य कर दिया गया है। फिर अगर स्कूल से निकलते ही डिग्री मिलेगी तो बच्चे तभी नौकरी की कतार में खड़े हो जाएंगे। इस बला को कुछ साल और टालने के लिए भी डिग्री के पहले कॉलेज का प्रावधान किया गया है।
कुछ लोग ज्यादा समझदार होते हैं। वे कॉलेज में वक्त बिताने के बजाय ज्यादा महत्वपूर्ण कामों में लगाते हैं और रेडीमेड डिग्री ले लेते हैं। जैसे कमीज के लिए पहले कपड़ा खरीदा जाए, फिर दर्जी को दिया जाए, इस सारी प्रक्रिया के बजाय रेडीमेड कमीज खरीदने का चलन ज्यादा हो गया है। बस इसी तरह कई समझदार लोगों ने रेडीमेड डिग्री लेना शुरू कर दिया है।
इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि कॉलेज में वक्त गुजार कर डिग्री लेने वाले रेडीमेड डिग्री लेने वालों से ज्यादा समझदार होते हैं। बल्कि रेडीमेड डिग्री लेना इस मायने में बेहतर है कि आप अपने नाप और पसंद की डिग्री ले सकते हैं। कॉलेज से डिग्री लेने में एक असुविधा यह है कि जरूरी नहीं कि आपको वही डिग्री मिले जो आपको चाहिए या आपको सूट करे। जिन्हें इंजीनियरी की डिग्री चाहिए होती है उन्हें अर्थशास्त्र की डिग्री मिल जाती है और जिन्हें वाणिज्य की डिग्री चाहिए उन्हें इंजीनियरी की डिग्री मिल जाती है। जिन्हें फर्स्ट क्लास की डिग्री मिलनी चाहिए वे थर्डक्लास में पहुंच जाते हैं और जिन्हें फेल होना चाहिए वे फर्स्टक्लास में पहुंच जाते हैं। बनी बनाई डिग्री लेने में यह समस्या नहीं है, जिसे जैसी जो डिग्री चाहिए, वैसी मिल सकती है। इसमें समय के साथ पैसा भी बचता है, रेडीमेड डिग्री लेना सालों तक कॉलेज की फीस चुकाने से बहुत सस्ता पड़ता है। देखा गया है कि जिन लोगों ने इस तरह अपना समय और पैसा बचाया उन्होंने ज्यादा तरक्की की है।
रेडीमेड डिग्री को फर्जी डिग्री क्यों कहा जाता है, पता नहीं। वक्त आ गया है कि हम उसे कानूनी मान्यता प्रदान करें।