इसे ‘चाय सम्राट’ कहते हैं और अपनी खुशबू के लिए यह दुनिया भर में मशहूर है। लेकिन फ्रांस की राजधानी पेरिस का गॉरमेट टी हाउस मैरिएज फ्रेर्रस में इस खुशबूदार खेप का कुछ टोटा है। वहां मशहूर दार्जिलिंग चाय 76 यूरो प्रति 100 ग्राम या 57,200 रुपये प्रति किलो बिकती है, लेकिन वहां से 7,500 किलोमीटर दूर उत्तर बंगाल में हिंसक घटनाओं की वजह से हाल में इसकी आपूर्ति घट गई है। लगता है, पेरिस के शौकीनों को अभी थोड़ा और इंतजार करना होगा। पिछले साल दार्जिलिंग की पहाड़ियों में 105 दिनों तक की बंदी ने चाय बागान मालिकों और मजदूरों को अजीबोगरीब संकट के कगार पर ला खड़ा किया है। चाय बागान वाले पूरी तरह निर्यात होने वाली, बेहद प्रीमियम पहली और दूसरी फसल गंवा बैठे हैं। इससे कुल लगभग 500 करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान है।
ऐसे हालात का पुराना इतिहास भी रहा है। 1980 के दशक के मध्य में अलग गोरखालैंड हिंसक आंदोलन और सख्त सरकारी कार्रवाई में करीब 1,200 से अधिक लोग मारे गए थे। इस दौरान चाय बागान और चाय मजदूर भी इसकी चपेट में आए। जब हिंसा थमी तो सामान्य स्थिति बहाल होने की रफ्तार धीमी रही। उससे यहां के 87 चाय बागान अब जाकर पूरी तरह संभलने लगे थे कि तभी 2017 में जून मध्य से लेकर सितंबर तक सबसे लंबे बंद ने चाय बागानों को अव्यवस्था की ओर धकेल दिया। यह हड़ताल 10 महीने पहले खत्म हुई, लेकिन चाय उद्योग अभी भी उससे उबर नहीं पाया है।
बागान मालिकों और मैनेजरों का कहना है कि इस बंद की वजह से अधिकांश मजदूरों को मजबूरन पड़ोसी देश नेपाल के बागानों में पलायन करना पड़ा। अब ज्यादातर बागान एक और अप्रत्याशित संकट से जूझ रहे हैं। चाय बागान मजदूरों पर ही आश्रित है। कुछ ही मजदूर या कर्मचारी स्थायी होते हैं। ज्यादातर मजदूर अस्थायी ही होते हैं और वे अभी तक बागानों में नहीं लौटे हैं। बागान मालिक, निर्यातक और दार्जिलिंग टी एसोसिएशन (डीटीए) के अध्यक्ष बिनोद मोहन कहते हैं कि पिछले साल मॉनसून और शरद ऋतु की फसल की बर्बादी के अलावा दार्जिलिंग चाय उद्योग बड़े पैमाने पर मजदूरों की कमी से जूझ रहा है।
मोहन बताते हैं कि फरवरी-मार्च की शुरुआती फसल की अच्छी कीमत मिलती है, लेकिन इस साल वह भी हमारे हाथ से निकल गई। वह कहते हैं, “पौधों को तैयार करने में आठ महीने का समय लगता है और जब तक पहली फसल तैयार हुई, तब तक बागान की सालाना उपज का लगभग 30 फीसदी हम गंवा चुके थे। बागान मालिक अपनी लागत ही नहीं निकाल पाए, करीब 300 करोड़ रुपये से अधिक का घाटा हो चुका था।” डीटीए ने राहत पैकेज के लिए टी बोर्ड ऑफ इंडिया और केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय से संपर्क किया है। मोहन कहते हैं, “हमने कुछ वित्तीय सहायता के लिए टी बोर्ड से अपील की है, लेकिन अभी तक कोई मदद नहीं मिली है।”
बेहद खूबसूरत और सेहतमंद जलवायु के लिए मशहूर दार्जिलिंग में चाय की खेती एक अंग्रेज अफसर कैप्टन सैमलर ने 1840 के दशक में शुरू करवाई। उसके बाद चाय बागानों का तेजी से विस्तार हुआ और 1915 के सरकारी रिकॉर्ड के मुताबकि, तब 156 चाय बागान थे। अब सिर्फ ऐसे 87 बागान हैं, जो रजिस्टर्ड जियोग्रॉफिकल इंडिकेशन (जीआई) के तहत ‘दार्जिलिंग चाय’ बेच सकते हैं। दार्जिलिंग सालाना 85 लाख किलो या देश में कुल चाय उत्पादन का .2 फीसदी पैदा करता है। इसे परंपरागत रूप से दुनिया की बेहतरीन चाय माना जाता है। वसंत और गर्मियों की फसल को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है और उसकी सबसे अच्छी कीमत मिलती है।
दार्जिलिंग में सालाना चार फसल होती है- पहली फसल में 20 फीसदी, दूसरी में भी 20 फीसदी, मॉनसून में 30 फीसदी और शरद ऋतु के समय 30 फीसदी चाय का उत्पादन होता है। डीटीए के मुख्य सलाहकार संदीप मुखर्जी बताते हैं, “चाय बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक, दार्जिलिंग में 1994 के 1.4 करोड़ किलो चाय उत्पादन की तुलना में 2016 में सालाना 84.4 लाख किलो ही हुआ और यह देश के कुल उत्पादन 1.2 अरब किलो की तुलना में काफी कम है।” अन्य चाय उत्पादक क्षेत्रों के उलट यहां साढ़े चार महीने की सर्दियों के दौरान कोई उत्पादन नहीं होता है।
इसके अलावा ऑर्गेनिक चाय की मांग तेज होने से भी संकट बढ़ा है। मुखर्जी का कहना है कि बागानों ने रासायनिक खाद वगैरह का इस्तेमाल बंद कर दिया तो उपज 1.4 करोड़ किलो से काफी कम हो गई। उपज घटने से लागत भी बढ़ गई है और चाय उद्योग को 40-50 फीसदी उपज गैर-लाभकारी कीमतों पर बेचना पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन दूसरा अभिशाप है, क्योंकि मार्च में सूखा आम बात हो गई है। मुखर्जी कहते हैं, “दार्जिलिंग चाय की विशिष्टता तापमान, भौगोलिक स्थिति, मिट्टी की संरचना और बारिश पर निर्भर करती है। पिछले दो दशकों में बारिश के रिकॉर्ड से पता चलता है कि सालाना औसत वर्षा में 22 फीसदी की गिरावट आई है। पहले साल भर बारिश एक समान मात्रा में हुआ करती थी जबकि अब अनिश्चित हो गई है।”
एक ही बागान में उगने वाली चाय की किस्म साल भर एक समान नहीं होती है। मौसम के साथ-साथ गुणवत्ता में भी बदलाव आता है। चमोंग टी ग्रुप के पास दार्जिलिंग में चाय के 13 बागान हैं और यह अधिकतर ऑर्गेनिक चाय ही बेचता है। इसके चेयरमैन अशोक कुमार लोहिया कहते हैं कि एक ही दिन उगाई चाय की गुणवत्ता भी एक समान नहीं हो सकती है, जितनी अधिक ऊंचाई पर उगाई जाएगी, उसकी गुणवत्ता उतनी ही अच्छी होगी। अधिकांश बागान मालिकों की तरह लोहिया भी निर्यात से होने वाली कमाई के बारे में बताने में सावधानी बरतते हैं। वह कहते हैं, “जीआई संरक्षण की वजह से बड़े वैश्विक ब्रांड दार्जिलिंग चाय का विकल्प बनने में असफल रहे हैं।” हालांकि, वह चेतावनी देते हैं कि राजनीतिक अस्थिरता ने “वैश्विक आयातकों के लिए बतौर ब्रांड दार्जिलिंग चाय की साख घटा दी है।”
14 चाय बागानों के मालिक अंबूतिया समूह के अनिल बंसल कहते हैं कि कई बागान मालिक इस संकट को नहीं झेल सकते हैं। वह कहते हैं, “चाय की पहली और दूसरी फसल बुरी तरह प्रभावित होने के बाद हम निर्यात की मांग के मुताबिक आपूर्ति नहीं कर पा रहे हैं।”
