आज हमारे सामने कौन-सी चुनौतियां हैं? और क्या इन चुनौतियों का कोई इतिहास है? क्या देश, समाज की चुनौतियां ऐतिहासिक होती हैं?
स्वाधीनता आंदोलन का संघर्ष कुछ स्वप्नों को यथार्थ में बदलने का संघर्ष था-और यथार्थ को बदलने का। उनमें प्रमुख थी राजनैतिक पराधीनता। स्वाधीनता आंदोलन केवल राजनैतिक आंदोलन नहीं था। इस आंदोलन का हर छोटा-बड़ा नेता और कार्यकर्ता सुधारवादी या क्रांतिकारी भी था। क्योंकि जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ता गया यह स्पष्ट होता गया कि सांस्कृतिक आंदोलन के बगैर राजनीतिक लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता। इस बात को सबसे ज्यादा गांधी जी महसूस करते थे कि जीवन-आचार और सोच को बदले वगैर स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। अहिंसा सांस्कृतिक आचार है। वह जीवन-भर में व्याप्त है। अहिंसा शब्द मात्र नहीं, वह दर्शन और कर्म दोनों है।
गांधी जी की अगुआई में हमने स्वतंत्रता प्राप्त की। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया में ही राजनैतिक दलों के लोगों ने गांधी जी के विचार को त्याग दिया। उसे आदर्शवादी या अव्यावहारिक समझ लिया, यद्यपि ऐसा घोषित नहीं किया। इसके बाद गांधी-साहित्य, गीता-भागवत हो गया और गांधी जी प्रेरणा-पुरुष अवतार या हमारे वैचारिक-सांस्कृतिक पताका-उत्सव-पुरुष हो गए।
हमने संविधान बनाया। संविधान में गांधी जी भुला तो नहीं दिए गए। उनका असर थोड़ा-बहुत संविधान पर जरूर है-विशेषतः निर्देशक सिद्धातों पर। हमारे संविधान की रचना अपने आप में महान ऐतिहासिक आश्चर्य है। यह आश्चर्य स्वाधीनता आंदोलन और गांधी के बगैर नहीं घटित हो सकता था। मनुस्मृति को मानने वाले देश की रचना आंबेडकर-दलित चिंतक और आंदोलनकारी के नेतृत्व में हुई। इतनी लंबी यात्रा में सिर्फ आधुनिक विचारों का ही योगदान नहीं-वास्तविक योगदान महान भक्ति आंदोलन का है जो मूलतः वर्ण व्यवस्था और सामंतवादी व्यवस्था के विरुद्ध ऐसा आंदोलन था जो धार्मिक रूप से ही सक्रिय हो सकता था।
संविधान ने स्वातंत्र्योत्तर भारत की चुनौतियां प्रस्तुत कीं। प्रत्येक भारतीय को मताधिकार, जांत-पांत- वर्ण-लिंग में अभेद, आर्थिक-सामाजिक विषमता से मुक्ति, शिक्षा-रोजगार पर अधिकार, शराबबंदी आदि। इसके साथ-साथ पंचवर्षीय योजनाओं का कार्यान्वयन। भारतीय भाषाओं सहित हिंदी का विकास, सुदूर स्थलों के वनजीवी, कृषिजीवी आदिवासी जन-जातियों का विकास, उनका संरक्षण। इस दिशा में नेहरू-युग ने काम करना शुरू किया। अंतिम दिनों में नेहरू से किसी विदेशी पत्रकार ने पूछा-आपके प्रधानमंत्रित्व काल की उपलब्धि क्या है? नेहरू ने थोड़ा सोच कर जवाब दिया-नारी शिक्षा, जो आदमी स्वतंत्रता के पहले पैदा हुआ है वह पराधीन भारत और आज के भारत की तुलना करके आश्चर्यचकित, स्तब्ध रह जाता है। दुनिया बदल गई है।
स्वाधीन भारत की प्रमुख उल्लेखनीय उपलब्धियां-दलित चेतना और नारी चेतना का प्रसार-विस्तार है। यह काम पूरा नहीं हुआ है। बहुत कम हो पाया है। बहुत अधिक होने को है। हिंदी क्षेत्र के सबसे बड़े प्रदेश-उत्तर प्रदेश की दलित नेता मायावती का अपने देल के बलबूते पर मुख्यमंत्री बनना ऐतिहासिक था। आज दलित चेतना की ही नहीं, दलित शक्ति की बात की जाती है। सभी राजनीतिक दल लगभग स्पर्धा करते हैं कि उनके यहां दलित कितनी संख्या में हैं। यह चेतना नगरों से ज्यादा गांवों में व्याप्त हुई है। राजनैतिक कारणों-चुनावों के कारण अब गांवों में सत्यनारायण कथा की तर्ज पर या उसकी जगह अांबेडकर कथा होने लगी है। दलितों के पुरोहित पंडे हो गए हैं। कहीं-कहीं पंडित जी ही आंबेडकर कथा कह कर दक्षिणा वसूल लेते हैं। अब दलित पर अत्याचार अनदेखा नहीं रह जाता, उसका तीव्र विरोध होता है। दलितों की बारात में दूल्हा घोड़ी पर बैठकर चले इसका आग्रह होता है, पुलिस आती है। ठाकुर विरोध करते हैं लेकिन अंत में हारकर दलित का घोड़ी पर बैठना स्वीकार कर लेते हैं।
