स्त्री विमर्श आज जितना गहरा हुआ है और जितना विस्तार पाता जा रहा है, उतना ही उसे समझने और उसमें शामिल होने की इच्छा लोगों में जागृत हो रही है। ज्यादातर लोग अब इससे भ्रमित होने के बजाय, उसे बिना समझे उसका तिरस्कार करना नहीं चाह रहे, क्योंकि वह इसका एक अंध तिरस्कार ही होगा। हालांकि, सत्तासीन राजनैतिक विचारधाराएं ये बताने में लगातार लगी हुई हैं कि यह विमर्श अनावश्यक है। इसका एक कारण यह भी है कि जिस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में भारतीय स्त्री और पुरुष असंतुलित ढंग से ही संतुलित होते जा रहे थे, वह भारतीय एवं विश्व महिला आंदोलनों तथा खुद पूंजीवादी व्यवस्था के अपने आंतरिक परिवर्तनों के कारणों से तेजी से बदल रहा है।
एक तरफ विश्व पूंजीवाद खुद को बाजार के जरिए लगभग पूरी तरह से आम जीवन में उतार चुका है। इसके प्रभाव से अब न कोई शहर, न ही कोई गांव अछूता है। टेक्नोलॉजी के जरिए बाजार तीव्रतम ढंग से सबके पास पहुंच रहा है। मोबाइल फोन हो या इंटरनेट सभी बाजार से ही अपनी छवियां गढ़ रहे है। जो पहले कभी इतना प्रत्यक्ष नहीं था, अब है। अब जैसे मार्केट का यानी कि बाजार का कोई हिडेन एजेंडा नहीं रह गया है। बाजार में बिकती चीजें और खरीदार एक हो रहे हैं। कंज्युमरिज्म अपने उत्स पर है। ऐसे में स्त्री शरीर पहले से कहीं ज्यादा अपनी नग्नता में बाजार में उपस्थित है। उसमें पहले वाली बेचारगी नहीं है, बल्कि ऐसा प्रतीत कराया जा रहा है जैसे इसमें उसकी सहमति हो।
यह तो एक स्थिति है कि बाजार ने स्त्री देह को पुराने आवरण या बंधनों से मुक्त कर दिया है और वह बेची और खरीदी या संवारी जाने वाली वस्तु बन गई है, जो अब एकाकी है मगर स्वतंत्रता को महसूस करती है। इसे परंपराओं के बंधन अब जैसे जकड़ के नहीं रख सकते। परंतु बहुत कम लोग समझ रहे हैं कि स्त्री शरीर मुक्त नहीं, बल्कि बाजार के शर्तों के महाजाल में फंस गया है और यह मुनाफे का एक बहुत बड़ा जरिया है। उसकी हैसियत एक वस्तु की तो है लेकिन यह वस्तुकरण उसकी नई दासता का कारण है। सिर्फ देह की मुक्ति वाला, ज्यादातर पुरुषों को भाने वाला और उनके द्वारा चलाया गया स्त्री विमर्श हमें इसी महाजाल की तरफ ले गया है। भारत में भी जिन लोगों ने स्त्री विमर्श को देह की मुक्ति के विमर्श में तब्दील किया, उन्होंने भी, मेरी दृष्टि में, इसके लिए तैयार हो रही नई दासता के कथानक में ही अपना योगदान दिया।
वह विमर्श एक दौर का था, हम यही कह सकते हैं, अब स्त्री के भ्रम का दौर है। स्त्री विमर्श आखिर उसकी मुक्ति का ही विमर्श था, हजारों वर्षों से चली आ रही सामंती और पूंजीवादी पितृसत्ता से मुक्ति का विमर्श। इस व्यवस्था में स्त्री के अपने ‘स्व’ का जैसे लोप ही हो गया। वह प्रच्छन्न ढंग से अपना जीवन जी रही थी। उसकी देह भी उसकी नहीं रही थी। इस देह को पितृसत्ता ने हथिया लिया। इस देह से पाई जाने वाली खुशी पर भी उसका