प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपने विदाई समारोह में कुछ भावुक अंदाज में कहा, “मैंने बतौर जज अपने पूरे कॅरिअर में कभी भी समता की देवी से नाता नहीं तोड़ा।” और “न्याय का मानवीय चेहरा और मानवीय रुख होना चाहिए...मैं लोगों के बारे में उनके इतिहास से नहीं, बल्कि उनकी सक्रियताओं और नजरिए से राय बनाता हूं।” संभव है, इनमें उनके बारे में उठे विवादों के प्रति भी कोई संकेत हो। हालांकि रिटायर होने के पहले अपने अंतिम दस दिनों में उनकी पीठ ने जो एक के बाद एक कई अहम फैसले सुनाए, वही उनके कॅरिअर की नजीर बनेंगे। ये सभी मामले संवैधानिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक महत्व के हैं। समूचा देश और समाज राहत की उम्मीद से सुप्रीम कोर्ट की ओर टकटकी लगाए बैठा था। सो, देश की सर्वोच्च न्याय पीठ के इन फैसलों से कितनी राहत मिली या इनके गुण-दोष का विश्लेषण करना तो शायद जल्दबाजी कहलाएगी, मगर एक सवाल तो फौरन उठता है कि इन फैसलों का मर्म क्या है? यह भी गौरतलब है कि तकरीबन इन सभी मामलों में एक असहमति का फैसला ऐसा है, जो बहुमत के फैसले के लगभग विपरीत ध्रुव पर खड़ा है। चाहे वह आधार का मामला हो या व्यभिचार को आपाराधिक बनाने वाली कानून की धारा का, या फिर अयोध्या में मस्जिद से जुड़ा मामला या सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का, या भीमा कोरेगांव से जुड़ी गिरफ्तारियों का मामला।
इसलिए जब भी ये फैसले नजीर की तरह पेश किए जाएंगे तो असहमति के फैसले की बात भी जरूर उठेगी और इन सभी मसलों पर नए सिरे से विचार की गुंजाइश बनी रहेगी। हालांकि इसी दौरान दिए गए समलैंगिकता को आपराधिक बनाने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को रद्द करने और अनुसूचित जाति-जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण संबंधी फैसले सर्वसम्मति से हुए। लेकिन उनके लिए सामाजिक सहमति के दायरे लंबे समय से बन रहे थे।
इससे यह सवाल भी बरबस उठ खड़ा होता है कि क्या एक ही मौके पर बेहद महत्वपूर्ण मामलों को निपटाने की यह प्रक्रिया एक स्तर पर न्यायिक हड़बड़ी का नजारा पेश करती है। इसमें दो राय नहीं कि ये मसले बेहद महत्वपूर्ण हैं और इन पर समाज नई व्याख्याओं की उम्मीद लगाए बैठा था। इसलिए यह जानना जरूरी हो जाता है कि ये फैसले किस सामाजिक या राजनैतिक फलसफे का संकेत देते हैं? आम आदमी को कैसे ये फैसले प्रभावित करते हैं? और राजनैतिक तथा नीति-निर्माण बिरादरी को इनका संदेश क्या है? यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट से आने वाले हर न्यायिक फैसले का दायरा व्यापक होता है और यकीनन उसे सुनाने के पहले विद्वान न्यायाधीश गहरे विचार मंथन तथा तमाम पहलुओं को गौर करने के बाद ही सुनाते हैं। इसलिए हर तरह की संवेदनशीलता के साथ ही उस पर विचार किया जाना चाहिए। इससे यह भी पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट पर कितनी जवाबदेही और किस कदर बोझ है?