आप ध्यान न दें, लेकिन यह महान परिवर्तन है। यह भक्ति आंदोलन, गांधी, आंबेडकर, लोहिया के नायकत्व, वामपंथ का सम्मिलित प्रभाव है कि इतना बड़ा परिवर्तन लगभग अहिंसक सामाजिक-परिवर्तन के साथ, चेतना प्रसार के साथ हो गया। यह हिंसक नहीं हुआ। हुआ भी तो क्षीण, छुट-पुट।
नारी-चेतना का आधार नारी शिक्षा है। फिर उनकी आर्थिक स्वतंत्रता का अपेक्षाकृत विस्तार। परसाई ने लिखा-नौकरी पाते ही लड़की-लड़का हो जाता है। नौकरी पाने का सबसे बड़ा प्रभाव दहेज पर पड़ा/पड़ता है। लड़की नौकरी कर रही है तो दहेज मांगने वालों का मुंह अपने आप बंद/सीमित हो जाता है। हमारे किशोर/युवाकाल में लड़के ब्याह में सुंदर पत्नी की आकांक्षा करते थे। सुंदरी पत्नी वे अब भी चाहते हैं लेकिन प्राथमिकता नौकरी प्राप्त लड़की के लिए होती है। नारी-चेतना में वर्ग-भेद स्पष्ट है। अभी जिस रूप तक नारी चेतना का प्रसार हुआ है उसमें नारीवाद का आग्रह उच्चवर्ग तक सीमित है।
दलित नारी पर अलग से विचार बहुत कम होता है जबकि दलित समाज में नारी दुर्व्यवहार कम नहीं है। कभी-कभी तो स्वर्गीय धर्मवीर जैसे दलित चिंतक दलित नारी-समाज पर ऐसा प्रहार करते हैं जिसे समझ पाना कठिन है। हिंदी दलित लेखकों में तो नहीं लेकिन इतर भाषाओं के लेखन में दलित नारी की व्यथा और उनके सोच की झलक कभी-कभी दिखलाई पड़ जाती है। अभी 'मीटू' की जो लहर आई उसमें दलित वर्ग या निम्नवर्ग की नारी की कोई शिरकत नहीं थी। घरों में बर्तन-झाड़ू करने वाली स्त्रियां ऐसी समस्याओं से रोज जूझती हैं, उनका शिकार होती हैं लेकिन अक्सर उसका प्रतिकार करती रहती या संभाले रहती हैं, कभी-कभी लंपटों को पानी भी पिला देती हैं। 'मीटू' की समस्या प्रधानतः आर्थिक व्यवस्था-समस्या से जुड़ी है। नौकरी या तरक्की जरूरत, यौन छेड़-छोड़ का सबसे बड़ा कारण है। सभी क्षेत्रों में। स्त्रियां भी अपने सेक्स आकर्षण का उपयोग इसी के लिए करती हैं।
सुविधाओं का, चेतना का, समृद्घि का विस्तार समस्याओं को सुलगाता है और नई समस्याएं, स्थितियां पैदा करता है। दलित एवं स्त्री चेतना का व्यापक सांस्कृतिक प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ा है जिसका आकलन अभी होना है। निश्चय ही इस क्षेत्र में हमारी कुछ प्रगति ऐसी है जिस पर गर्व कर सकते हैं। अब हम वेश्या को वेश्या नहीं, सेक्स-वर्कर कहते हैं, हिजड़ा को हिजड़ा नहीं, किन्नर कहते हैं। किन्नर एक क्षेत्र भी है जहां के कुछ लोग इस शब्द पर एतराज करते हैं। हमें ट्रांसजेंडर शब्द ही अपना लेना चाहिए। सेक्स वर्कर या किन्नर शब्दमात्र नहीं हैं। वे हमारी चेतना-भारतीय चेतना की भाव-परिधि के विस्तार के सूचक हैं। वैसे ही जैसे अछूत के लिए हरिजन और दलित शब्द के प्रयोग। हमने वास्तविक सामाजिक चेतना का विकास किया और नए शब्द का आविष्कार किया-शब्द की महिमा पर विचार कीजिए। काश! सेक्यूलरिज्म के लिए हम अपना कोई शब्द इसी तरह की प्रक्रिया में गढ़ पाते!
