रामगोपाल वर्मा की बेहतरीन फिल्मों में से एक, शायद सर्वश्रेष्ठ, 1998 में आई सत्या के एक दृश्य में गैंगस्टर की भूमिका निभा रहे युवा अभिनेता मनोज वाजपेयी मानो खुद से ही पूछते हैं, “मुंबई का किंग कौन?” और, बगैर किसी जवाब का इंतजार किए, फौरन ऐलान करते हैं, ‘भीखू म्हात्रे’ यानी वह खुद। बीस वर्षों के बाद आज उनसे अगर कोई यह पूछे कि बॉलीवुड का किंग कौन है तो बिलाशक उनका जवाब होगा, ‘कंटेंट’। ‘कंटेंट’ यानी फिल्म की कहानी या विषयवस्तु!
बॉलीवुड पिछले कुछ समय से भारी बदलाव के दौर से गुजर रहा है। इसका स्वरूप, इसकी मान्यताएं और इसका सिनेमा, कुछ भी इससे अछूता नहीं रह गया है। बड़े बजट की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर एक के बाद एक औंधे मुंह गिर रहीं हैं और हिंदी फिल्मोद्योग में दशकों से जारी ‘स्टार सिस्टम’ यानी शीर्ष के कुछ सितारों का वर्चस्व खतरे में नजर आ रहा है। भारतीय सिनेमा का इतिहास हालांकि 105 वर्ष पुराना है मगर पिछले कुछ साल में इसने जैसी करवट ली है, पहले शायद ही कभी ली हो। सिर्फ सिनेमा ही नहीं बदला है, उसके साथ-साथ दर्शक भी बदल गए हैं। आज के दर्शक ‘मिलेनियम जेनेरशन’ या नई सहस्राब्दी की पीढ़ी के हैं जिन्हें अच्छी और बुरी फिल्मों के बीच फर्क की अच्छी-ख़ासी समझ है। वे दिन बीत गए जब मनोरंजन के नाम पर परोसी जानी वाली कोई भी फिल्म उन्हें मंजूर हुआ करती थी। वह कोई और दौर था जब फार्मूला फिल्मों का बोलबाला था और सिर्फ बड़े सितारों की तूती बोलती थी। आज अगर कोई वाकई शुक्रवार का शहंशाह है तो वह है सिर्फ और सिर्फ कंटेंट। इसी बड़े बदलाव की वज़ह से आज बड़े से बड़ा निर्माता भी ‘स्टार पावर’ से अधिक अच्छी कहानियों को तरजीह देने लगा है। अगर आपने नई सहस्राब्दी में हिंदी सिनेमा में निरंतर हो रहे परिवर्तन पर पैनी नजर नहीं रखी है तो संभव है कि आप अमेरिकी लेखक वाशिंगटन इरविंग के प्रसिद्ध किरदार 'रिप वैन विंकल' की तरह महसूस करेंगे जिसे बीस वर्षों की नींद टूटने के बाद सारी दुनिया ही बदली नजर आई थी।
खान तिकड़ी का जलवा फीका
इस बदलाव का कोई एक कारण नहीं है, और न ही ये परिवर्तन रातोरात हुए हैं। लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि इक्कीसवीं सदी का हिंदी सिनेमा प्रगतिवादी है जो किसी फॉर्मूले के बंधन में बंधा नहीं रहना चाहता है। वह निरंतर नए प्रयोग कर रहा है ताकि वह अपने नए दर्शकों की अपेक्षाओं पर खरा उतर सके। हालांकि कुछ चीजें अभी भी नहीं बदली हैं। मसलन, दो दशकों से अधिक तक राज करने वाली खान तिकड़ी - आमिर, शाहरुख और सलमान - का दौर बदस्तूर जारी है। उम्र के ढलान पर होने के बावजूद इन तकरीबन 53 वर्षीय सुपरस्टारों की फिल्में अभी भी अमूमन 100 करोड़ रुपये से अधिक का व्यवसाय कर ही लेती हैं, लेकिन अब उनका एकछत्र राज छिन चुका हैं और उन्हें दीवार पर लिखी इबारत साफ नजर आ रही है।
