संगीतकारों से सुनीता बुद्धिराजा का गहरा नाता रहा है और यह गुण उन्होंने अपनी मां से पाया है। उनका पहला कविता संग्रह आधी धूप उनके कवि-मन का आईना है। परिवार के प्रोत्साहन से संगीत सभाओं से ऐसा रिश्ता जुड़ा कि वाह-वाह और तालियों के बीच उन्हें थोड़े से सुर, सम और खाली की पहचान होने लगी। इसी का असर है कि जब वे संचालन करते हुए कलाकारों का परिचय देतीं तो बायोडाटा एक तरफ रख कर ऐसे बोलतीं जैसे उससे जन्मों का नाता हो। रसराज पंडित जसराज पंडित जी से पिछले चालीस साल के इसी संगत और गुफ्तगू का परिणाम है।
दो साल पहले जब उनकी किताब सात सुरों के बीच आई तो उसमें जो सबसे विरल और अपने प्रवाह में बहा ले जाने वाला संस्मरण था, वह पंडित जसराज को लेकर था। उनकी महफिलों के विपुल वृत्तांत और संस्मरण सुनीता ने यहां जिस तरह सिरजे और सहेजे हैं वे सुनीता के लिए लिविंग लीजेंड हैं, अपरिहार्य हैं, संगीत के लिए तो हैं ही। वे कहती हैं, “पं. जसराज के सुरों की पालकी पर चल कर बसंत आता है। तभी तो वे गाते हैं : और राग सब बने बराती दूल्हा राग बसंत। पर, बसंत तब आता है जब पं. जसराज उसे बुलाते हैं। बसंत तब आता है जब पंडित जसराज उसे गाते हैं।”
संगीत मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी का कहना है, “संसार से ऊपर कोई संसार है तो केवल उसे संगीत छूता है। कैसी-कैसी बंदिशें कुमार गंधर्व ने गाईं, पंडित जसराज ने गाईं। इन मूर्धन्यों ने अपने गायन में कविता के शब्द को प्रतिष्ठा दी। अपनी शर्तों पर गाया। असली अध्यात्म का सबसे अकाट्य बेहतरीन उजला संस्करण हमारे शास्त्रीय संगीत में है।”
सुनीता बुद्धिराजा बताती हैं कि बचपन में, जब गाना क्या होता है, मालूम न था, स्कूल जाते हुए एक होटल से बजते रेकॉर्ड की आवाज-दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे, वरना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे-ने उनके भीतर संगीत की रोशनी भर दी थी। आते-जाते कितनी ही बार इस गाने को वे सुनते और गायन की इसी धुन ने उन्हें एक दिन पंडित जसराज बना दिया।
गांव पीली मंदौरी, हिसार, हरियाणा में 1930 में जन्मे जसराज को कोलकाता ने संगीत के पायदान पर खड़ा होना सिखाया। वहां वे कोलकाता की पुरानी संस्था संगीत श्यामला से जुड़े थे, जहां बड़े भाई मनीराम के सान्निध्य में संगीत को जानने- समझने का अवसर मिला। पर, बाद में ऐसा मन उचटा कि वे वहां से मुंबई निकल भागे।
पंडित जसराज का जुड़ाव साहित्यकारों से भी गहरा रहा है। कुंवर नारायण, धर्मवीर भारती, केशवचंद्र वर्मा, श्रीलाल शुक्ल आदि से करीबी रिश्ता था तो महादेवी वर्मा से भी। महादेवी जी उन्हें बहुत मानती थीं। महादेवी जी से उनके दिल के तार ऐसे जुड़े थे कि वे 1987 में अमेरिका में थे। क्या संयोग कि पूरे दिन उनका गीत क्या पूजन क्या अर्चन गाते रहे। फिर दिल घबराया तो दुर्गा से कहा किसी को इलाहाबाद फोन करके देखो, मुझे महादेवी जी की बहुत याद आ रही है। और पता लगा कि फोन के कुछ समय पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया है।
वे कहती हैं, “उनके गायन में एक आध्यात्मिक सुख है। एक बार वे मुंबई में गाने वाले थे। मुंबई की अलसाई सुबह, पर देर से उठनेवाली जनता उन्हें सुनने सुबह-सबेरे ही आ गई। यहीं उन्होंने जाना कि कंठ से नहीं, नाभि से सुर निकलना चाहिए। उस दिन जब उन्होंने मांडूक्य उपनिषद गाना शुरू किया तो पहली बार ओंकार को जाना।”
एक बार पंडित जी की तबीयत बिगड़ गई। रास्ते में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पड़ी। उन्होंने ड्राइवर से कहा गाड़ी यहीं रोक लो। वह बोला पंडित जी यह तो दरगाह है। उन्होंने कहा क्या फर्क पड़ता है एक ही बात है। वे कहते हैं ऐसी जगहों से यह आवाज आती है, हिंदू मुसलमान क्यों सोचते हो? इस अर्थ में लगभग सारे संगीतकार एक हैं। वे मंदिर में गाएं-बजाएं या किसी पीर-औलिया की दरगाह में, उनका ईश्वर सब जगह एक है।
पंडित जसराज की बातों की इतनी तहें यहां पर खुलती हैं कि लेखिका की यादों की गठरी खत्म होने का नाम नहीं लेती। कितने शहर, कितने पड़ाव, एक-एक राग से जुड़ी यादें, ‘सागर उत्सव’ सहित जीवन के पल-पल से जुड़े अनुभव, पत्नी मधुरा का अलौकिक साहचर्य, संगीत जगत के दिग्गजों एवं साधु संन्यासियों की संगति और आध्यात्मिक अनुभूतियों के शिखरों से गुजरते हुए पं. जसराज ने संगीत को जैसे आत्मा के साथ संवाद में बदलने का सुख पाया है। रागों, बंदिशों तथा तालों की विशिष्टताओं पर उनकी जानकारियां अद्वितीय हैं। कहीं से भी शुरू करें, सुरों की इंद्रधनुषी आभा से सजा उनका जीवन इस पुस्तक में एक आख्यान की तरह पढ़ा जा सकता है।