चंडीगढ़ के पंजाब यूनिवर्सिटी कैंपस स्टूडेंट्स काउंसिल (पीयूसीएससी) के चुनाव में पाकिस्तान की सीमा से सटे तरनतारन जिले की कनुप्रिया जब डफली लेकर प्रचार करने निकलीं तो किसी को उनके जीतने की उम्मीद नहीं थी। लेकिन, छह सितंबर को जब नतीजे आए तो सोई-इनसो-आइएसए-हिमासू गठबंधन के ताकतवर उम्मीदवार इकबाल प्रीत सिंह को पटखनी देकर वह पहली महिला अध्यक्ष बनने में कामयाब रहीं।
कनुप्रिया ने आउटलुक को बताया, “पीयूसीएससी में बड़े छात्र संगठन महिलाओं को अध्यक्ष पद की उम्मीदवार नहीं बनाते। सब मानते हैं कि महिलाएं नहीं जीतेंगी। लेकिन, इस बार छात्रों ने पितृसत्ता की कब्र खोद दी है।” चुनाव के दौरान कनुप्रिया को कई चुनौतियों से जूझना पड़ा। एक तो वे जिस संगठन स्टूडेंट्स फॉर सोसायटी (एसएफएस) की उम्मीदवार थीं वह विश्वविद्यालय में भले 2010 से सक्रिय हो, लेकिन चुनाव 2014 से ही लड़ रहा है। बीते चार चुनावों में दो बार महिला को अध्यक्ष पद का प्रत्याशी बनाकर संगठन मुंह की खा चुका था। बकौल कनुप्रिया, “एबीवीपी के उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए विश्वविद्यालय के अधिकारी यहां तक कि वीसी ने भी चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश की।” उनका मुकाबला एनएसयूआइ, एबीवीपी और शिरोमणि अकाली दल के सोई के उम्मीदवारों से था। इन उम्मीदवारों के पास संसाधनों की भरमार थी और उनकी पार्टी के बड़े नेता सीधे चुनावों पर नजर बनाए हुए थे। यहां तक कि जेएनयू जैसी वाम एकजुटता भी नहीं थी। कनुप्रिया कहती हैं, “हम जाति व्यवस्था के विरोध में हैं और महिलाओं की बराबरी की बात करते हैं। हमारी विचारधारा वामपंथ की है, लेकिन इस धारा के अन्य संगठनों से हम अलग हैं। चुनाव जीतने के बाद वामपंथी दलों के नेताओं ने मुझसे संपर्क किया है, लेकिन मैं स्वतंत्र होकर काम करना चाहती हूं।”
पंजाब यूनिवर्सिटी में अब तक एनएसयूआइ, एबीवीपी और सोई का ही दबदबा देखने को मिलता रहा है। इनेलो की छात्र इकाई इनसो को तो पिछले करीब दस साल से इन चुनावों में किंगमेकर का दर्जा हासिल था। जिस छात्र संगठन के साथ इनसो का गठजोड़ होता उसकी जीत मानी जाती। उपाध्यक्ष पद पर सोई-इनसो के दलेर सिंह जीत से यह मिथक पूरी तरह इस बार भी नहीं टूटा। लेकिन, कनुप्रिया की जीत ने नए संगठनों के लिए राह खोल दी है।