बॉलीवुड में अब सप्ताहांत के आंकड़े ही सब कुछ बयां करते हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक इस वर्ष अब तक प्रदर्शित फिल्मों में कुल आठ ऐसी हैं जिन्होंने सौ करोड़ रुपये से अधिक का बिजनेस किया है और उनमें दो को छोड़कर किसी में कोई सुपरस्टार नहीं है। अगर इन फिल्मों में कुछ है तो वह है दिलचस्प कहानी और फिल्मकारों का कहानी कहने का ढंग। निर्देशक अमर कौशिक की स्त्री, मेघना गुलजार की राजी, लव रंजन की सोनू के टीटू की स्वीटी और अहमद खान की बागी-2 में बहुत बड़े स्टार नहीं थे लेकिन बॉक्स ऑफिस पर उनका परचम लहराया। इसके विपरीत सुपरस्टार सलमान खान की रेस-3 160 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार करने के बावजूद फ्लॉप फिल्मों में शुमार हुई। इससे पहले भी सलमान की ट्यूबलाइट टिकट खिड़की पर औंधें मुंह गिर चुकी है। बॉक्स ऑफिस के दूसरे बेताज बादशाह शाहरुख खान की भी पिछली कुछ फिल्में उम्मीद पर खरी नहीं उतरी हैं। अब उनका भविष्य उनकी आगामी फिल्म, आनंद एल. राय निर्देशित, जीरो पर टिका है।
कंटेंट की महत्ता
कंटेंट की महत्ता किसी फिल्म में कितनी है, बड़े स्टारों में इसकी समझ पिछले बीस वर्षों में सबसे पहले संभवतः आमिर खान को आई जिन्होंने लगान, दिल चाहता है और रंग दे बसंती जैसी फिल्मों को प्राथमिकता देकर फार्मूला-आधारित सिनेमा से धीरे-धीरे अपनी दूरियां बना लीं। बाद के वर्षों में अक्षय कुमार ने भी मसाला फिल्मों से तौबा किया और सशक्त कथा-पटकथा वाली एक के बाद एक कई हिट फिल्में दीं। शाहरुख ने भी पिछले कुछ वर्षों में फैन और डियर जिंदगी (2016) जैसी लीक से हटकर फिल्में कीं मगर, वे कुछ खास सफल नहीं हो पाईं। अपने समकालीन सुपरस्टारों में अकेले सलमान ही ऐसे हैं जो महज अपनी स्टारडम की बदौलत फिल्मों को हिट करने में सफल हुए हैं। पर, हालिया रेस-3 की नाकामी के बाद वे भी बजरंगी भाईजान और सुलतान जैसी विषयवस्तु की तलाश में फिर जुट गए हैं।
लेकिन क्या सितारों से अधिक कंटेंट की अहमियत बॉलीवुड को अब समझ में आई है? इसमें शक नहीं कि अच्छी कहानियों पर आधारित फिल्में हर दौर में बनती रही हैं। दरअसल भारतीय सिनेमा के इतिहास की चंद बेहतरीन फिल्में उस समय बनीं जब अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन की छवि पर आधारित विशुद्ध व्यावसायिक फिल्मों का बोलबाला था। एक ओर जहां हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा में मार-धाड़ वाली ऐक्शन फिल्मों की लोकप्रियता चरम पर थी तो दूसरी तरफ श्याम बेनेगल, गोविंद निहलाणी, सईद मिर्जा, कुंदन शाह, सई परांजपे और गौतम घोष जैसे संजीदा फिल्मकार उत्कृष्ट सिनेमा के आंदोलन को नई दिशा देने में लगे थे। लेकिन अगर चश्मेबद्दूर (1981) और अर्धसत्य (1984) जैसी अपवादों को छोड़ दिया जाए तो उनकी ज्यादातर फिल्में टिकट खिड़कियों पर असफल ही रही थीं। उनमें से अधिकतर सिर्फ महानगरों में, और वह भी सिर्फ मॉर्निंग शो में प्रदर्शित हो पाती थीं। इन्हीं फिल्मों में कुंदन शाह की जाने भी दो यारो भी शामिल थी जिसे आज ‘कल्ट’ फिल्मों की फेहरिस्त में शुमार किया जाता है। यह मूल रूप से इन फिल्मों, जिन्हें आमतौर पर आर्ट फिल्म के तौर पर जाना जाता था, की व्यावसायिक असफलता ही थी जिसने नसीरुद्दीन शाह सरीखे अभिनेता को आर्ट फिल्मों से कमर्शियल सिनेमा की ओर जाने को मजबूर किया था। ऐसी फिल्मों का निर्माण नब्बे का दशक आते-आते नगण्य हो गया था।
रोमांटिक उदारीकरण
