आज देश के सामने जो चुनौतियां हैं, पहले शायद उनसे देश रू-ब-रू नहीं था। कुछ अलग तरह की समस्याएं, कुछ अलग तरह की विकट परिस्थितियां आज हमारे सामने हैं। हमारी जनता, हमारा समाज समझ नहीं पा रहा है कि आखिर हम जा कहां रहे हैं। हमारा नायक दावा कर रहा है कि दुनिया में भारत का रुतबा बढ़ा है, विश्व में भारत का डंका बज रहा है लेकिन वास्तविकता शायद वैसी नहीं है। बाहर (दुनिया में) जो डंका बज रहा है, वह कुछ और है, उसकी वास्तविकता तो हमारा नायक ही बता सकता है। हां, हम जो देख रहे हैं, वह कुछ और है। हमें तो दिख रहा है कि आज जनता में एक-दूसरे के प्रति जैसा डर, संदेह है, वैसा शायद ही कभी रहा हो। एक वर्ग के लोगों में दूसरे वर्ग के प्रति अविश्वास, संदेह इस हद तक पहुंच रहा है कि लोग गांव और मुहल्ले छोड़ कर अन्यत्र पनाह ढूंढ़ रहे हैं। जातियों में अविश्वास और संदेह के बीज इस तरह बोये जा रहे हैं कि पचास-सौ साल का भाईचारा खत्म हो रहा है। नागरिकों में नागरिक होने का भाव तिरोहित हो रहा है। और मजेदार तथ्य यह कि जो सत्ता में हैं, वे बाकायदा इसे बढ़ावा दे रहे हैं। बल्कि यह कहें कि चाहे जातियां हों या वर्ग-उनके बीच घृणा और नफरत के बीज बोने में संदेह और संशय फैलाने में सत्ता में बैठे लोग अहम रोल निभा रहे हैं। ऐसे में किन चुनौतियों की बात की जाए, किन समस्याओं की बात की जाए, हम किन चुनौतियों, किन समस्याओं की बात करें, यही बताना मुश्किल है। उनसे निजात की बात करना या उनके हल के बारे में, समाधान के लिए विमर्श करना भी आज सहज नहीं है।
देश में, समाज में जब लोकतांत्रिक तरीके से शासन चलता है, सरकार सहज ढंग से लोकतांत्रिक मूल्यों का ध्यान रखते हुए विकास की दिशा में आगे बढ़ती है तो आप उससे सहमत या असहमत होते हुए भी उसके कामकाज पर टिप्पणी कर सकते हैं। लेकिन जहां आप की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताला जड़ दिया जाए, आप अपनी राय न व्यक्त कर सकें, फिर विमर्श कैसा और लोकतंत्र कैसा। चाहे सरकार और शासन दक्षिणपंथियों का हो या वामपंथियों का। सोवियत संघ क्यों बिखर गया? वहां समाजवाद था लेकिन क्यों फेल हो गया क्योंकि जनता की आकांक्षाओं को, विचारों को शासकों ने सम्मान नहीं दिया। स्वस्थ समाज में, लोकतांत्रिक समाज में हर आदमी की इच्छाओं, विचारों का आदर (कम से कम निरादर तो नहीं) हो। आप को किसी के विचारों से असहमत होने का अधिकार हो। आप से भी कोई असहमत हो सके, यह स्थिति सहज हो। हम चाहे जिस धर्म को मानें, दूसरे धर्म को मानने वालों के प्रति मन में कोई द्वेष न हो। यह सहज स्थिति है। तो यह किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए अनिवार्य है। लेकिन उलट स्थिति हो तो कैसे कहां जाए कि हम लोकतांत्रिक सरकार की देखरेख में लोकतांत्रिक देश में और लोकतांत्रिक तरीके से विकास कर रहे हैं।
आज अपने देश में लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं के सामने जैसा संकट है, वैसा कभी नहीं था। स्वायत्तशासी संस्थाओं की स्वायत्तता के सामने प्रश्नचिन्ह लगा है। वे कितनी स्वायत्त हैं, बता पाना मुश्किल है। न्यायपालिका की स्वायत्तता भी प्रश्नवाची चिन्हों से घिरी है। उस पर भी खतरे मंडरा रहे हैं। सीबीआइ और अन्य संस्थाओं की स्वायत्तता कैसे तार-तार हो रही है, यह पूरा देश देख रहा है। देश की महत्वपूर्ण वित्तीय संस्था रिजर्व बैंक में हस्तक्षेप जैसा आरोप स्वयं सरकार पर लग रहा है। इससे संविधान की सार्थकता पर सवालिया निशान लग रहे हैं।
लेखकों, साहित्यकारों, विचारकों और पत्रकारों पर पाबंदियों की लगाम कसी जा रही है। उन्हें विचारों के आधार पर खानों में बांटा जा रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर घोर संकट का दौर है यह। इसलिए लेखक और साहित्यकार बहुत फूंक-फूंक कर लिख रहे हैं। वे डरे और सहमे से लग रहे हैं। साहित्यकारों की रचनाओं में भय और संशय दिख रहा है। जो भयभीत नहीं है और निडर होकर लिख रहे हैं, उन्हें इस का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। दर्जन भर पत्रकार तो इसके शिकार हो चुके हैं।
जिसके कंधे पर देश ने देश चलाने की जिम्मेदारी दे रखी है, वह किसी सवाल का जवाब देने की बजाए पूरे विश्व में घूम कर अपनी पताका फहरा रहा है। ओजस्वी भाषण दे रहा है। भारत के विश्वगुरु होने की पुरानी गाथा सुना रहा है। लेकिन देश के बारे में ज्वलंत सवालों ओर मौजूदा स्थितियों पर किसी टिप्पणी से कन्नी काट रहा है।
हालांकि इस देश की जनता अंधी-बहरी नहीं है। वह सब कुछ देख-सुन रही है। उसे भी समय का इंतजार है।
(लेखक वरिष्ठ कथाकार और संस्मरणकार हैं। रेहन का रग्घू, लोग बिस्तरों पर, काशी का अस्सी उनकी चर्चित कृतियां हैं। लेख सियाराम यादव से बातचीत पर आधारित है)