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कस्तूरबा के बिना क्या गांधी की कल्पना संभव है?

बा की भी 150वीं जयंती लेकिन पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा कि महानायिकाओं की चर्चा तक गायब
क्या हमारे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा महिलाओं के योगदान की उपेक्षा का कारण है?

इस वर्ष 2 अक्टूबर से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाने का सिलसिला शुरू हो गया है, जो 2 अक्टूबर 2020 तक चलेगा। मोदी सरकार ने गांधी जी की 150वीं जयंती मनाने के लिए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 115 सदस्यीय समिति का गठन किया है। राष्ट्रपति भवन में इस समिति की एक बैठक भी हो चुकी है और संस्कृति मंत्रालय ने 33 कार्यक्रम आयोजित करने की योजना बनाई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद ही स्वच्छता अभियान शुरू करके गांधी की विरासत को हथियाने की रणनीति बनाई और वे इस बात की घोषणा कर चुके हैं कि पूरे देश को खुले में शौच से मुक्त कर अगले साल 2 अक्टूबर को स्वच्छ भारत के रूप में बापू को सच्ची श्रंद्धांजलि दी जाएगी। जिस राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोगों ने बापू की हत्या होने पर कभी मिठाई बांटी थी, उसने भी गांधी जी की 150वीं जयंती मनाने के लिए कार्यक्रम किए हैं। स्वच्छता अभियान के ