एमआरपी पर डिस्काउंट यूं तो सभी को लुभाता है। लेकिन क्या आपको पता है कि इस डिस्काउंट के बावजूद चूना आपको ही लगता है। मसलन, क्या आप जानते हैं कि 10 रुपये के ब्रांडेड चिप्स के पैकेट (26 ग्राम) की लागत केवल एक रुपये बयालीस पैसे होती है। इसमें जीएसटी, सीऐंडएफ (केयरिंग ऐंड फॉरवर्डिंग), होल सेलर और रिटेलर मार्जिन मिलाकर कुल खर्च पांच रुपये हो जाता है। लेकिन कंपनी इसे 10 रुपये में बेचती है। यानी कंपनी को शुद्ध पांच रुपये की बचत होती है। इसी तरह 350 रुपये के 50 किलो सीमेंट के बैग की लागत 180 रुपये है। इसमें जीएसटी, सीऐंडएफ, होल सेलर और रिटेलर मार्जिन मिलाकर कीमत 250 रुपये पड़ती है, लेकिन कंपनी उसे 350 रुपये में बेचकर 100 रुपये प्रति बैग का मुनाफा कमाती है। अगर कंपनी इस पर 30-40 फीसदी डिस्काउंट भी देती है, तब भी उसे 60 से 70 रुपये का फायदा होता है। यानी डिस्काउंट के बावजूद उपभोक्ताओं को बड़ा चूना लग रहा है।
उपभोक्ताओं के साथ एमआरपी पर हो रही डिस्काउंट की लुका-छिपी का खेल जानने के लिए आउटलुक के संवाददाता ने कंपनियों, शॉपिंग मॉल्स, डीलरों और रिटेलरों से बिल्डिंग मटीरियल, ऑटोमोबाइल पार्ट्स, ग्रॉसरी, डेयरी, बेकरी, एफएमसीजी, ब्यूटी प्रोडक्ट्स, दवाइयां और गारमेंट जैसी रोजमर्रा की 215 वस्तुओं के एमआरपी और उस पर डिस्काउंट की पड़ताल की।
इस दौरान 32 दिनों की खरीदारी में सेल्स काउंटर से बिल और ई-मेल से रेट एस्टीमेट जुटाए गए। फिर विज्ञापनों में दिए गए एमआरपी और उस पर डिस्काउंट में पाया गया कि बिल्डिंग मटीरियल और ऑटोमोबाइल स्पेयर पार्ट पर एमआरपी में छुपे डिस्काउंट का खेल सबसे ज्यादा है। वहीं, ग्रॉसरी, डेयरी-बेकरी, एफएमसीजी और ब्यूटी प्रोडक्ट्स से लेकर मेडिसिन, गारमेंट और रोजमर्रा की ऐसी सैंकड़ों चीजें हैं, जिनके एमआरपी पर ओपन कंपिटीशन के नाम पर 100 फीसदी (एक पेड के साथ एक फ्री) तक डिस्काउंट हैं।
इस पर भी मैन्युफैक्चर कंपनियां और रिटेलर कितना कमा रहे हैं? इसे छुपाने का अधिकार सरकार ने दिया है, क्योंकि मैन्युफैक्चरर द्वारा तय एमआरपी पर कोई रेगुलेटरी चेक नहीं है। बिल्डिंग मटीरियल और ऑटो पार्ट्स के एमआरपी पर छुपे 70 फीसदी डिस्काउंट से सिस्टम भ्रष्ट हुआ है। प्रोजेक्ट के लिए दिए जाने वाले कोटेशन में एमआरपी पर 30-40 फीसदी डिस्काउंट के बाद बचा डिस्काउंट कई बार बिल पास करने वालों की जेब में जाता है। इसलिए कंपनियां एमआरपी बढ़ाकर लिखती हैं। एसोसिएशन ऑफ इंडिया के सीईओ रिटेलर्स कुमार राजगोपालन कहते हैं कि कुछ रिटेल में पैक्ड बिल्डिंग मटीरियल और ऑटो पार्ट्स के अलावा और भी कई चीजें हैं, जिनके एमआरपी और डिस्काउंट रेट में भारी अंतर छिपा है। इसमें उपभोक्ता ठगा जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि यह मसला कभी सामने नहीं आया। 12 साल पहले केरल की कंज्यूमर संस्था नेशनल फाउंडेशन फॉर कंज्यूमर अवेयरनेस ऐंड स्टडीज ने केरल हाइकोर्ट में एमआरपी का मसला उठाया था। केरल हाइकोर्ट के आदेश पर डिपार्टमेंट ऑफ कंज्यूमर्स अफेयर्स द्वारा बनाई गई एम गोविंदा राव एक्सपर्ट कमेटी से एमआरपी के साथ एफपीपी (फर्स्ट प्वाइंट प्राइस, जो स्टॉकिस्ट से मैन्युफैक्चरर्स लेते हैं) लिखे जाने की सिफारिश की गई थी। इस सिफारिश कमेटी में केरल की इस संस्था सहित 11 संगठन और एक्सपर्ट थे। सिफारिश यह कहकर खारिज कर दी गई कि एफपीपी से कंज्यूमर भ्रमित होगा, इसलिए एमआरपी ही सही है। इसे सरकार ने मान लिया।
यहां एमआरपी से भी महंगा
