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सीधी लड़ाई में पूछ बढ़ी

एनडीए बनाम महागठबंधन की टक्कर में निर्णायक साबित हो सकता है रालोसपा, हम, जाप, निषाद विकास संघ और एमएसयू का रुख
इधर या उधरः केंद्रीय राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा के महागठबंधन में जाने के कयास

राजनीति में कयास कब हकीकत बन जाए कहना मुश्किल है, खासकर बिहार की राजनीति में। चाहे 2015 में रामविलास पासवान की लोजपा का एनडीए में आना हो या 2015 में नीतीश कुमार और लालू यादव का साथ-साथ आना या फिर 2017 में नीतीश का एनडीए में लौट आना। हर दफे कयास देखते-देखते ही हकीकत बन गए। फिलहाल कयासों के केंद्र में हैं केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा। 2013 में नीतीश कुमार से अलग होकर राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) बनाने वाले कुशवाहा 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में थे। लोकसभा में तीन फीसदी तो विधानसभा चुनाव में उन्हें करीब ढाई फीसदी वोट मिले। लेकिन, एनडीए में जदयू की वापसी के बाद से ही वे कशमकश में हैं। पार्टी सांसद अरुण कुमार की बगावत ने भी एनडीए में उनका रसूख कम किया है। अब समय-समय पर वे ऐसे बयान देते रहते हैं जिससे उनके राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन में शामिल होने की अटकलें तेज हो जाती हैं।

हालांकि, आउटलुक से कुशवाहा ने बताया, “मैं एनडीए में हूं और महागठबंधन में शामिल होने की की बातें कोरी अफवाह हैं।” लेकिन, बिहार की राजनीति के गहरे जानकार समाजशास्त्री नवल किशोर चौधरी ने बताया, “कुशवाहा के महागठबंधन में शामिल होने की संभावना ज्यादा है, क्योंकि एनडीए में रालोसपा को दो से ज्यादा सीट मिलने की उम्मीद नहीं दिखती।” बिहार में कुशवाहा के स्वजातीय वोटर की तादाद करीब सात फीसदी है। लेकिन, अब तक इस वोट बैंक पर वे पूरी पकड़ साबित करने में नाकाम रहे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि सीमित राजनीतिक हैसियत के बावजूद कुशवाहा इतने महत्वपूर्ण किरदार क्यों हैं?

जवाब 2014 और 2015 के चुनाव नतीजों में छिपा है। 2014 में एनडीए (भाजपा, रालोसपा, लोजपा) ने 38 फीसदी वोटों के साथ राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 31 पर सफलता पाई थी। उस समय राजद, कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन करीब 28 फीसदी वोट लाकर सात और जदयू करीब 16 फीसद वोट लाकर भी दो सीटों पर सिमट गई थी। लेकिन, विधानसभा चुनाव में जब जदयू, राजद, कांग्रेस साथ आ गए तो मामला उलटा पड़ गया। जाहिर है, अगले आम चुनावों में उसकी राह आसान होगी जो जाति समीकरणों के हिसाब से ज्यादा बड़ा और व्यापक गठबंधन बनाने में कामयाब होगा। इसके लिए एनडीए और महागठबंधन दोनों की नजरें पिछले पांच साल में उभरे उन दलों और संगठनों पर हैं जो सीधी लड़ाई में पलड़े को किसी एक तरफ झुकाने का दमखम रखते हैं। 

इन छोटे खिलाड़ियों में मधेपुरा के सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव भी हैं, जिन्होंने पिछला चुनाव राजद के टिकट पर जीता था। 2015 में खुद की जन अधिकार पार्टी (जाप) बनाकर विधानसभा चुनाव लड़ा। पार्टी का खाता नहीं खुला लेकिन दो फीसदी वोट जरूर मिले। उनकी मधेपुरा, सहरसा, कटिहार, पूर्णिया में अच्छी-खासी पैठ है। उनकी पत्नी रंजीता रंजन सुपौल से कांग्रेस की सांसद हैं। पप्पू यादव ने आउटलुक को बताया, “मेरे पास विकल्प नहीं है क्योंकि एक राजनीतिक वारिस (तेजस्वी यादव) मुझे एनडीए का एजेंट बता रहा है।” दूसरी तरफ, 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार से बगावत कर हिंदुस्तानी अवाम पार्टी (हम) का गठन करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी महागठबंधन के साथ हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान एनडीए में थे। उस चुनाव में 4.8 फीसदी वोट तो मिले पर जीत केवल एक सीट पर ही मिली। महादलित श्रेणी खासकर मुसहर वोट बैंक पर मांझी का प्रभाव माना जाता है। राज्य में मुसहरों की आबादी करीब तीन फीसदी है और गया, रोहतास, अररिया, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, जमुई, खगड़िया में उनका समर्थन निर्णायक साबित हो सकता है। मांझी ने बताया कि सम्मानजनक सीट नहीं मिलने पर उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेगी।

निषाद विकास संघ के अध्यक्ष मुकेश साहनी पर भी एनडीए और महागठबंधन दोनों की नजरें हैं। खुद को ‘सन ऑफ मल्लाह’ कहने वाले साहनी ने करीब 10 फीसदी आबादी वाले निषादों को गोलबंद कर बेहद महत्वपूर्ण वोट बैंक बना लिया है। बीते चुनाव में भाजपा का समर्थन करने वाले साहनी इस बार खुद मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ना चाहते हैं। निषादों को आरक्षण नहीं मिलने पर वे सभी 40 सीटों पर प्रत्याशी उतारने की चेतावनी दे रहे हैं।  'एक डेग विकास के लेल' यानी विकास के लिए एक कदम, के नारे के साथ 2015 में अस्तित्व में आए गैर राजनीतिक संगठन मिथिला स्टूडेंट यूनियन (एमएसयू) की मधुबनी, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया जैसे जिले में जहां 2014 में भाजपा जीती थी मजबूत पैठ है। राज्य में एमएसयू के 30 साल की उम्र तक के एक लाख से ज्यादा सक्रिय सदस्य हैं। एमएसयू के संस्थापक सदस्य कमलेश मिश्रा ने आउटलुक को बताया, “मिथिला विकास बोर्ड का गठन हमारी मुख्य मांग है। बोर्ड का गठन नहीं हुआ तो हम नोटा के पक्ष में कैंपेन चलाएंगे।” उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी, समस्तीपुर और शिवहर जिले में इस बार बहुजन आजाद पार्टी (बाप) और जनसमर्पित पार्टी भी पैठ बनाने में जुटी है। इन दोनों दलों का गठन आइआइटी से पढ़कर निकले युवाओं ने किया है। दोनों दल एनडीए और महागठबंधन में से किसी के साथ नहीं जाने की बात कर रहे हैं।

राष्ट्रीय लोकतांत्रिक जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. रतनलाल का मानना है कि चुनाव से पहले ज्यादातर छोटे दल महागठबंधन के साथ आ सकते हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, “रालोसपा, जाप, हम और मुकेश साहनी चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इनके उभार से नए विमर्श पैदा हुए हैं और लोकतंत्र मजबूत हुआ है। इससे यह भी पता चलता है कि भाजपा लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रही है और उसके साथी भी अब बेचैन हैं।”

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