“कला मनुष्य के शुक्लपक्ष की अभिव्यक्ति है: उसकी आशा, आस्था, प्रेम, सौंदर्य, प्रार्थना...उसके सपने और आकांक्षाएं...”
-आंद्रेई तारकोवस्की
सिनेमा कला, साहित्य, समाज और विज्ञान का खूबसूरत संगम है। दुनिया भर में समाज बड़े बदलाव से गुजर रहा है, खासतौर से हमारा भारतीय समाज, जो महिलाओं के अधिकार और उनके बारे में हमेशा मौन साधे रहा है। हमारे देश में यह छुपा तथ्य नहीं है कि हमारे यहां लड़कों के प्रति अतिरिक्त अनुराग रहता है। हम बेटियों के मुकाबले बेटों को ज्यादा तवज्जो देते हैं। समाज व्यवस्था का असर सिनेमा में भी साफ देखा जा सकता है। भारतीय समाज पितृसत्तात्मक है, सो, बॉलीवुड भी है। कुछेक फिल्मों को छोड़कर महिलाओं को शायद ही कोई निर्णय लेने की भूमिका दी जाती है। उन्हें या तो प्रदर्शन की वस्तुओं के रूप में रखा जाता है या फिर उन्हें बलिदान के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है। हालांकि पिछले एक दशक में तकनीक के आने के साथ हमारा समाज खुल रहा है और कामकाजी मध्यम वर्ग में जागरूकता बढ़ी है। फिल्मों में बदलते रुझान हमारे समाज में होने वाले बदलावों को दर्शाते हैं। हाल ही में बनाई गई भारतीय फिल्मों की झलक इस तथ्य की पुष्टि करती है।
बॉलीवुड 1950 के दशक में औपनिवेशिक मानसिकता की बनावटी विनम्रता या पाखंड से लेकर आज के दशक की अधिक व्यावहारिक और भरोसे से लबरेज वैश्विक स्त्री को दर्शाता है जहां औरत सिर्फ सजावट की वस्तु या गर्व का पर्याय नहीं, बल्कि कामकाजी भी है। सेक्स अब वर्जित विषय नहीं रहा। हमारे पास मर्डर, ख्वाहिश और लव सेक्स और धोखा जैसी फिल्में हैं। दिल चाहता है, जिंदगी न मिलेगी दोबारा में आत्मविश्वासी, मस्त और मुस्कराते रहने वाले, आज के दौर के भारतीय युवा की आवाज है तो ब्लैक, कॉरपोरेट, लगे रहो मुन्ना भाई और ब्लैक फ्राइडे जैसी फिल्में बताती हैं कि बॉलीवुड भी जटिल मुद्दों को डील करना जानता है। लक्ष्य और रंग दे बसंती परिपक्व होते भारतीय युवा की कहानी कहती है जो देश की खातिर मरने को भी तैयार है। लिहाजा, कहा जा सकता है कि फिल्म दर्शकों के लिए सिर्फ देखने का आनंद नहीं है बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था की हकीकत भी बयां करती है।
सोशल मीडिया के आने से पूरी दुनिया के लोग एक-दूसरे से जुड़ा महसूस करते हैं। इस माध्यम ने कई मायनों में बेजुबान लोगों को आवाज दी है। वर्तमान समय में #मीटू आंदोलन ने भारत की महिलाओं को एकजुट कर दिया है। यह महज एक उदाहरण है कि कैसे समाज बदल रहा है। कुछ साल पहले लोगों ने ऐसा सोचा भी नहीं होगा। मेरी मां से बात करते हुए मुझे अहसास हुआ कि सत्तर के दशक में पढ़ाई करने वाली महिलाओं के लिए यह परिवर्तन कितना बड़ा है। आज महिलाएं स्वावलंबी हो रही हैं और कई बड़ी जगहों पर नौकरियां कर रही हैं। हमारे माता-पिता के पूर्वाग्रह भी दूर हो रहे हैं। महिलाओं को वित्तीय रूप से स्वतंत्र करने के लिए कई केंद्र हैं। मेरी मां के विपरीत जिन्होंने पढ़ाई तो की मगर, काम के लिए घर से बाहर नहीं निकलीं। वह परिवार की देखभाल करने और बच्चों की परवरिश में ही खुश थीं।