पिछली सदी का अंतिम दशक व्यावसायिक सिनेमा में रोमांटिक म्यूजिकल फिल्मों का था। दिल (1990), हम आपके हैं कौन! (1994), दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे (1995) और कुछ-कुछ होता है (1998) जैसी फिल्मों की जबर्दस्त सफलता ने ऐक्शन फिल्मों के दौर को खत्म कर दिया। पिछली पीढ़ी के कई नायक, जिसमें सदी के महानायक अमिताभ बच्चन शामिल थे, अब चरित्र अभिनेता बन चुके थे। बॉलीवुड की बागडोर अब आमिर-शाहरुख-सलमान जैसी त्रिमूर्ति के हाथों में थी। अब जमाना आदित्य चोपड़ा और करण जौहर जैसे फिल्मकारों का था जिनकी फिल्मों में रूमानी स्विट्जरलैंड के बर्फीले पर्वत और एम्स्टर्डम के ट्यूलिप के बागों के इर्द-गिर्द घूमती एक बिंदास युवा प्रेमी जोड़े की कहानियां होती थीं। यही वह दौर था जब भारतीय सिनेमा ने एक नए ‘ओवरसीज’ टेरिटरी की खोज की। नब्बे के दशक की शुरुआत में हुए वैश्वीकरण और उदारवाद की वजह से देश में मध्यम वर्ग के लोगों की आर्थिक स्थिति में और विदेशों में एनआरआइ दर्शकों की संख्या में काफी इजाफा हुआ था। इन दोनों वजहों से हिंदी फिल्मों के व्यवसाय में देश और विदेश दोनों जगह अभूतपूर्व वृद्धि हुई। लेकिन इसका एक दूसरा अहम पहलू भी था। इसका असर यह हुआ कि अब ज्यादातर फिल्में शहरी अभिजात्य वर्ग की रुचि के अनुरूप बनने लगीं। उस दौरान शाहरुख एनआरआइ दर्शक-वर्ग के पसंदीदा नायक के रूप में उभरे और उन्हें उस फॉरेन टेरिटरी का भगवान कहा जाने लगा।
नई सदी, नई जमात
पिछली सदी के अंत होने के पूर्व ही कतिपय फिल्मकारों ने कुछ अलग करना शुरू कर दिया था जिनमें रामगोपाल वर्मा का नाम सर्वोपरि है। रोमांटिक म्यूजिकल्स के दौर में भी उन्होंने शिवा (1990) जैसी सशक्त फिल्म बनाई। 1995 में रंगीला जैसी सफल व्यावसायिक फिल्म बनाने के बावजूद वर्मा स्टार सिस्टम से परे कुछ करना चाहते थे। रंगीला के निर्माण के दौरान अभिनेता आमिर खान के साथ हुई चर्चा में सृजनात्मक मतभेद (क्रिएटिव डिफरेंसेस) के बाद अब वे उन अभिनेताओं के साथ काम करना चाहते थे जिनकी छवि किसी स्टार की न हो। उसी दौर में उन्होंने अनुराग कश्यप और सौरभ शुक्ला द्वारा लिखित सत्या नाम की फिल्म शुरू की। मुंबई के अंडरवर्ल्ड पर आधारित इस फिल्म ने तहलका मचा दिया और 'भीखू म्हात्रे' के किरदार में मनोज बाजपेयी रातोंरात स्टार बन गए। सत्या की अप्रत्याशित सफलता सिर्फ व्यावसायिक नहीं थी, बल्कि उसने अभिनेताओं और फिल्मकारों की नई जमात तैयार की, जो बॉलीवुड की घिसीपिटी फिल्मों से इतर नए प्रयोगों के लिए आतुर था। यह वह फौज थी, जो न सिर्फ अपने साथ नई कहानियां लेकर आई थी, बल्कि वह उसे अपनी तरह से कहना भी चाहती थी। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय सिनेमा का जब भी इतिहास लिखा जाएगा तो सत्या को उस फिल्म के रूप में याद किया जाएगा जिसने युवा फिल्मकारों को लीक से हटकर कुछ ऐसा करने को प्रेरित किया जिसने अगले 15-20 वर्षों में फिल्म निर्माण की दशा और दिशा तय की। यह पिछली सदी की शायद आखिरी महत्वपूर्ण फिल्म थी, जिसने नई सदी में भारतीय सिनेमा को प्रभावित किया।