कब्जा हो गया। दूसरे, उसमें बसी वासना व कामना का मालिक पुरुष हो गया। जैसे कि संभोग करना, वह कब करना है, किसके साथ करना है, वह सब कुछ परिभाषित हो चुका था (बल्कि अब भी स्थिति वही है)। एक पति नाम का पुरुष उसका मालिक हो गया था। पितृसत्ता के कारण यह स्थिति बनी कि स्त्री अपने शरीर पर अपना अधिकार खो चुकी। उसके कितने बच्चे होंगे, किस लिंग के बच्चे होंगे, यह उसकी आकांक्षा पर निर्भर नहीं रहा, बल्कि पितृसत्ता के तर्कों के हिसाब से सब तय होने लगा। बेटियों की भ्रूण हत्या की जड़ें यहीं हैं। स्त्रियों की यह पराधीनता उसके पूरे अस्तित्व को नियंत्रित करने लगी। पुरुषों की यह विजयी स्थिति इसी व्यवस्था के कारण हुई।
इसलिए आज का स्त्री विमर्श पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति चाहता है। उसके साथ समझौता नहीं कर सकता। स्त्री विमर्श के लिए इसलिए यह जरूरी हो गया है कि वह उनको भी अपने विमर्श के दायरे में लाए यानी कि पुरुषों को, जो उसके दमन में शामिल हैं। इसलिए पुरुषवाद पर भी स्त्री विमर्श के अंदर तीव्र बातचीत शुरू हुई और यह पाया गया कि बहुत से पुरुष भी पितृसत्ता के दमन के गंभीर रूप से शिकार हुए हैं, क्योंकि पितृसत्ता सिर्फ पूंजीवाद के जरिए नहीं चलती। उसे धर्म और जाति व्यवस्था भी चलाती है। उसे संरक्षित करती है। जाति और धर्म के आधार पर जो विभाजन किया गया, खासकर भारतीय समाज में, उसने सिर्फ स्त्रियों को ही नहीं, पुरुषों को भी सदा के लिए असमान बना दिया। इस व्यवस्था में एक दलित स्त्री के साथ-साथ दलित पुरुष भी असमान एवं दमित हुआ है। कारण कि सारी व्यवस्थाएं स्त्रियों के साथ कई वर्ग के पुरुषों को असमान बनाती रहीं। खासकर राष्ट्र की जो व्यवस्था है उसमें धर्म के नाम पर एक पूरे धार्मिक समुदाय को माइनॉरिटी का दर्जा दिया गया। यह अल्पसंख्यक समुदाय नागरिकता में किए गए विशेष प्रावधानों के ही कारण समान बना रह सकता है। यदि यह विशेषता न हो तो वह हर तरह के अत्याचार का निशाना बन सकता है। अर्थात स्त्री की देह पर ही यह व्यवस्था नहीं टिकी है और स्त्री विमर्श को सिर्फ उसकी देह में ही महदूद कर देने से विमर्श एकांगी हो जाता है।
हिंदी में शायद स्त्री विमर्श को स्त्री के शरीर से संबद्ध ही माना जाता है जबकि स्त्री विमर्श देह से कहीं आगे निकल चुका है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में दमित तमाम वर्गों और जाति-धर्म में फंसे लोगों के लिए भी स्त्री विमर्श है। यह बात गौर करने की है कि इस मुक्ति विमर्श के जड़ में जेंडर और लैंगिकता का सवाल अहम है। जो भी मुक्ति प्रक्रिया चले या चल रही है उससे स्त्री की विशेष असमान एवं दमित होने वाली स्थिति का निवारण होना चाहिए।
