आपको सत्तर और अस्सी के दशक की वे हिंदी फिल्में याद हैं, जिनमें नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, गिरीश कर्नाड, शबाना आजमी और स्मिता पाटिल जैसे कलाकार होते थे और जिन्हें मेनस्ट्रीम फिल्मों के दर्शक ‘आर्ट फिल्में’ कहकर खारिज कर देते थे, मानो ‘आर्ट’ कोई बेमानी शब्द हो? ये उस दौर की समांतर फिल्में थीं, जो ज्यादातर ‘नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया‘ की मदद से बनती थीं। आज उनमें कई फिल्मों को हिंदी सिनेमा की धरोहर माना जाता है। आजकल के फिल्मकार उन फिल्मों को उतनी ही इज्जत देते हैं, जितनी कोई धार्मिक व्यक्ति अपने पौराणिक आख्यानों को देता है। आज के दौर की इंडी या इंडिपेंडेंट फिल्मों के बीज दरअसल उसी दौर में बोए गए थे।
पारंपरिक अर्थों में इंडिपेंडेंट फिल्म का मतलब है, ऐसी फिल्म जिसे स्टूडियो सिस्टम से अलग रहकर प्रोड्यूस और डिस्ट्रीब्यूट किया गया हो, पर सही मायने में इंडिपेंडेंट फिल्म वह होती है, जो बस इंडिपेंडेंट हो, आजाद ख्याल हो, कुछ नया कहती हो, नए ढंग से कहानी कहती हो और हकीकत के करीब हो।
एक तरफ जहां इंडस्ट्री की हर दूसरी फिल्म बड़े स्टार और बड़े कैनवास पर 'मैग्नमओपस' बनने के चक्कर में बचकानी बनकर रह जाती है, वहीं दूसरी ओर इंडिपेंडेंट फिल्में अपनी खूबसूरत कहानियों और सच्चे किरदारों के कारण बड़ी बनती हैं और हां, इनका बजट अक्सर काफी कम होता है।
भारत में इंडिपेंडेंट फिल्मों का दौर शुरू हुआ नब्बे के दशक में। तब तक समांतर सिनेमा अपनी धार खोने लगा था। सूरज बड़जात्या, आदित्य चोपड़ा और करण जौहर जैसे मेनस्ट्रीम फिल्मकारों का बोलबाला हो गया था, जो एनआरआइ दर्शकों के लिए मेलोड्रामेटिक फिल्में बनाने में व्यस्त थे और जिनकी फिल्मों के किरदारों के लिए सिर्फ प्यार, शादी, करवाचौथ, सिंदूर और कंगन ही सब कुछ थे। दूसरी ओर सुधीर मिश्रा, शेखर कपूर और रामगोपाल वर्मा जैसे फिल्मकार भी थे, जो कुछ अलग ही कर रहे थे। सुधीर मिश्रा ने अपने कॅरिअर की शुरुआत में जब जाने भी दो यारो, खामोश और मोहन जोशी हाजिर हो जैसी समांतर फिल्में बनाईं। इसके बाद वे धारावी और इस रात की सुबह नहीं जैसी फिल्में बनाकर चर्चा में आए। शेखर कपूर और रामगोपाल वर्मा ने क्रमशः मिस्टर इंडिया और रंगीला जैसी कामयाब मेनस्ट्रीम फिल्में बनाने के बाद इंडिपेंडेंट फिल्मों का रुख किया और बैंडिट क्वीन तथा सत्या बनाकर सभी को हैरान कर दिया। हिंदी फिल्म के दर्शकों ने पहले कभी हकीकत के इतने करीब नजर आने वाली फिल्में नहीं देखी थीं।