लेकिन, आज महिलाएं हर चीज चाहती हैं जिसका एक व्यक्ति जन्म से हकदार है। और इसी बदलाव ने सीधे-सीधे हमारी फिल्मों को प्रभावित किया है। क्वीन एक युवा लड़की के जीवन को दिखाती है जो लड़के के शादी से इनकार कर देने के बाद दब-छुप कर रहने से इनकार कर देती है। वह अकेले हनीमून पर जाने की योजना बनाती है और यह यात्रा उसका जीवन बदल देती है। तनु वेड्स मनु में उत्तर प्रदेश और बिहार की आज के दौर की विद्रोही लड़की का गजब का चित्रण है। अब हम महिला केंद्रित फिल्म बना रहे हैं, क्योंकि वे उस समाज का प्रतिनिधित्व कर रही हैं जिसमें हम रह रहे हैं। तुम्हारी सुलु एक गृिहणी की यात्रा है जो उच्च शिक्षित नहीं है फिर भी कुछ बनने के सपने देखती है। मेरा कहने का मतलब है कि एक गृहिणी फिल्म की कहानी को आगे बढ़ा रही है। बॉलीवुड की पितृसत्तात्मक मानसिकता में यह बड़ा बदलाव है, जो धीरे-धीरे मुख्यधारा सिनेमा का हिस्सा बन रहा है। यह बहुत आह्लादकारी अनुभव है।
बॉलीवुड की सामग्री हर साल और अधिक विविध और दिलचस्प हो गई है। निर्देशक नीरज घायवन की फिल्म मसान छोटे शहरों में बदल रहे भारत का बेहतरीन उदाहरण हैं। हमने लड़कियों की दोस्ती पर फिल्में बनाईं और वास्तव में इन फिल्मों ने भी बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन किया। एंग्री इंडियन गॉडेस जैसी फिल्म में हमने समाज के कई स्तर देखे हैं। इसी तरह वीरे दी वेडिंग में लड़कियों के बीच गहरी दोस्ती और सहयोग को देखा, जो महिलाओं को लड़ने में मदद करती है। हम वास्तव में कुछ चालाक महिला किरदारों को दिखाने से भी नहीं शर्माते जिनकी महत्वाकांक्षाएं बहुत ऊंची हैं। जो सेक्स के लिए पुरुषों को उकसाती हैं या कई बार उन पर झूठा आरोप भी लगा देती हैं। एेतराज इसका सबसे अच्छा उदाहरण है कि कैसे एक ओर एक महत्वाकांक्षी महिला एक विवाहित पुरुष का पीछा कर रही है और दूसरी ओर पुरुष की पत्नी अपने पति की ईमानदारी के लिए लड़ रही है। चक दे इंडिया में हम देश के लिए पदक लाने वाली महत्वाकांक्षी महिला हॉकी खिलाड़ियों के समूह को देखते हैं और बीए पास में ऐसी स्त्री को देखते हैं जो अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए शादी से बाहर रिश्ता बनाती है। मेरी फिल्म रिबन में मैंने एक कामकाजी स्त्री की चुनौतियों को दिखाया है, जिसे मां बनने के बाद अपनी व्यावसायिक जिंदगी में संतुलन साधना ही पड़ता है। इस प्रक्रिया में कई कमियां हैं और अभी हमें लंबा सफर तय करना है, जहां हम कई और फिल्में बनाने में सक्षम होंगे, जो महिलाओं के जीवन का जश्न मनाएंगी।
हमारे सिनेमा में मजबूत महिला पात्रों के उदय होने के बारे में इतनी सारी बातें कहने के बाद, अंत में यह कि समाज मनुष्य को अपने सभी गुणों और घटकों के साथ प्रस्तुत करता है। संभव है यह किसी गंभीर को बाहर लाने के लिए किसी बिंदु को छोड़ देता हो या इसके उलट हो।
लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह पुरुष के अलावा कुछ भी पेश नहीं करता। व्यावसायिक सिनेमा इसे निर्लिप्त भाव से या यूं ही करता है, समानांतर सिनेमा जबरदस्त तरीके से और शुद्ध कला फिल्में जुनून के साथ यह करती हैं। परिवर्तन स्वागत योग्य और उत्साहजनक है लेकिन फिर भी कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकता कि बहुत दूर की मंजिल के लिए ये केवल छोटे कदम हैं। तब तक मैं जो कर सकती हूं करूं और आगे चलते रहने की उम्मीद करूं। हम नहीं जानते कि भविष्य ने हमारे लिए कल क्या रखा हुआ है।
(लेखिका फिल्मकार हैं, पिछले साल उनकी स्त्री-केंद्रित फिल्म रिबन को खूब सराहा गया)