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स्वायत्त संस्थाएं और लोकतंत्र

स्वायत्त संस्‍थाएं लोकतंत्र की नींव की तरह हैं। उन पर चोट लोकतंत्र पर चोट कहलाएगी। बेहतर यही होगा कि उन्हें राजनैतिक दखलंदाजी से दूर रखा जाए
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ आरबीआइ गवर्नर उर्जित पटेल

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका और स्वायत्त संस्थाओं को मजबूत स्तंभ की तरह देखा जाता है। ताकतवर राजनैतिक सत्ता-प्रतिष्ठान के जिद भरे फैसलों और आम आदमी के अधिकारों के बीच ये संस्थाएं संतुलन कायम करती हैं। आजाद भारत में अधिकांश समय इन संस्थाओं की स्वायत्तता और स्वतंत्रता बरकरार रही और उनमें आम लोगों का भरोसा भी बढ़ता रहा है। लेकिन इमरजेंसी जैसे दौर भी आए जब संस्थाओं की स्वायत्तता से लेकर तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों पर चोट की गई। दरअसल, संस्थाएं स्वायत्त बनी रहें, इसकी एक हद तक जिम्मेदारी इन संस्थाओं को भी उठानी पड़ती है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता और यही वजह है कि यह मसला इस समय सबसे अधिक चर्चा में है।  

इस सिलसिले में सबसे ताजा मसला भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के बीच तनातनी का है। हाल में रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने यह कहकर चौंका दिया कि सरकार को रिजर्व बैंक की स्वायत्तता से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए, वरना इसके नतीजे आर्थिक बदहाली और बाजार में प्रतिकूल असर के रूप में दिख सकते हैं। जाहिर है, सरकारें चुनावी फायदे के लिए बैंक के नीतिगत फैसलों पर दबाव बनाने की कोशिश करती हैं लेकिन बैंक को अर्थव्यवस्था के मध्यावधि लक्ष्यों के आधार पर फैसले लेने होते हैं। यहां मुद्दा उद्योग को अधिक कर्ज देने की छूट का है। रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने भी बयान दिया कि सार्वजनिक बैंकों के नियमन के लिए बैंक के अधिकार नाकाफी हैं।

इसके साथ ही पेमेंट रेग्युलेशन के लिए एक अलग नियामक बनाने की सरकार की कोशिशों को भी बैंक ने अपने अधिकारों पर आघात माना। सरकार द्वारा बैंक के निदेशक मंडल में कुछ नई नियुक्तियां भी इस तकरार की वजह बनी हैं। इसमें दो राय नहीं कि सरकार और रिजर्व बैंक के बीच झगड़ा काफी बढ़ गया है और सार्वजनिक भी हो चुका है। इससे सांस्थानिक स्वायत्तता के मुद्दे पर चर्चा को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि रिजर्व बैंक ने सरकार के नोटबंदी के फैसले पर चुप्पी क्यों साधे रखी थी, जो अर्थव्यवस्था को पिछले कई दशकों का सबसे बड़ा झटका साबित हुआ?

स्वायत्तता का दूसरा बड़ा मसला देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) को लेकर खड़ा हुआ है। गठन के कुछ बरसों बाद से ही राजनैतिक दुरुपयोग के आरोप झेल रही सीबीआइ को 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘पिंजरे में बंद तोता’ तक कह दिया था। लेकिन हाल के दिनों में जो हुआ और जिस तरह मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है, वह इस एजेंसी की साख को गिराने के लिए काफी है। उसके दो शीर्ष अधिकारियों का एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाना और उनको छुट्टी पर भेजे जाने का घटनाक्रम पूरे देश को स्तब्ध कर गया। लेकिन सीबीआइ का ताजा प्रकरण कहीं अत्यधिक सरकारी दबाव का मामला तो नहीं है? कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। लेकिन सीधे प्रधानमंत्री के तहत काम करने वाली एजेंसी में हालात ऐसे बिगड़ जाएं, तो इससे उनकी प्रशासकीय क्षमता पर भी सवाल खड़े होते हैं।

देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अहम चुनाव आयोग के सामने भी अपनी स्वायत्त छवि बचाने की चुनौती है। जिस तरह से हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों और गुजरात के विधानसभा चुनावों के बीच अंतर रखा गया और गुजरात चुनावों में देरी के लिए जो कारण बताए गए थे, वे लोगों के गले नहीं उतरे थे। कई बार तो सत्ताधारी पार्टी के नेता चुनाव तारीखों का ऐलान आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले ही करते पाए गए हैं। नवंबर, दिसंबर में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस के समय में बदलाव को भी प्रधानमंत्री की राजस्थान रैली से जोड़कर देखा गया।

संस्थाओं के कमजोर होने की स्थिति में सबसे अधिक भरोसा न्यायपालिका में रहता है। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने इस तरह के मुद्दे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन राजनैतिक दल अपने दायित्व निभाने के बजाय अपने छोटे राजनैतिक हितों को ऊपर रख रहे हैं। लंबे समय के बाद सुप्रीम कोर्ट का सबरीमला मामले में फैसला आया, उसको लेकर कुछ राजनैतिक दल और खासकर भाजपा तथा उसके बड़े नेताओं का जो रवैया रहा है, उसे सही नहीं ठहराया जा सकता है। इसी तरह जब सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या जमीन विवाद के मसले की सुनवाई को जनवरी तक टालने का आदेश सुनाया तो उसको लेकर राजनैतिक दलों की प्रतिक्रिया बहुत सामान्य नहीं थी। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और संस्थाओं की स्वायत्तता को बरकरार रखने में राजनैतिक दलों की भी अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही है।

वैसे भी सरकार अपने अंतिम साल में है। अगर हम यूपीए सरकार के भी आखिरी दो साल देखें तो स्वायत्त संस्थाएं ज्यादा मुखर हुई थीं। लेकिन बेहतर होगा कि संस्थाओं की स्वायत्तता बरकरार रहे, क्योंकि  संस्थाओं की स्वायत्तता और स्वतंत्रता से ही लोकतंत्र मजबूत होता है।

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