फिर आए नागेश कुकनूर, जो सही मायनों में भारत के पहले इंडिपेंडेंट फिल्मकार हैं। 1998 में सत्या रिलीज होने के दो सप्ताह बाद उनकी पहली फिल्म हैदराबाद ब्लूज रिलीज हुई। यह बारह साल तक अमेरिका में रहकर लौटे एक मध्यमवर्गीय हैदराबादी लड़के की कहानी थी, जिसे भारत लौटने पर यहां की जीवनशैली के साथ सामंजस्य बिठाने में मुश्किल होती है। नागेश कुकनूर ने अमेरिका में इंजीनियरिंग की नौकरी करके जो सत्रह लाख रुपये बचाए थे, यह फिल्म उन्होंने उसी पैसे से बनाई। ऐक्टिंग करने के लिए उन्होंने अपने दोस्तों को कास्ट किया और मुख्य किरदार के लिए जब कोई नहीं मिला, तो वह रोल खुद कर लिया। इससे पहले न तो उन्होंने कभी ऐक्टिंग की थी और न ही उनके दोस्तों ने। हैदराबाद ब्लूज अपनी कहानी और उसे कहने के अंदाज में नएपन के कारण चर्चा में आई।
हैदराबाद, बेंगलूरू और मुंबई के कुछ सिनेमाघरों में तो यह फिल्म छह महीने तक चली। इसके बाद उन्होंने रॉकफोर्ड, बॉलीवुड कॉलिंग, तीन दीवारें, इकबाल और डोर जैसी कई इंडिपेंडेंट फिल्में बनाईं और यह सिलसिला अब भी जारी है। उनकी पिछली फिल्म धनक 2016 में रिलीज हुई थी, जिसे बेस्ट चिल्ड्रेन फिल्म का नेशनल अवॉर्ड मिला था। धनक ने बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में भी अवॉर्ड जीता था।
इसी बीच दिबाकर बनर्जी, विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप आए, जिन्हें मौजूदा दौर के सबसे अच्छे फिल्मकारों में गिना जाता है और जिनकी फिल्मों ने मेनस्ट्रीम और इंडिपेंडेंट फिल्मों के बीच की लकीर को धुंधला करने का काम किया है।
अब कई नए फिल्मकार आ गए हैं, जो अलग-अलग तरह की इंडिपेंडेंट फिल्में बना रहे हैं। पिछले कुछ साल में भारत में कई बेहतरीन इंडिपेंडेंट फिल्में बनी हैं, जैसे डायरेक्टर ओनिर की आइ एम, वसन बाला की पेडलर्स, कमल के.एम. की आई.डी. रितेश बत्रा की द लंचबॉक्स, केनी देओरी की लोकल कुंग फू, गीतू मोहनदास की लायर्स डाइस, आनंद गांधी की शिप ऑफ थीसियस प्रशांत नायर की उमरीका, कौशिक मुखर्जी की गांडू और ब्राह्मण नमन, मिलिंद धाईमाडे की तू है मेरा संडे, बिकास रंजन की चौरंगा, नीरज घायवन की मसान, श्लोक शर्मा की हरामखोर और जू, रोहित मित्तल की ऑटोहेड, रीमादास की विलेज रॉकस्टार, कोंकणा सेन शर्मा की अ डेथ इन द गंज, कनु बहल की तितली, शुभाशीष भूटियानी की मुक्ति भवन, देवाशीष मखीजा की अज्जी, पुलकित की मैरून, रजत कपूर की आंखों देखी‘ और अमित वी. मासुरकर की सुलेमानी कीड़ा और न्यूटन।
पिछले साल आई न्यूटन हालिया समय की सबसे चर्चित इंडिपेंडेंट फिल्मों में से एक है। ये एक ऐसे युवा सरकारी क्लर्क की कहानी है, जिसे चुनाव के दौरान नक्सल प्रभावित इलाके के एक पोलिंग बूथ में मुख्य ड्यूटी ऑफिसर के तौर पर वोटिंग कराने को भेजा जाता है। न्यूटन को न सिर्फ दर्शकों ने खूब पसंद किया, बल्कि इसने बर्लिन और हांगकांग फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड्स भी जीते। इसे भारत की ऑफिशियल एंट्री के तौर पर एकेडमी अवॉर्ड्स में भी भेजा गया।
