पूर्व आइपीएस अधिकारी आमोद कंठ सीबीआइ में बतौर डीआइजी इन्वेस्टिगेशन एसआइटी और एंटी करप्शन काम कर चुके हैं। सीबीआइ में रहते उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या, जैन-हवाला डायरी केस जैसे हाई-प्रोफाइल मामलों की जांच की थी। देश की शीर्ष जांच एजेंसी के हालिया विवाद पर अजीत झा से उनकी बातचीत के अंशः
-सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना के बीच विवाद की क्या वजहें हैं?
सीबीआइ का अपना एक खास कैरेक्टर है। जांच अधिकारी को इन्वेस्टीगेशन की पूरी आजादी होती है। उसमें कोई दखल नहीं होता। लेकिन, यह भी सच है कि सीबीआइ में ‘विच हंटिंग’ की पुरानी परंपरा रही है। कौन-सा मामला कितना महत्वपूर्ण है, किस मामले की जांच कौन करेगा, यह तय करना सीबीआइ डायरेक्टर का अधिकार है। लेकिन, जब ये फैसले कोई और करने लगे तो चीजें बिगड़ेंगी ही। एजेंसी में दो पावर सेंटर बनने से शुरू हुआ विवाद एक-दूसरे पर हमला करने में बदल गया। यह सीबीआइ में एक ‘नए कल्चर’ की शुरुआत है। पहले डायरेक्टर के पास इतनी ताकत होती थी कि वह सारी चीजों को कंट्रोल करता था। अब उसकी पोजीशन काफी कमजोर हो चुकी है। चीजों को प्रभावित करने के लिए ‘आर्म ट्वीस्टिंग’ हो रही है।
-नया कल्चर राजनीतिक दखलंदाजी के कारण है या फिर आइपीएस अधिकारियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई से उपजा है?
काफी हद तक यह आइपीएस अधिकारियों के अहं के टकराव का भी मामला है। पद और पॉलिटिकल गेन हासिल करने की आइपीएस अधिकारियों की चाहत इसका एक कारण है। इससे बाहरी दखलंदाजी बढ़ती है और एजेंसी की निष्पक्षता प्रभावित होती है। आज नौकरशाही का सीबीआइ पर काफी कंट्रोल है। हस्तक्षेप ज्यादातर शीर्ष स्तर से ही होता है और दबाव केवल सीबीआइ के डायरेक्टर पर ही नहीं होता, उसके मातहतों पर भी होता है। अलग-अलग स्तरों पर दबाव से एजेंसी निष्पक्ष नहीं रह पाती। हर कोई अपने-अपने हितों के हिसाब से फैसले करने लगता है, जैसा मौजूदा मामले में दिखता है। जांच एजेंसी में अस्थाना की नियुक्ति कैसे हुई? नियुक्ति में तय सिस्टम का पालन होना चाहिए। प्रक्रिया का पूरी तरह पालन नहीं होने पर समस्या खड़ी होगी ही।
-आपके कहने का मतलब है कि अस्थाना को स्पेशल डायरेक्टर बनाने से चीजें बिगड़ी?
स्पेशल डायरेक्टर पद का सवाल नहीं है। नब्बे के दशक में जब मैं जांच एजेंसी में था तब भी एसके दत्ता स्पेशल डायरेक्टर होते थे। दो अधिकारियों के मतभेद का हल इंटरनल मामला होना चाहिए था। सीबीआइ डायरेक्टर के पास पूरी अथॉरिटी होनी चाहिए। दूसरा पावर सेंटर क्रिएट करना गलत है।
-क्या हाल के विवाद से सीबीआइ की साख गिरी है?
भ्रष्टाचार के मामलों की जांच से सीबीआइ की साख को हमेशा से नुकसान पहुंचा है, जबकि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की पड़ताल के लिए ही यह बनाई गई थी। जब-जब करप्शन का मामला जांच के लिए आता है, राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत तेजी से सीबीआइ को तंग करता है। इसका कारण यह है कि लूट पब्लिक फंड की होती है और उसमें नेता तथा अधिकारी शामिल होते हैं।
-सीबीआइ की साख कैसे बहाल होगी?
सीबीआइ की स्वायत्ता को सबने नुकसान पहुंचाया है। अदालत, नेता, ब्यूरोक्रेट हों या फिर कोई और एजेंसी, सबने उसकी स्वतंत्रता को प्रभावित किया है। सीबीआइ डायरेक्टर की नियुक्ति की जो प्रक्रिया अदालत ने तय कर रखी है, आज उस पर भी विवाद है। इससे सीवीसी का इंफ्लूएंस बढ़ता है। शीर्ष पद के लिए एक बार किसी का चयन होने के बाद उसे काम करने की पूरी आजादी होनी चाहिए। डायरेक्टर की निगरानी फिलहाल नेता और ब्यूरोक्रेसी करती है। इसकी जगह न्यूट्रल बॉडी होनी चाहिए।