नए मिलेनियम के आते-आते अब साफ होने लगा था कि फिल्मकारों की युवा पीढ़ी कुछ नया करने को तैयार है। 2001 में प्रदर्शित आशुतोष गोवारिकर की लगान और फरहान अख्तर की दिल चाहता है, करण जौहर और आदित्य चोपड़ा की फैक्टरियों में तैयार शक्कर की चासनी से सराबोर चलचित्रों से बिलकुल अलग थी। जहां लगान की कहानी अंग्रेजी राज में किसानों के शोषण के विरुद्ध संघर्ष पर केंद्रित थी, तो दिल चाहता है तीन समकालीन युवाओं की जिंदगियों और उनके रिश्तों के उतार-चढ़ाव को दर्शाती थी। दोनों अलग-अलग कालखंडों की कहानियां थीं जिन्हें नए दर्शकों ने बहुत पसंद किया।
नई परिभाषा
हिंदी सिनेमा को तब तक कला और व्यावसायिक अथवा अच्छे या बुरे में परिभाषित किया जाता था, मगर अब उसे एक नए तरीके से परिभाषित किया जाने लगा। अब सिनेमा को मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन थिएटर के परिपेक्ष्य में देखा जाने लगा। यह समझा जाने लगा कि इन दोनों के दर्शकों का वर्ग अलग-अलग है। महानगरों में शिक्षित उच्च और मध्यम वर्गों को आमतौर पर मल्टीप्लेक्सों का दर्शकवर्ग समझा जाने लगा जबकि छोटे शहरों के दर्शकों को सिंगल थिएटर का। इन थिएटरों के टिकट दर में भी जमीन-आसमान का फर्क था। जहां मल्टीप्लेक्स की टिकट दर अमूमन दो सौ से तीन सौ रुपये होती थी, छोटे शहरों में दर्शक अभी भी 30-40 रुपये में एक फिल्म देख सकते थे। यह स्पष्ट था कि निर्माता अब मल्टीप्लेक्स की ओर मुखातिब थे, क्योंकि उनकी फिल्मों का बेहतर व्यवसाय वहीं होने लगा। नए सिनेमा का स्वरूप अब वैसा ही होने लगा जैसा मल्टीप्लेक्स के व्यवसाय के लिए श्रेयस्कर था। महानगरीय दर्शकों की रुचि के अनुसार फिल्में बनने लगीं। गांव और उसके खेत-खलिहान चित्रपट से विलुप्त होने लगे और किसान-मजदूर जैसे किरदार नगण्य हो गए। यहां तक कि पेड़ों के इर्द-गिर्द गीत गाने वाले युवा प्रेमी जोड़े भी, जो अभी तक हिंदी सिनेमा के जीवंत प्रतीक और पर्याय थे, अब यदाकदा ही देखे जाने लगे।
नतीजा यह हुआ कि सिंगल स्क्रीन थिएटर बॉलीवुड की नई मुख्यधारा से अलग हो गए और उन्हें अपने वजूद के लिए भोजपुरी या दूसरी आंचलिक भाषाओँ की फिल्मों का सहारा लेना पड़ा। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भोजपुरी फिल्मों के मल्टीप्लेक्सों के युग में हुए पुनर्जन्म का मूल कारण यही था। गदर (2001) शायद अंतिम फिल्म है जिसे मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन में सामान रूप से पसंद किया गया। सनी देओल की यह फिल्म और आमिर खान की लगान एक ही दिन प्रदर्शित हुई थी और गदर ने लगान की तुलना में कई गुना अधिक बिजनेस किया, लेकिन अब जमाना लगान जैसी फिल्मों का था। नए दर्शकों को सनी से ज्यादा आमिर की फिल्में पसंद आने लगीं, क्योंकि उनकी कहानियों में कुछ नयापन था जो उनके बदलते मिजाज के मुताबिक था।
मल्टीप्लेक्स मंत्र की विडंबना
इसमें दो राय नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में निरंतर बदलते कंटेंट की एक प्रमुख वजह मल्टीप्लेक्सों का प्रादुर्भाव रहा है। लेकिन यह भी एक विडंबना है कि इनके प्रचलन ने समाज के एक बहुत बड़े तबके, खासकर निम्न और निम्न-मध्यम वर्गों के दर्शकों को थिएटर में जाने से वंचित कर दिया। अब थिएटर में जाकर सिनेमा देखने से अधिक टेलीविजन और गैर-कानूनी ढंग से डाउनलोड की गईं पायरेटेड मूवीज उनके मनोरंजन का मुख्य जरिया बन गईं। मल्टीप्लेक्सों के आगमन ने ही भारतीय सिनेमा के ‘कॉर्पोरेटाइजेशन’ को जन्म दिया। इस दौर में यशराज फिल्म्स, विशेष फिल्म्स और