डीएनए किसी भी वनस्पति, वायरस, बैक्टीरिया के साथ ही सभी जीवधारियों के जीवन का मूल सारतत्व होता है। इससे जुड़े अनुसंधान ने बायोटेक्नोलॉजी के क्षेत्र में क्रांति ला दी है। आज बायोटेक्नोलॉजी उद्योग 400 अरब डॉलर का हो चुका है। लेकिन अफसोस की बात है कि इसमें भारत की हिस्सेदारी महज दो फीसदी है। इसे 2025 तक 13 फीसदी तक ले जाने की योजना है। इसके लिए न केवल कंपनियों और सरकारों को अनुसंधान व्यय बढ़ाना होगा, बल्कि तेज दिमाग वाली कुशल मानव शक्ति की भी जरूरत होगी।
डीएनए (डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिइक एसिड) की विस्मयजनक बात यह है कि यह एक निर्जीव रासायनिक अणु है, लेकिन जीवन की समस्त क्रियाओं के लिए जरूरी है। अगर डीएनए की खोज की बात करें, तो यह बहुत प्राचीन नहीं है। इसकी शुरुआती परिकल्पना सबसे पहले 1868 में स्विट्जरलैंड के डॉक्टर और जीववैज्ञानिक जोहानीज फ्रेड्रिक मीशा ने की थी। 1944 में ओसवाल्ड एव्री ने न्यूमोनिया के लिए जिम्मेदार न्यूमोकोकल बैक्टीरिया में प्रायोगिक रूप से यह सिद्ध कर दिखाया कि डीएनए ही वह अणु है, जो अनुवंशिक गुणों को आगे की संततियों में पहुंचाता है। 1953 में एक नई क्रांतिकारी उपलब्धि हासिल हुई, जब अमेरिकी अनुवांशिकीविद और अणु जीवविज्ञानी जेम्स वाटसन और ब्रिटिश न्यूरोसाइंटिस्ट तथा अणु जीवविज्ञानी फ्रांसिस क्रिक ने डीएनए की संरचना उद्घाटित की, जिसे उन्होंने आपस में दोहरी कुंडली की तरह लिपटे धागे जैसा बताया।
वैज्ञानिक मानते हैं कि डीएनए के अस्तित्व में आने के बाद से पृथ्वी पर जीवन के विकासक्रम में तेजी आई। मानव के संदर्भ में तो डीएनए और भी रुचिकर विषय है। हर व्यक्ति का व्यवहार, शक्ल-सूरत, कद-काठी, क्षमताएं, जीवन प्रत्याशा, स्वास्थ्य आदि इन्हीं डीएनए पर निर्भर है। मानव के शरीर में करीब 37 खरब कोशिकाएं होती हैं, जो शरीर की समस्त प्रक्रियाओं को आजीवन संचालित करती रहती हैं। ये निरंतर मरती रहती हैं और नई बनती रहती हैं। पर नई कोशिकाएं भी वही काम करती रहती हैं, जो मर चुकी कोशिकाएं करती आई थीं। इन कोशिकाओं के केंद्र (न्यूक्लियस) में ही डीएनए अवस्थित रहता है। यह बात सूक्ष्म जीवों, पशुओं और पेड़-पौधों के लिए भी उतना ही सच है, जितना मानव के लिए। यह कहना गलत न होगा कि जीवन की कुंजी डीएनए में है। बिना इसके जीव अपनी पुनरुत्पत्ति नहीं कर सकता।
जीवन को जिस रूप में हम देखते हैं, वह डीएनए के बिना संभव नहीं है। पृथ्वी पर किसी किस्म के जीवन का अस्तित्व ही न होता, अगर प्राकृतिक परिस्थितियों के विकास क्रम में कोई 400 करोड़ साल पहले पहला डीएनए अस्तित्व में न आया होता। पर, उससे भी पहले आरएनए (राइबो न्यूक्लिइक एसिड) पृथ्वी पर बन चुका था। अगर आरएनए न बना होता तो डीएनए भी नहीं बनता। गहन जिज्ञासा का विषय यह कि इस पृथ्वी पर जीवों का अस्तित्व संभव बनाने के लिए आवश्यक ये न्यूक्लिइक एसिड आखिर पृथ्वी पर ही क्यों बने। वे क्यों बने और कैसे बने?
अमेरिकी अनुवंशिकीविद एन.एच. होरोवित्ज ने मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश के लिए परीक्षण का एक ब्लूप्रिंट बनाया था। उनकी यह अवधारणा भी मशहूर हुई कि जीवन के विकास के लिए तीन अनिवार्य शर्तें हैं: पहली, अपने आप की ठीक हूबहू प्रतिलिपि बनाने की क्षमता होना। दूसरी शर्त यह है कि अपने इर्द-गिर्द परिस्थितियों को इस तरह प्रभावित करने की क्षमता होना, जिससे कि अपने जीवन के लिए जरूरी सामग्री निरंतर मिलती रहे और तीसरी शर्त है कि नई परिस्थितियों के अनुरूप अपने आप में परिवर्तन लाने की क्षमता होना। इन्हीं से जीवन के विकास की प्रक्रिया चलती है।
भारत में भी नए प्रयोग
हाल में, लखनऊ के एक स्कूल के 550 बच्चों ने केले से डीएनए निकालने का सफल प्रयोग किया। डीएनए निकालने की किट कोयंबटूर स्थित ‘इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट जेनेटिक्स ऐंड ट्री ब्रीडिंग’ की वैज्ञानिक डॉ. मधुमिता दासगुप्ता ने राधा वलुताककल के साथ मिलकर विकसित की। 2008 में अनुसंधान पूरा होने पर 2009 में इसे पेटेंट कराया गया।