न्यूटन के डायरेक्टर अमित वी. मासुरकर ने इससे पहले 2014 में बेहद कम बजट वाली स्लैकर-कॉमेडी सुलेमानी कीड़ा बनाई थी। इसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में खूब पसंद किया गया। पल्प फिक्शन और रिजवॉयर डॉग्स जैसी मशहूर हॉलीवुड फिल्में लिखने वाले एकेडमी अवॉर्ड विजेता रॉजर ऐवरी ने ’इंडियन फिल्म फेस्टिवल ऑफ लॉस एंजिल्स’ में इसे देखा था। उन्हें यह इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसकी टीम को ई-मेल किया, “सुलेमानी कीड़ा ने हॉलीवुड में मेरे शुरुआती दिनों की यादें ताजा कर दीं, जब मैं और डायरेक्टर क्वेन्टिन टैरेन्टीनो फिल्में बनाने के लिए भागदौड़ कर रहे थे। ये सचमुच कमाल की फिल्म है, जो दिखाती है कि महत्वाकांक्षाएं पूरी करने की मूर्खता में दोस्ती के मायने कैसे बदल जाते हैं।”
अस्सी के दशक में आई चश्मेबद्दूर और जाने भी दो यारो की परंपरा वाली सुलेमानी कीड़ा मुंबई में फिल्म पटकथा लेखक बनने की जद्दोजहद में लगे दो युवा दोस्तों की कहानी है। इसमें अकेलापन है, प्यार है, झगड़े हैं, खाली जेबें हैं, जाने-अनजाने में की गई बेवकूफियां हैं और साथ ही हैं, हिंदी फिल्म प्रोड्यूसरों का झक्कीपन, मुगालते में रहने वाली उनकी औलादें और सेंसर बोर्ड के दोगले अधिकारी। यह भी एक इंडिपेंडेंट फिल्म है, जो सिर्फ आठ लाख रुपये (इतने में हमारे बड़े स्टारों के कॉस्ट्यूम तक नहीं बनते) के बजट में फिल्माई गई थी। हालात ये थे कि शूटिंग के बाद पोस्ट-प्रोडक्शन के लिए पैसे ही नहीं बचे। आखिरकार किसी तरह फिल्म पूरी हुई और पीवीआर ने इसे ‘डायरेक्टर्स रेयर‘ के तहत छह शहरों में रिलीज किया।
अधिकतर इंडिपेंडेंट फिल्में इसी तरह बनती हैं। बजट कम होता है और मुश्किलें ज्यादा। एक बार अगर फिल्म बन भी जाए, तो उसे रिलीज करना आसान नहीं होता। ऊपर से अगर रिलीज के दिन किसी बड़े स्टार की कोई बड़ी फिल्म भी रिलीज हो रही हो, तो इंडिपेंडेंट फिल्म को सिनेमाघरों में ज्यादा स्क्रीन नहीं मिलती, क्योंकि बड़ी फिल्मों के प्रोड्यूसर अपने डिस्ट्रिब्यूटरों और सिनेमाघर मालिकों पर दबाव बनाकर ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन अपनी फिल्म के लिए सुरक्षित कर लेते हैं। आखिर उन्हें सौ करोड़ रुपये का आंकड़ा जो पार करना होता है और जैसा कि हमें बार-बार बताया जाता है, सारा बिजनेस पहले तीन दिन का ही है।