स्वातंत्र्योत्तर भारत में हमने कुछ न किया हो लेकिन दो मुद्दों पर ध्यान जाता है। एक तो खाद्यान्न के बारे में हम स्वावलंबी हुए हैं। अब हमें पी.एल. 480 की जरूरत नहीं। खाने भर का अनाज देश में ही पैदा होता है। कुछ हम बाहर भी भेज सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि सबका पेट भी भर रहा है। अनाज है फिर भी सबका पेट क्यों नहीं भर रहा है? इस प्रश्न पर जितना विचार करें, विचार करने के बाद जो निर्णय हो उस पर काम भी कर सकें तब तो बहुत ही अच्छा हो।
दूसरी बात-एक बार इमरजेंसी के बावजूद हमने चुनाव की प्रक्रिया से संसद प्रणाली को बरकरार रखा है। चुनाव होते हैं, चुनाव ठीक से चलाने के लिए सुदृढ़ चुनाव आयोग है। यह हमारी उपलब्धि है किंतु चुनाव में अपराध कर्मी, बाहुबली, उत्तेजना फैलाने वाले, हिंसक कैसे जीत जाते हैं। चुनाव में पैसा इतना असर कैसे डाल देता है-संसद प्रणाली और चुनाव ने पैसे को, अंधविश्वास को, अस्मिताओं के विस्फोट को संकीर्णताओं को इतना उभार कैसे दिया!
मतलब यह कि आजादी पाने के बाद हमने जिन चुनौतियों को चिन्हित किया था, जिनका सामना करने या जिनसे जूझने के लिए हमने प्रयास किया-कुछ सफलताएं भी पाईं, उनसे नई स्थितियां पैदा हुईं। उन्होंने नई चुनौतियां पेश कीं, आज हमें उन्हीं से जूझना है।
देश ने विकास किया है आंशिक तौर पर। लोगों का जीवन पहले से थोड़ा-बहुत बेहतर हुआ है। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवागमन की सुविधाएं बढ़ी हैं-विकास से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। जीडीपी ग्रोथ बढ़ोतरी है, विकास नहीं। समाज को शरीर मानें तो उसके विभिन्न अंगों-घटकों की बढ़ोतरी या घटाव होना चाहिए। यदि कुछ ही अंगों या किसी एक ही अंग की बढ़ोतरी हो, अन्यों की नहीं या कम हो तो वह कुरूपता या विषमता है, यह स्थिति स्वास्थ्य नहीं, रोग का लक्षण है। भारत का विकास कम हुआ है, बढ़ोतरी बहुत हुई है। हम कुछ लोगों की बढ़ोतरी को विकास समझने, या घोषित करने लगे हैं। यह स्थिति अपराध और मानसिक रोग पैदा करती है।
भारत में पूंजीवादी व्यवस्था भी व्यवस्थित ढंग से काम नहीं कर रही है। आर्थिक तंत्र पूंजीवादी है और शोषक वर्ग की मानसिकता सामंतवादी, वर्णाश्रमी है। इसी में नवधनिकों का इतराना, अनैतिकता से अर्जित धन का बेलगाम अश्लील प्रदर्शन है। सबको पीछे छोड़कर सबका, सबसे आगे निकल जाने का रोग-जिसका सबसे स्थूल लक्षण रोडरेज है। सड़क पर जगह कम, लंबे-चौड़े वाहन ज्यादा-सारे नियमों को तोड़कर मनमानी करने की भयंकर महामारी। सब चलता है, सच केवल वह है जो छीन लिया जाता है, जेब में आ जाता है-ऐसी स्थिति में वैयक्तिक हित सबसे बड़ी जिहादी प्रवृत्ति बन जाती है। वह किसी की नहीं सुनती-जो चाहिए उसे मिलना ही है।
इसके दुष्परिणाम उच्चवर्ग पर ही नहीं मध्य, निम्न वर्ग पर कम नहीं पड़ते। वंचित वर्ग को रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा ही नहीं, उसे यौन-लालसाओं की प्राप्ति भी वैसी ही चाहिए। उसके मन में भीषण यौन लालसाओं को जाग्रत करने का काम विज्ञापन रात-दिन करते हैं। हम देखते हैं कि बच्चों, शिशुओं, अल्पवयस्कों से बलात्कार की घटनाएं ज्यादातर निम्नवर्ग के लोग करते हैं।
भद्रजन यही काम इससे कहीं अधिक दारुण अमानवीय काम व्यवस्थित तंत्र के द्वारा करते हैं। उनमें नाबालिगों से बलात्कार ही नहीं, शिशु-मांस खाने का शौक बढ़ रहा है। बच्चों-वयस्कों से बलात्कार, उनकी हत्या, फिर उनके अंगों का व्यापार-अंग आरोपण के व्यवसाय में। ईसाई धर्माधिकारी-फ्रांसिस पोप ने कहा-पूंजीवाद शैतान की विष्ठा है। यह पूंजीवाद नहीं-उसकी विष्ठा का तंत्र है। पूंजीवाद चाहे जितना बुरा हो, वह समाजवाद लाने का साधन भी बन सकता है।
