छात्र संघों के चुनावों को कोई चाहे तो सालाना जलसा बताकर खारिज कर सकता है लेकिन खासकर चुनावी वर्ष में अमूमन ये सियासी बयार का ऐसा संकेत दे जाते रहे हैं, जिनसे आंख मूंद लेना खतरे को भुलाने का जोखिम उठाने जैसा हो सकता है। याद करें तो हर बार आम चुनाव से पहले छात्र संघ चुनाव के नतीजे देश के युवा मतदाताओं के रुझान की झलक दिखला जाते हैं। ऐसे में इनकी अहमियत इस चुनावी गहमागहमी वाले वर्ष में खास है। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) के चुनाव में 1998 से ही परिपाटी चली आ रही है कि लोकसभा चुनाव से पहले जिस छात्र इकाई की जीत होती है उससे जुड़ी राजनैतिक पार्टी के नेतृत्व में ही अगली सरकार बनती है। ईवीएम पर विवाद के बीच डूसू में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव पद पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) जीतने में सफल रही, जबकि कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआइ को केवल सचिव पद से संतोष करना पड़ा। नतीजों के बाद ईवीएम का विवाद अदालत की दहलीज तक पहुंच चुका है।
दूसरी ओर, मारपीट के आरोपों के बीच जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ (जेएनयूएसयू) चुनाव की मतगणना पूरी हुई तो यह ‘लाल किला’ एक बार फिर विरोधियों के लिए अभेद्य ही साबित हुआ। एक तरफ डूसू और जेएनयूएसयू ने पुरानी परिपाटी कायम रखी है तो उत्तराखंड के कैंपसों में सत्ताधारी दल के पक्ष में बयार बहती नजर आई और ज्यादातर जगहों पर एबीवीपी जीती। लेकिन, चौंकाया पंजाब, राजस्थान और गुजरात में हुए छात्र संघ चुनाव के नतीजों ने। यहां के छात्रों ने परंपरागत पार्टियों को छोड़कर नई हवा को तरजीह दी।
पंजाब यूनिवर्सिटी कैंपस स्टूडेंट्स काउंसिल (पीयूसीएससी) के अध्यक्ष पद का चुनाव जीतकर 22 साल की कनुप्रिया ने तो इतिहास ही रच दिया। वे पीयूसीएससी की पहली महिला अध्यक्ष हैं। राजस्थान के भी ज्यादातर विश्वविद्यालयों ने एबीवीपी और एनएसयूआइ के बजाय निर्दलीय उम्मीदवारों को तरजीह दी। प्रदेश के पांच विश्वविद्यालयों में छात्र संघ का अध्यक्ष पद निर्दलीय के खाते में गया। चार विश्वविद्यालयों में छात्र संघ अध्यक्ष पद एबीवीपी और तीन में एनएसयूआइ को मिला। राजस्थान यूनिवर्सिटी में तो लगातार आठवीं बार सत्ताधारी दल के छात्र संगठन का उम्मीदवार अध्यक्ष पद जीतने में नाकाम रहा और निर्दलीय ने अध्यक्ष पद पर जीत की हैट्रिक बना ली। अध्यक्ष बने विनोद जाखड़ छात्रसंघ के पहले ऐसे अध्यक्ष हैं जो अनुसूचित जाति से आते हैं। वडोदरा की महाराजा सयाजी राव यूनिवर्सिटी (एमएसयू) में नए-नवेले जय हो और विद्यार्थी विकास संगठन के साझा उम्मीदवार ने महासचिव पद पर जीत दर्ज कर सबको चौंका दिया। यहां उपाध्यक्ष और महासचिव पद पर एबीवीपी के उम्मीदवार से ज्यादा वोट नोटा को मिले। डूसू के चुनाव में भी 10.7 फीसदी छात्र नोटा का बटन दबा आए।