हालांकि, धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं। एक तरफ जहां नेटफ्लिक्स, अमेजॉन प्राइम और ऐसी ही अन्य स्ट्रीमिंग वेबसाइट के कारण इंडिपेंडेंट फिल्मों को रिलीज करने के नए रास्ते खुल रहे हैं, वहीं इंटरनेट क्राउडफंडिग जैसे नए तरीकों से फिल्म की प्रोडक्शन-कॉस्ट जुटाना भी संभव हो गया है। आसान शब्दों में समझें तो क्राउडफंडिग का मतलब है चंदा जुटाना। जहां आम लोग, जो उस फिल्ममेकर को पसंद करते हैं, छोटी-छोटी राशि देकर एक बड़ी रकम जुटाने में उसकी मदद करते हैं, ताकि वह अपनी फिल्म बना सके। कोई छोटी फिल्म बनाने में भी लाखों रुपये खर्च होते हैं, इसलिए क्राउडफंडिग फिल्मकारों के लिए बहुत काम की चीज है।
भारत में क्राउडफंडिग का विचार नया नहीं है। इस तरीके से फिल्म बनाने की शुरुआत 1976 में ही हो गई थी, जब श्याम बेनेगल ने करीब पांच लाख किसानों से दस लाख रुपये जुटाकर मंथन बनाई थी। यह फिल्म अमूल के संस्थापक और भारत में स्वेत क्रांति के जनक वर्गीस कुरियन के सहकारी आंदोलन से प्रेरित थी। इसे बेस्ट हिंदी फीचर फिल्म का नेशनल अवॉर्ड भी मिला था। इसके बाद 2010 में डायरेक्टर ओनिर ने अपनी फिल्म आइ एम के लिए इंटरनेट क्राउडफंडिग की मदद ली और एक करोड़ रुपये जुटाए। 2014 में रिलीज हुई इंडिपेंडेंट फिल्म आंखों देखी के डायरेक्टर रजत कपूर भी अपनी अगली फिल्म आरके के लिए क्राउडफंडिंग से ही पैसे जुटा रहे हैं। इसके लिए वे गोक्राउडेरा डॉट कॉम वेबसाइट पर कैंपेन चला रहे हैं।
गोक्राउडेरा के अलावा विशबेरी, किकस्टार्टर और इंडीगोगो जैसी अन्य वेबसाइट भी हैं, जिनकी मदद से अपने प्रोजेक्ट के लिए क्राउडफंडिंग की कोशिश की जा सकती है। यह सुविधा देने के बदले ये वेबसाइट्स फीस के रूप में एक निश्चित रकम और कुल जितना फंड जुटता है, उसका कुछ प्रतिशत हिस्सा लेती हैं।
इससे न सिर्फ इंडिपेंडेंट फिल्मकारों का काम आसान हो रहा है, बल्कि ऐसे लेखकों के लिए भी नए मौके पैदा हो रहे हैं, जिन्हें मेनस्ट्रीम सिनेमा के अतिवाद और चकाचौंध से चिढ़ होती है। नए ऐक्टर और टेक्नीशियन के पास भी अचानक काम बढ़ गया है।
धीरे-धीरे इंडिपेंडेंट फिल्मकारों की एक नई खेप इंडस्ट्री में अपनी जगह बना रही है। उनका सिनेमा न सिर्फ आजाद ख्याल है, बल्कि अपनी श्रेणी के पिछले फिल्मकारों से कहीं ज्यादा पैना भी है। उनकी फिल्मों में नक्सली आतंक की सच्चाई दिखाने वाली राजनैतिक समझ भी है और अंधेरे बेडरूम के कोनों में चुपचाप हो रही हरकतें दिखाने का साहस भी। रॉकस्टार बनने और गिटार बजाने का सपना देखने वाले गांव के बच्चों की मासूमियत भी है और अपनी पहचान ढूंढ़ते और उसी से बार-बार लड़ते शहरी युवाओं की त्रासद जिंदगी भी। यह सचमुच इंडिपेंडेंट फिल्मों का नया दौर है और सबसे अच्छी बात यह है कि दर्शक भी इन्हें पसंद कर रहे हैं। हमारे सिनेमा के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है।
(लेखक टीवी और फिल्मों से जुड़े हैं और पटकथा लेखक हैं )