भारत में पूंजीवाद-सामंतवाद, वर्णाश्रम व्यवस्था सांप्रदायिक संकीर्णता- सब अनियंत्रित हो रहे हैं। और अब स्वातंत्र्योत्तर भारत में निर्मित संस्थान इस बढ़ोतरी के मार्ग में बाधक समझे जा रहे हैं। उन्हें कमजोर किया जा रहा है। सामाजिक दृष्टि से यह व्यवस्था इतनी नाकारा है कि प्रदूषण के इस स्तर पर पहुंचने पर भी कोई इसके बारे में कुछ न कर सकता है, न करना चाहता है। सुप्रीम कोर्ट, पुलिस सब असहाय। शक्ति नैतिकता में होती है। शासक-शोषक तंत्र के पास नैतिक आधार नहीं है। उनकी बात कौन मानेगा! यह आत्मघात है कि हम सब जानते हैं किन्तु कुछ नहीं कर सकते। गांधी जी की याद करते हैं-लेकिन गांधी जी की तरह काम कौन करे। जो थोड़े लोग आज भी गांधी जी की तरह कुछ करने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हीं से सामान्यजन आशा करते हैं।
आंशिक विकास ने विभिन्न अस्मिताओं के आग्रहों को उकसाया है। मूलतः इन अस्मिताओं के बीज स्वाधीनता आंदोलन में ही थे। वे स्वतंत्रता की अवधारणा में शामिल थे। थोड़ा-बहुत उजागर भी थे लेकिन प्रगाढ़ तौर पर परस्पर सटे और प्रायः लुप्त थे। एक स्वतंत्रता की मांग ही सबका काम कर देती थी।
स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में त्याग, संघर्ष ही करना था, कुछ पाना नहीं था। स्वातंत्र्योत्तर भारत में पाना था। पाने के लिए शक्ति बटोरना और उसे दिखाना भी था। शक्ति मतदान की थी। मतदान की शक्ति विभिन्न अस्मिताओं में आ गई। स्वाधीनता आंदोलन की नैतिक मांग अब अवसर पाने की मांग बन गई और वह वाजिब अधिकार भी था। विकास का रास्ता भी था। इन अस्मिताओं में भिन्नता ही अस्तित्व का आधार थी। हमें उपेक्षित रखा गया है। यह तर्क था। यह अनुचित नहीं।
हमारे स्वातंत्र्योत्तर भारत के विकास में इन अस्मिताओं का बहुत बड़ा योगदान है। इनका राजनीतिकरण भी बुरा नहीं है। इनकी सर्वथा एकांगिकता या ऐकांतिकता हानिकर है। अस्मिताएं पृथक हैं किंतु उन्हें पृथकतावादी नहीं होना चाहिए। आपकी अस्मिता अन्य अस्मिताओं पर आघात न करे। उतर आधुनिक चिंतन विश्लेषण के लिए काम का है किन्तु ऐतिहासिक विकास के लिए, गति के लिए अंतस्संबंधता की जरूरत पड़ेगी।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सत्य को अविरोधी कहा है। हमारा सच और आपका सच जब मिल जाएं तब वह वास्तविक सच होगा। अस्मिताओं को उस सच की तलाश करनी होगी। समकालीन भारत के विकास के लिए उस ऐतिहासिक सच को पहचान कर आगे बढ़ना है। यह काम केवल राजनीति का नहीं हो सकता। वह संस्कृति का काम है। संस्कृति में संकीर्णता का स्थान नहीं।
धर्म के दो अंग होते हैं-रूप-पूजा और पाठ पद्धति। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर सब इसी का स्वरूप है। लेकिन धर्म की वस्तु करुणा है-परोपकार। झगड़े-फसाद मंदिर-मस्जिद पर होते हैं, करुणा या परोपकार पर नहीं। अविरोधी सच और संस्कृति रूप पर नहीं, बल्कि धर्म की अंतरात्मा पर बल देती है। और तब धर्म संस्कृति का पर्याय हो जाता है।
हमारे देश में अविरोधी सच का साक्षात्कार गांधी की प्रार्थना सभा है जिसमें सभी धर्मों की जगह थी। प्रार्थना अभी भी होती है। यही बहुत बड़ी आशा है।
(लेखक वयोवृद्ध कवि, आलोचक, संस्मरणकार और जीवनी लेखक हैं। व्यास सम्मान से सम्मानित। नंगातलाई का गांव, व्योमकेश दरवेश, लोकवादी तुलसीदास उनकी चर्चित कृतियां हैं)