स्त्री का दमन सार्वभौमिक है इसलिए इसका खत्म होना भी तर्कसंगत लगता है। स्त्री विमर्श की उत्कृष्टता इस बात से भी सिद्ध होती है कि इस विमर्श ने तमाम देशों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आयामों को अपने विश्लेषण के दायरे में समाहित कर लिया है। हिंदुस्तान में दलित स्त्रियों का मुक्ति विमर्श इसका सशक्त हिस्सा है। वहीं, धार्मिक व्यवस्थाओं से उपजे दमन को भी इसने आत्मसात कर लिया है।
स्त्री विमर्श अब सामाजिक विद्रूपता और दूसरी तरह की असमानताओं से मुक्ति का भी एक मुकम्मल विमर्श बन चुका है। वह सिर्फ कथा-कहानी को ही विषय वस्तु नहीं बनाता बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा स्थूल से स्थूल सिद्धांतों में शरीक होकर एक उत्तर-पितृसत्तात्मक व्यवस्था को रचने में लगा है। क्योंकि, अभी पितृसत्ता व्यवस्था का जो दौर है वह पूंजीवादी है, इसलिए पूंजीवाद को समाप्त करने का सैद्धांतिक प्रयास भी लगातार इस विमर्श में चल रहा है। अब एक ‘स्त्रीवादी अर्थशास्त्र’ भी है जो विकसित अकादमिक पद्धति है सोचने-समझने की। असमानता का दमनकारी जाल जो पूंजीवाद ने बुना है, जिसमें स्त्रियों के श्रम का अमानुषिक शोषण होता है, जिस पर पूंजीवाद का 40 प्रतिशत मुनाफा टिका हुआ है। स्त्रीवादी ‘समान श्रम के लिए समान मुआवजा’ की नीति से पूंजीवाद की सांसें उखाड़ सकती है।
स्त्री विमर्श में अब उसके भविष्य यानी फेमनिस्ट फ्यूचर पर होने वाले शोध भी शामिल हैं। इस पर भी बातचीत होनी चाहिए। इस विमर्श में बहुत बड़ी भूमिका उन फेमनिस्टों की है जो पूरी मानव जाति और पृथ्वी के भविष्य को लेकर सशंकित हैं। इन स्त्रीवादियों का मानना है कि भविष्य में पर्यावरण को बचाने पर भी यह विमर्श टिका होना चाहिए। बिना इसके क्या देह और क्या आत्मा, सब कुछ नष्ट होने के कगार पर है। नारीवादी विमर्श का यह आयाम शायद सबके लिए महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि यह अस्तित्व के खतरे से जुड़ा है। अस्तित्व के बचे रहने की चिंता को लेकर है। हम किस तरह उत्पादन और खपत करें कि बहुत कुछ बचा रहे मनुष्य और अन्य जीवों के लिए या अगली पीढ़ी के लिए। यह चिंतन इस विमर्श में शामिल है। पूंजीवाद ने स्त्री जीवन को गहरे क्षतिग्रस्त किया है। उसने प्रकृति का भी दोहन ज्यादा क्रूर ढंग से किया।
इस वजह से स्त्री विमर्श में समग्र सभ्यता का विमर्श है, न कि देह का। हमारा कोई मित्र या शत्रु नहीं। सभी एक ही नाव पर सवार हैं और सब डूबने के कगार पर हैं। हालांकि, अब भी कोई यह ढूंढ़ सकने की स्थिति में नहीं है कि किसने किसको कितने घाव दिए और तब भी साथ-साथ बने रहे। आज तक मुक्ति सपने की तरह बनी रही। आज मुक्ति एक दरकार है जिसको पाए बिना अस्तित्व नगण्य होने के बहुत करीब आ पहुंचा है। पितृसत्ता से इसलिए अब कोई समझौता नहीं। मनुष्य जाति के लिए यह एक मृत्यु समान विकल्प है, यदि कोई इस भ्रम में है कि इसमें मामूली परिवर्तन कर इसी में रहा जा सकता है। वैसे भी अब यह रेत का ही घर है, भुरभुरा कर गिरना ही इसकी नियति है।
(लेखिका कवयित्री और इग्नू में प्रोफेसर हैं)