धर्मा प्रोडक्शंस जैसे कुछ पुराने बैनरों ने अपने आपको वक्त की मांग के अनुसार ढाल लिया पर कई ऐसे निर्माता-निर्देशक जिनका पिछले दशक में बोलबाला था, अब दौड़ से बाहर हो चुके थे। हिंदी सिनेमा के इसी बदलते दौर में हॉलीवुड के कुछ प्रसिद्ध स्टूडियो जैसे डिज्नी प्रोडक्शंस और वार्नर ब्रदर्स ने निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा। मगर, बड़े बजट की कुछ फिल्मों जैसे चांदनी चौक टु चाइना, मोहनजोदारो, फितूर, जग्गा जासूस और फैंटम के फ्लॉप होने से उन्होंने हिंदी फिल्मों का निर्माण बंद कर दिया।
मेट्रो से कस्बे का सफर
नई सदी के पहले दशक के मध्य तक दर्शक फिल्मों में दिखाए जा रहे स्विट्जरलैंड की वादियों से ऊबने लगे और उन्हें आम जिंदगी से जुड़ी फिल्में ज्यादा पसंद आने लगीं। नतीजा यह हुआ कि अब यह फिल्में न सिर्फ छोटे शहरों और कस्बों में शूट होने लगीं बल्कि उनके नाम भी वैसे ही रखे जाने लगे। अब फिल्मों के नाम लव इन टोक्यो या नाइट इन लंदन की जगह अनारकली ऑफ आरा या फिर बरेली की बर्फी होने लगे। निर्माता-निर्देशक अब छोटे कस्बों में कहानियां ढूंढ़ने लगे। हाल में प्रदर्शित मनमर्जियां जैसी फिल्म में तो ऐसी एक बोल्ड महिला नायिका का किरदार दिखाया गया जिसे अपने घर में परिवारवालों के रहते अपने बॉयफ्रेंड को बेरोकटोक बुलाकर सेक्स करने से गुरेज न था। लेकिन बॉलीवुड के नए दर्शक को अब इस तरह के किरदारों से कोई परहेज न था। फिल्मकार अब किसी भी तरह के प्रयोग करने में झिझक नहीं कर रहे थे। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि पिछले दो दशकों में छोटे शहरों, खासकर उत्तर भारत, से जितने प्रतिभावान फिल्मकारों और अभिनेताओं की खेप मुंबई मायानगरी में पहुंची, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। इनमें अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, आनंद एल. राय, तिग्मांशु धूलिया, इम्तियाज अली, नीरज पांडेय जैसे निर्देशक और इरफान, मनोज वाजपेयी, राजकुमार राव, संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी जैसे लोग थे, जिन्होंने छोटे शहरों की कहानियों और किरदारों पर केंद्रित फिल्मों के निर्माण का अनवरत सिलसिला शुरू किया। परिणाम यह कि जहां एक ओर सलमान की दबंग जैसी फिल्में बन रहीं थी, तो दूसरी ओर खोसला का घोसला (2006), देव डी (2009), लव सेक्स और धोखा (2010), उड़ान (2010), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), आंखों देखी (2014), मसान (2015) और न्यूटन (2017) जैसी असली जिंदगी से जुड़ी कहानियों ने हिंदी सिनेमा में एक नए जीवन का संचार किया। इनमें से कई फिल्मकारों ने आगे जाकर अपने बैनर की स्थापना कर कई सफल फिल्में बनाईं।
नया वैश्वीकरण और स्त्री शक्ति
इस सदी के दूसरे दशक के आते-आते भारतीय सिनेमा का पूर्ण रूप से वैश्वीकरण हो गया था और भारत हॉलीवुड फिल्मों के एक बहुत बड़े बाजार के रूप में उभर चुका था। इसी दौर में प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण जैसी अभिनेत्रियों ने अमेरिकी सिनेमा और टेलीविजन इंडस्ट्री में अपनी पैठ बना ली थी। यह दौर महिलाओं पर केंद्रित सिनेमा की सफलता का भी था। मल्लिका शेरावत की मर्डर (2004), विद्या बालन की द डर्टी