भारत में टेलीकॉम सर्विसेज बढ़ती तो जा रही हैं लेकिन कस्टमर के हितों की अनदेखी लगातार हो रही है। चाहे कॉल ड्रॉप का मामला हो, अनचाही कॉल यानी पेस्की कॉल या फिर स्लो इंटरनेट स्पीड इन सब पर कस्टमर लाचार है। उसकी सुनवाई न के बराबर है। कस्टमर के लिए यह तो संभव नहीं है कि वह 100, 200, 500 रुपये का रिचार्ज कराकर जब सर्विस बेहतर नहीं मिल पाए तो कोर्ट का दरवाजा खटखटाए। ये तो सरकार और रेग्युलेटर की जिम्मेदारी है कि वह ऐसा सिस्टम तैयार करें कि कंपनियां कस्टमर के हितों की अनदेखी नहीं करने पाएं।
कॉल ड्रॉप की बात लीजिए, भारत में पिछले कई वर्षों से कोशिश हो रही है कि कॉल ड्रॉप को खत्म किया जाए। मौजूदा केंद्र सरकार भी पिछले तीन साल से कह रही है कि कॉल ड्रॉप की प्रॉब्लम खत्म की जाएगी लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है। हम दुनिया के डेवलप मार्केट का मॉडल क्यों नहीं अपनाते हैं। उन जगहों पर कस्टमर को क्रेडिट की सुविधा मिलती है। ऐसा टेक्नोलॉजी के जरिए संभव है। भारतीय टेलीकॉम कंपनियों के पास टेक्नोलॉजी है, लेकिन फिर भी भारतीय टेलीकॉम कस्टमर को ये सुविधा नहीं मिल रही है। सीधे तौर पर उनके हितों की अनदेखी हो रही है। ट्राई ने इस मामले में कंसल्टेशन पेपर भी निकाला इसके बावजूद क्रेडिट की सुविधा नहीं मिल पाई।
मुझे समझ में नहीं आता है कि जब यूरोपीय संघ, कोरिया, अमेरिका जैसे देशों में कस्टमर का कॉल ड्रॉप होता है तो उसे एक्स्ट्रा मिनट मिल जाता है। ऐसे में भारतीय कस्टमर ने क्या गुनाह किया है। मुझे तो यह भी समझ में नहीं आता है कि कंपनियों की गलती की सजा कस्टमर क्यों भुगत रहा है। अगर कंपनियां अच्छी सर्विस देने में सक्षम नहीं हैं तो उन्हें लाइसेंस लेने की क्या जरूरत थी। कंपनियों का तर्क होता है कि उन्हें टॉवर लगाने की जगह नहीं मिल रही है। भला ये कोई जवाब है, ये बात तो उन्हें लाइसेंस लेने से पहले से पता है कि उन्हें इस तरह की चुनौतियों का सामना टेलीकॉम बिजनेस में करना होगा। उस वक्त तो कंपनियों को लाइसेंस मिल जाता है और जब सर्विस देने की बात आती है, तो वे बहाने बनाती हैं। दरअसल, ये कंपनियों की लापरवाही है। आपने पहले तो बिजनेस करने के लिए लाइसेंस लिया उसके बाद कंज्यूमर को सिम कार्ड भी बेच दिया और उन्हें अपना कस्टमर बना लिया और मोबाइल फोन भी बेच दिए। सब कुछ हो गया अब कहते हैं कि कनेक्टिविटी नहीं है। ये क्या बात हुई!
कंपनियां जानबूझकर इसे नहीं सुधार रही हैं, क्योंकि कॉल ड्रॉप उनके लिए कमाई का एक जरिया बन गया है। जब भी आप की कॉल ड्रॉप होगी तो आपको दोबारा फोन करना पड़ेगा। ऐसे में इसका फायदा कंपनियों को मिलेगा। ट्राई ने कस्टमर की शिकायतों के लिए कंज्यूमर एक्शन ग्रुप बनाया हुआ है। वह भी उचित रूप से कार्रवाई नहीं कर रहा है। पता नहीं उसे किसका डर है। सीधे तौर पर दिखता है कि सरकार और रेग्युलेटर ट्राई सही से जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं, जिसका खामियाजा कस्टमर को उठाना पड़ता है।
यही बात इंटरनेट स्पीड पर भी लागू होती है। कंपनियां कस्टमर को कहती हैं कि वह एक फिक्स अधिकतम इंटरनेट स्पीड कस्टमर को देंगी। लेकिन वह मिलती नहीं है जो पूरी तरह से कस्टमर के हितों के खिलाफ है। कस्टमर से कंपनियां तो इसी स्पीड के दावे के साथ पैसा लेती हैं, लेकिन उसे वैसी स्पीड अबाध रुप से नहीं मिलती है। अब कस्टमर क्या करें, तरीके से तो रेग्युलेटर को कंपनियों पर जुर्माना लगाना चाहिए, पर ऐसा बहुत कम होता है। ऐसा सिस्टम होना चाहिए, जिससे कंपनियां अगर कोई गलती करें तो उन्हें उसका खामियाजा भुगतना पड़े।
ऐसे ही एक प्रमुख समस्या टेलीकॉम कस्टमर के सामने अनचाही कॉल यानी पेस्की कॉल की है, जिसमें कस्टमर को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। इससे बचने के लिए ट्राई ने ‘डू नॉट डिस्टर्ब’ की सुविधा शुरू की है। लेकिन वह भी ठीक से काम नहीं कर रही है। लोगों द्वारा ‘डू नॉट डिस्टर्ब’ में रजिस्टर कराने के बावजूद टेलीमार्केटिंग कंपनियों की कॉल आती है। इस बात से करीब-करीब हर उपभोक्ता परेशान है। कस्टमर को अनचाही कॉल से तब तक मुक्ति नहीं मिलेगी, जब तक ट्राई काफी सख्त रुख नहीं अपनाएगा। अगर विदेश की बात करें, वहां तो नियमों की अनदेखी करने पर कंपनियों का लाइसेंस तक जब्त हो जाता है। सारी समस्या रेग्युलेटर के लेवल पर है, उसे काम करने की आजादी नहीं मिल रही है। उसके ऊपर गैर जरूरी दबाव बनाया जाता है, जिसकी वजह से रेग्युलेटर निष्पक्ष रूप से काम नहीं कर पाता है। सीधे तौर पर पॉलिसी के मामलों में हस्तक्षेप किया जाता है, जिसकी वजह से कस्टमर के हितों की अनदेखी हो रही है।
(लेखक कंज्यूमर ऑनलाइन फाउंडेशन के संस्थापक हैं)