इस संकट की वजह से चाय फैक्ट्रियों और बागानों का भविष्य दांव पर लगा है। बंसल कहते हैं, “हम दुर्भाग्य से ऐसी स्थिति में आ फंसे हैं कि 160 साल पुराने उद्योग को किसी तरह बचाए रखने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। पिछले साल के बंद का भारी असर हुआ है। मजदूरों के न लौटने से संकट कई गुना बढ़ गया है।”
हालांकि, बागान मालिक शुरुआती उपज के चार महीने के दौरान अच्छा मुनाफा कमाते हैं। मुखर्जी कहते हैं, “लेकिन साल के बाकी महीने उन्हें जद्दोजहद करनी पड़ती है।”
मुखर्जी कहते हैं कि दार्जिलिंग में चाय उत्पादन घटा और आपूर्ति बाधित हुई तो पड़ोसी नेपाल के उद्योग को बाजार में जगह बनाने का मौका मिल गया है। जाहिर है, इससे कीमतों पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है। वह कहते हैं, “दार्जिलिंग चाय भारतीय चाय की प्रतीक है और इसके लिए हमें सरकारी सहायता की जरूरत है। हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य की जरूरत है, क्योंकि चाय भी चीनी की तरह ही कृषि उत्पाद है।”
कई खुदरा विक्रेता और थोक खरीदार नेपाली चाय की ओर रुख कर चुके हैं, जो गुणवत्ता में दार्जिलिंग चाय की ही तरह है, लेकिन उससे बहुत सस्ती है। ऐसी खबरें हैं कि कई डीलर नीलामी के जरिए दार्जिलिंग चाय के साथ नेपाली किस्म की मिलावट करके खूब पैसे कमा रहे हैं। मुखर्जी कहते हैं, “सरकार को ऐसी मिलावट करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए। ये लोग दार्जिलिंग चाय उद्योग की साख खराब कर रहे हैं।”
भारतीय चाय बागान मालिक नेपाल से चाय मंगाने पर पाबंदी की मांग कर रहे हैं। लेकिन दार्जिलिंग किस्म की ओर उपभोक्ताओं को लुभाना आसान नहीं रह गया है और इस साल नीलामी की कीमतों पर इसका बड़ा असर पड़ा। यह भी अहम है कि राजनीतिक अनिश्चितता और फसल अच्छी न होने से निर्यात और घरेलू खपत दोनों पर ही असर पड़ा है। दार्जिलिंग में उत्पादित चाय का 65 प्रतिशत निर्यात होता है और चमोंग, अंबूतिया, गुडरिक और मकईबारी जैसे प्रमुख ब्रांड कंपनियां सीधे यूरोप और जापान में थोक खरीदारों को बेचती हैं। बाकी उद्योग बड़े खरीदारों पर निर्भर हैं, जो मॉनसून की फसल को वर्षों पुरानी नीलामी की व्यवस्था के जरिए खरीदते हैं।
उग्र ट्रेड यूनियनों ने भी चाय उद्योग की परेशानियां बढ़ाई हैं। एक बागान मालिक कहते हैं, “बागानों में सभी प्रमुख राजनैतिक दलों की ट्रेड यूनियन शाखाएं हैं, जो वोटबैंक के बड़े हिस्से पर असर रखती हैं और खासकर यूनियनों में किसी एक नेता का दबदबा होना मजदूरों के लिए भी नुकसानदेह साबित हुआ है।” दार्जिलिंग के खस्ताहाल चाय बागानों पर समस्याओं के भारी बादल मंडराते दिखते हैं। फिर भी समस्याएं ऐसी नहीं हैं जिन्हें दूर नहीं किया जा सकता। जमीनी हालात में सुधार, सरकारी मदद और एक या दो अच्छी फसल दार्जिलिंग चाय की खूशबू वापस ला सकती है।