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पंचायती राज की जमीनी हकीकत

यह किताब उन सभी के लिए एक दस्तावेज की तरह है जो पंचायती राज व्यवस्था के हर पक्ष से रूबरू होना चाहते हैं
पंचायती राज इन इंडिया

अतीत में देश की पंचायतें लोकतांत्रिक नहीं थीं, क्योंकि उनमें समाज के सभी वर्गों की भागीदारी नहीं थी। या यूं कहें, उनमें उच्च वर्ग का ही वर्चस्व था। लेकिन समय के साथ-साथ पंचायत का स्वरूप बदलता गया। ब्रिटिश काल की शुरुआत में पंचायतों पर ध्यान नहीं दिया गया। यह बात अलग है कि 1882 के लॉर्ड रिबन और 1909 के रॉयल आयोग के सुझाव पंचायतों के सशक्तिकरण के लिहाज से प्रशंसनीय थे।

आजादी के बाद ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में जन भागीदारी न होना मुख्य समस्या बनकर उभरी। 1957 में बलवंत राय मेहता समिति ने जन भागीदारी के लिए तीन स्तरीय (ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत) पंचायती राज का ढांचा खड़ा करने की जरूरत बताई। समिति की सिफारिश मान ली गई और पंचायती राज शुरू हुआ। 1978 की अशोक मेहता समिति की रिपोर्ट के अनुसार पंचायतें तीन दौर से गुजरी हैं। पहला, 1959-64 का दौर जिसे उभार से संबोधित किया गया। दूसरा, गतिरोध का दौर जो 1965-69 तक रहा और तीसरा 1969-77 के बीच चला ह्रास दौर। इस समिति की रिपोर्ट बताती है कि पंचायतों के ह्रास का कारण नौकरशाही और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी रही। दूसरा, उच्च स्तर पर राजनैतिक अभिजन का रवैया स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक प्रकिया को मजबूत बनाने के प्रतिकूल रहा। कुछ राज्यों के सांसद और विधायकों का पंचायती राज के प्रति उदासीन हो जाना विशेष महत्व रखता है, क्योंकि वे अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में पंचायती राज के कारण उभरने वाले नए नेतृत्व से अपनी स्थिति के लिए खतरा महसूस करने लगे थे। 1978 का यह निष्कर्ष अब भी उतना ही सार्थक है। 1986 में एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिश के आधार पर पंचायतें नौवीं सूची का हिस्सा बनीं। इसके लिए 73वां संविधान संशोधन किया गया।

डॉ. महिपाल की पुस्तक पंचायती राज इन इंडिया पंचायतों के अतीत, वर्तमान और भविष्य पर प्रकाश डालती है। अतीत का जिक्र ऊपर किया गया है। वर्तमान के लिहाज से 73वां संविधान संशोधन पंचायतों को सशक्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इसके प्रावधान दो तरह के थे। एक, जो अनिवार्य की श्रेणी में आते हैं। दूसरा, पंचायतों के अधिकार एवं शक्तियों के बारे में है। इस प्रावधान के बारे में संविधान संशोधन ने कंजूसी दिखाई, क्योंकि पंचायतों को अधिकार और शक्तियां देना राज्य की विधानसभाओं पर छोड़ दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि पंचायतों को अधिकार और शक्तियों के नाम पर ठेंगा दिखा दिया गया। 1996 में पंचायती राज व्यवस्था की दिशा में एक और क्रांति हुई। इसी साल अन्य अधिनियम ‘पंचायत उपबंध’ (अनुसूचित क्षेत्र में विस्तार) पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में लागू हुआ, जो दस राज्यों (हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात और ओडिशा) में फैला है। इस अधिनियम के द्वारा जल, जंगल और जमीन को ग्राम सभाओं के हाथों में सौंपने का प्रावधान है। जमीनी स्तर पर क्या स्थिति है, इसका मूल्यांकन भी पुस्तक में किया गया है।

73वें संविधान संशोधन में यह प्रावधान था कि पंचायतें अपने स्तर पर आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजना बनाएंगी और लागू करेंगी। ऐसा करते समय पंचायतें संविधान की 11वीं अनुसूची में दर्ज 29 कार्यों को भी शामिल करेंगी। इसी प्रकार नगर पालिकाएं भी अपनी योजनाएं बनाएंगी। जिला स्तर पर जिला नियोजन समिति ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों को मिलाकर संपूर्ण जिले की योजना बनाएगी। यह प्रावधान कितना सफल रहा इस पर पुस्तक के अध्याय पांच में चर्चा की गई है।

पंचायतों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं महिलाओं को आरक्षण दिया गया है। इस आरक्षण के कारण आठ लाख से अधिक अनुसूचित जाति-जनजाति के सदस्य पंचायतों में चुनकर आए हैं और 10 लाख से अधिक महिलाएं पंचायतों में कार्यरत हैं। ये वर्ग क्या-क्या कार्य कर रहे हैं, कैसे कर रहे हैं, इनके सामने क्या मुश्किलें हैं, इन सभी का अध्ययन अध्याय छह में किया गया है। अंतिम अध्याय में पंचायतों के आगे बढ़ने में बाधक मसलों और उपायों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। पुस्तक में तीन अनुबंध भी हैं, जो पंचायतों के उद्‍गम, 73वें संविधान संशोधन और जिला नियोजन समिति के बारे में हैं।

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वालों, अध्यापन से जुड़े लोगों, प्रशिक्षण संस्थानों के अलावा यह किताब उन सभी के लिए एक दस्तावेज की तरह है जो पंचायती राज व्यवस्था के हर पक्ष से रूबरू होना चाहते हैं। 

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