इस समझदारी को ध्यान में रखकर भी हम हर फैसले के तमाम पहलुओं पर विचार तो कर ही सकते हैं, बल्कि किया ही जाना चाहिए। तो, आइए पहले आधार वाले फैसले पर विचार करते हैं। इसमें प्रधान न्यायाधीश की पीठ का बहुमत का फैसला उसकी कानूनी वैधता को स्वीकार करके उसे कुछ खास सरकारी कार्यों तक ही सीमित करता है। पैनकार्ड और आयकर जैसे मामलों के अलावा इसका इस्तेमाल सिर्फ सरकारी सब्सिडी लोगों तक पहुंचाने के लिए ही होना चाहिए। यह भी साफ करता है कि बैंक खातों, मोबाइल सिम और शिक्षा संबंधी मामलों के साथ निजी क्षेत्र में आधार का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। हालांकि उसी पीठ में न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ अपने असहमति के फैसले में आधार संबंधी विधेयक को संसद में मनी बिल के रूप में पारित किए जाने को ‘फ्राड’ (धोखा) करार देते हैं। यह इस मकसद से किया गया था कि विधेयक राज्यसभा की समीक्षा से बच जाए। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की यह टिप्पणी हमारी संसदीय प्रणाली पर तो गहरे सवाल खड़े करती ही है, एक मायने में यह आधार कानून की वैधता पर ही सवाल खड़े कर देती है। इस लिहाज से देखें तो बहुमत का फैसला आम आदमी को निर्विवाद राहत नहीं देता है। यही वजह है कि इस पर आगे भी नए सिरे से विचार की गुंजाइश बनी रह सकती है।
इसके बाद व्यभिचार से संबंधित फैसला भी ऐसे ही दोराहे पर खड़ा करता है। प्रधान न्यायाधीश की अगुआई में पांच जजों की पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को खारिज कर दिया, जो किसी वैवाहिक स्त्री के साथ किसी दूसरे पुरुष के संसर्ग को आपराधिक बनाती थी। इस दकियानूसी कानून को खारिज करने की दलील बेहद संजीदा है लेकिन उसी पीठ की न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा ने इसे खारिज करते हुए भी एक सवाल उठाया कि ऐसे संबंधों में गड़बड़ियों को क्यों नहीं आपराधिक दायरे में लाया जाना चाहिए। उनकी दलील है, “मेरी राय में जहां ऐसी गड़बड़ी में सार्वजनिक तत्व जुड़ा हो, तो वहां आपराधिक दायरे की बात जायज है।” शायद इसी दलील को विस्तार करते हुए दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल और कुछ दूसरी स्त्रीवादियों ने इससे महिलाओं की असुरक्षा बढ़ने का सवाल उठाया है। यानी इस फैसले पर भी नए सिरे से विचार की गुंजाइश बनी रह सकती है।
इसी तरह अयोध्या मामले से संबंधित एक मामले में प्रधान न्यायाधीश की अगुआई वाली पीठ ने 1994 के फैसले को पांच जजों की पीठ के सामने रखने से इनकार कर दिया और उस फैसले को एक से तरह कायम रखा कि मस्जिद इस्लाम के अनुयायिओं के लिए नमाज अता करने का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। इस मामले के कुछ बिंदुओं पर इस तीन जजों की पीठ के न्यायामूर्ति अब्दुल नजीर ने अपनी असहमति प्रकट की है। इस फैसले का एक फलितार्थ यह बताया जा रहा है कि इससे अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस स्थल की मिल्कियत वाले मामले में इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की राय जल्दी आ सकेगी। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने विवादित भूमि को तीन हिस्से में बांटने का फैसला सुनाया था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई होनी है और उसके पूरा होने और फैसला आने में अभी देर हो सकती है। कानूनी जानकारों की राय में यह किसी भी हालत में 2019 में आम चुनाव के पहले तो संभव नहीं है। फिर भी इसे राजनैतिक रूप से भुनाने की कोशिशें हो सकती हैं। इसलिए यह व्यवस्था जरूर की जानी चाहिए कि किसी राजनैतिक लाभ के लिए इसका इस्तेमाल न किया जा सके।
फिर एक अहम फैसला सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का भी है। इस मामले में भी एक न्यायमूर्ति ने अपने असहमति के फैसले में परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं के मामले में अदालती हस्तक्षेप न करने के प्रति आगाह किया है। उनकी दलील है कि ये मामले समाज को खुद तय करने चाहिए। उनकी राय का एक निहितार्थ यह भी निकाला जा सकता है कि परंपराओं और मान्यताओं के मामलों में समाजसुधारकों और राजनैतिक संवाद को आगे बढ़ना चाहिए, तभी वह समाज में व्यापक रूप से स्वीकार्य होगा। लेकिन आज हालात ऐसे हो गए हैं कि राजनीति किसी तरह की अन्यायी सामाजिक मान्यताओं पर चोट करने से बचती है और उसे न्यायालयों के हवाले कर देती है। लिहाजा, यह फैसला समाज में निर्विवाद सहमति नहीं पैदा कर पाएगा।
अंत में, सर्वोच्च अदालत के उस फैसले पर भी कुछ विचार जरूरी है जो उसने भीमा-कोरेगांव की घटना से संबंधित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के मामले में सुनाया है। देश के शीर्ष बुद्धिजीवियों की याचिका पर प्रधान न्यायाधीश की पीठ ने पुणे पुलिस की कार्रवाई पर एसआइटी बैठाने से इनकार कर दिया। हालांकि इस मामले में भी न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने असहमति का फैसला सुनाया और एसआइटी बैठाने संबंधी राय जाहिर की है।
बहरहाल, इन फैसलों के सामाजिक और राजनैतिक संदेश तो आने वाले वक्त में जाहिर होंगे, लेकिन इससे उभरे सवालों के साए भी लंबे समय तक बने रह सकते हैं। यही न्यायमूर्ति मिश्रा के आकलन में भी अहम होंगे।