पिक्चर (2011) और तुम्हारी सुलू (2017) से कंगना रनौत की क्वीन (2014) और काजोल की नवीनतम रिलीज, हेलीकाप्टर इला तक अनेक महिला-प्रधान फिल्मों ने दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसी साल, आलिया भट्ट की राजी और श्रद्धा कपूर की स्त्री ने 100 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार करके इस मिथक को तोड़ा कि महिला-प्रधान फिल्में टिकट खिड़की पर कुछ खास धमाल नहीं मचाती हैं। यह दौर कंगना रनौत, राधिका आप्टे, ऋचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, कल्कि कोचलिन, कोंकणा सेन गुप्ता सरीखी अभिनेत्रियों का था, जिन्होंने कई फिल्मों में सशक्त अभिनय की बदौलत बॉलीवुड की ग्लैमर डॉल वाली हीरोइन की छवि से अलग अपना खास मुकाम बनाया।
सितारों की दबिश
यह भी एक विडंबना थी कि इसी दौर में कुछ बड़े स्टारों ने सिनेमा के व्यवसाय पर अपनी गिरफ्त मजबूत कर ली। आमिर, सलमान सरीखे सितारे अब पारिश्रमिक के नाम पर फिल्मों के मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा मांगने लगे। अब हर बड़ा स्टार अपनी फिल्मों का सह-निर्माता बनने लगा। यह लाजिमी भी था क्योंकि आमिर जैसे सितारे न सिर्फ दर्शक को थिएटर में लाने की क्षमता रखते थे बल्कि साल-दो साल में सिर्फ एक फिल्म ही किया करते थे। दूसरी ओर अक्षय कुमार सरीखे स्टार हर वर्ष तीन से चार फिल्में करने लगे, जिनमें उनके सह-कलाकार वही होते थे जिनके पास अक्षय से मैच करते हुए डेट्स उपलब्ध हों। अब किसी स्वतंत्र निर्माता के लिए यह असंभव हो गया की वह किसी बड़े सितारे को अपनी फिल्म के लिए साइन कर सके। हर बड़ा सुपरस्टार अब खुद ही वन-मैन आर्मी हो गया। हालांकि उनकी हाल की कुछ फिल्मों की विफलता ने अब यह आश्वस्त कर दिया है कि अब वह सिर्फ अपने स्टार पावर पर निर्भर नहीं रह सकते हैं। इन सब के बीच छोटी फिल्मों के निर्माण का प्रचलन भी बढ़ा। मनीष मुंदड़ा ने दृश्यम फिल्म्स की स्थापना कर कम बजट की कई बेहतरीन फिल्में बनाईं। अब यह वाकई बेमानी हो गया कि फिल्मों का बजट क्या है। न्यूटन जैसी छोटी फिल्में भी हिट होने लगीं और बड़े सितारों की फन्ने खान जैसी फिल्में भी सुपरफ्लॉप।
इस नए युग में, खासकर पिछले दो-तीन वर्षों में, कंटेंट परिवर्तन की एक बड़ी वजह भारतीय दर्शकों की विश्व के बेहतरीन सिनेमा तक पहुंच भी रही है। डिजिटल दौर में अब वे न सिर्फ हॉलीवुड की, बल्कि दुनिया के हर कोने की सर्वश्रेष्ठ फिल्में देखने लगे हैं, चाहे वे ईरान की हों या कोरिया की। नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम वीडियो और हॉटस्टार जैसे ओवर-दि-टॉप प्लेटफॉर्मों ने इसे और भी सुलभ करा दिया। दर्शकों की बढ़ती जागरूकता का असर यह भी हुआ कि अब निर्माता-निर्देशक भी कंटेंट को लेकर ज्यादा चौकस हो गए। गुजरे जमाने में इक्के-दुक्के ही ऐसी फिल्में बननी शुरू होती थीं जिनकी स्क्रिप्ट पूरी तरह तैयार होती थी, पर आज शायद ही कोई फिल्म बगैर पूरी स्क्रिप्ट तैयार हुए फ्लोर पर जाती है। यही बॉलीवुड में आए बदलाव की पूरी कहानी को बयां करती है।
(लेखक इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ फिल्म क्रिटिक के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजे गए हैं)