बस अड्डे, रेलवे स्टेशन, हिल स्टेशन, ढाबों और मल्टीप्लेक्स में पानी की बोतल, कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स, बिस्किट और पैक्ड स्नैक्स वगैरह अक्सर एमआरपी से महंगे बिकते हैं। जब एमआरपी से ज्यादा वसूली का दोषी पाए जाने पर पहली बार पांच हजार से 20 हजार रुपये जुर्माना, दूसरी बार में 20 हजार से एक लाख रुपये और तीसरी बार दोषी पाए जाने पर जुर्माने के साथ एक साल की कैद भी हो सकती है।
खाद्य एवं उपभोक्ता मामले मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक नए लीगल मेट्रोलॉजी अधिनियम 2017 के तहत कोई एक ही वस्तु पर अलग-अलग एमआरपी लगाता है, तो मैन्युफैक्चरर और रिटेलर के खिलाफ सजा का प्रावधान किया गया है। इसके खिलाफ कुछ कंपनियां कोर्ट में चली गईं, लेकिन कोर्ट ने भी कहा है कि एक ही वस्तु का अलग-अलग एमआरपी तय करना कानूनन अवैध है। एमआरपी में छूट विक्रेता के हाथ में है।
एमआरपी केवल भारत और श्रीलंका में
दुनिया में सिर्फ भारत और श्रीलंका में एमआरपी सिस्टम लागू है। 1990 से भारत में एमआरपी कंज्यूमर्स का शोषण रोकने के नाम पर लागू किया गया। यह केवल पैक्ड आइटम्स पर ही लागू है। खुले बिकने वाले जरूरी फूड आइटम्स जैसे दाल, चीनी, चावल, साबुत मसाले, सब्जियां और फलों पर यह लागू नहीं है। खुले बिकने वाले इन 22 जरूरी फूड आइटम्स पर ही कंज्यूमर्स अफेयर्स मिनिस्ट्री का प्राइस मॉनिटरिंग सेल नियंत्रण रखने का दावा करता है। इसके बावजूद इनके दाम बेलगाम हैं।
अन्य देशों में
पड़ोसी देश पाकिस्तान में केवल कुछ वस्तुओं पर ही एमआरपी सेल्स टैक्स कानून की जरूरत के मुताबिक, मैन्युफैक्चरर्स के लिए लिखना जरूरी है। मलेशिया में जरूरी खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर सरकार का सीधा नियंत्रण है, इसलिए वहां एमआरपी डिक्लेयर करना जरूरी नहीं है। कनाडा में एमआरपी से हेर-फेर करने वालों पर कंपिटिशन ब्यूरो के भारी जुर्माने का प्रावधान है।
बगैर बिल की खरीद पर डिस्काउंट ज्यादा
लगभग 13 फीसदी की दर से बढ़ते सालाना 41 लाख करोड़ के रिटेल कारोबार में डिस्काउंट के खेल में कंज्यूमर्स के साथ सरकार को भी टैक्स का चूना लग रहा है। बिना बिल के खरीद पर डिस्काउंट पांच से 10 फीसदी तक ज्यादा दिया जा रहा है। एमआरपी का डिस्काउंट का खेल किस तरह मार्केट में कंपिटिशन बढ़ा सकता है? जब एमआरपी पर 70-80 फीसदी तक बार्गेनिंग की गुंजाइश होगी, तो इससे कंपिटिशन बढ़ेगा या मार्केट अस्थिर हो जाएगी?
एमआरपी पर डिस्काउंट डिस्प्ले हो
एमआरपी के मसले पर एसोसिएशन ऑफ इंडिया के सीईओ कुमार राजगोपालन से बातचीत के अंशः
कंज्यूमर धोखाधड़ी से बच सकें, इसलिए एमआरपी सिस्टम लागू हुआ, लेकिन एमआरपी में छुपे डिस्काउंट से कंज्यूमर ठगे जा रहे हैं?
तय कीमत से अधिक कीमत न ली जाए, इसलिए पैक्ड आइटम पर एमआरपी लागू है। सेल प्रमोशन के लिए डिस्काउंट मैन्युफैक्चरर्स और रिटेलर्स की सहमति से है। ओपन मार्केट में डिस्काउंट की सीमा नहीं है।
बिल्डिंग मटीरियल और ऑटो पार्ट के एमआरपी पर 70 फीसदी तक छुपा डिस्काउंट है, ऐसे एमआरपी सिस्टम का क्या फायदा जिसमें ठगी हो रही है?
मानता हूं। रिटेल में पैक्ड बिल्डिंग मटीरियल और ऑटो पार्ट के अलावा और भी ऐसी बहुत-सी चीजें हैं, जिनके एमआरपी और डिस्काउंटेड रेट में भारी अंतर छुपा है। इसमें कंज्यूमर ठगा जा रहा है। आरएआइ अपने मेंबर्स में मसला उठाएगी कि एमआरपी पर छुपा डिस्काउंट नहीं होना चाहिए।
एमआरपी पर छुपे डिस्काउंट के बजाय असल कीमत लागू होनी चाहिए?
सालाना छह सौ अरब डॉलर की इंडियन रिटेल मार्केट में 80 फीसदी असंगठित है। एमआरपी में सबसे ज्यादा ठगी असंगठित रिटेल सेक्टर में है, जहां बिलिंग कल्चर जीएसटी लागू होने के बाद भी विकसित नहीं हो पाया है।