हालांकि, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसयटीज (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार का मानना है कि इन नतीजों को देश का मूड नहीं माना जा सकता। उन्होंने आउटलुक को बताया, “छात्र संघ चुनाव उम्मीदवार केंद्रित होते हैं। डूसू में एनएसयूआइ का उम्मीदवार केवल सचिव पद पर जीता। लेकिन, उसने सबसे बड़े अंतर से जीत हासिल की। यदि इसका पैमाना संगठन की लोकप्रियता मानी जाए तो फिर सारी सीटें एनएसयूआइ को मिलनी चाहिए थीं।” राजस्थान के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. संजय लोढ़ा का कहना है कि ये नतीजे व्यवस्था को लेकर छात्रों की नाराजगी को तो परिलक्षित करते हैं, लेकिन इससे आम चुनावों को लेकर कोई निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा। उन्होंने आउटलुक को बताया, “जेएनयू को छोड़ दें तो अन्य विश्वविद्यालय में विचारधारा पर छात्र संघ चुनाव नहीं होते। अन्य जगहों पर इन चुनावों में सामाजिक समीकरण और उम्मीदवार की व्यक्तिगत लोकप्रियता ज्यादा मायने रखती है।”
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की संयुक्त सचिव और एनएसयूआइ की प्रभारी रुचि गुप्ता का कहना है कि इन नतीजों को पूरी तरह युवाओं के रुझान के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि छात्र संघ के चुनाव में 40-50 फीसदी छात्र ही वोट डालते हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, “इन चुनावों में एबीवीपी को सरकारी मशीनरी की मदद मिल रही थी। विश्वविद्यालय प्रशासन भी उनकी मदद कर रहा था। यहां तक कि ईवीएम से भी छेड़छाड़ हुई। इसके बावजूद एनएसयूआइ का वोट शेयर बढ़ा है।”
वहीं, एबीवीपी के महामंत्री आशीष चौहान का दावा है कि जो निर्दलीय जीते हैं उनमें ज्यादातर उनकी विचारधारा से हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, “हमारे खिलाफ सभी संगठन लामबंद थे इसके बावजूद ज्यादातर जगहों पर एबीवीपी का वोट बढ़ा है।” लेकिन, एआइएसएफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष वलीउल्लाह कादरी का मानना है कि अगले साल होने वाले आम चुनावों को लेकर छात्र संघ के नतीजों ने बड़ा संदेश दिया है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “युवाओं और छात्रों में मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ गुस्सा है। यही कारण है कि जहां-जहां चुनाव हो रहे हैं एबीवीपी हार रही है। डूसू में वह धांधली करके जीती है, क्योंकि वहां ईवीएम से चुनाव होते हैं। जेएनयू में बैलेट से चुनाव होते हैं और वहां नतीजों को प्रभावित करने की उसकी कोशिश को छात्रों ने नाकाम कर दिया।” कादरी ने बताया कि जेएनयूएसयू में वाम एकता की जीत में देश के सभी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए एक मंच पर आकर अगले साल भाजपा को देश भर में पटखनी देने का संदेश भी छिपा है।
जाहिर है, इन नतीजों की सब अपने-अपने हिसाब से व्याख्या करेंगे। लेकिन, अगले साल इसका असर दिखने के पूरे आसार हैं। और जिनको लगता है कि छात्र संघ चुनाव के नतीजे मुख्यधारा की राजनीति में मायने नहीं रखते उन्हें बीते साल के इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के नतीजों पर गौर करना चाहिए। मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश में प्रचंड बहुमत से भाजपा की सरकार बनी थी। लेकिन, जब अक्टूबर में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्र संघ के चुनाव हुए तो छह में से पांच सीटों पर समाजवादी छात्र सभा को जीत मिली। इसके बाद राज्य में हुए उपचुनावों में भाजपा को शिकस्त झेलनी पड़ी। ऐसे में जब उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव गोरखपुर यूनिवर्सिटी में छात्र संघ चुनाव स्थगित किए जाने के फैसले को ‘हार का डर’ बताते हैं तो यह चौंकाता नहीं है।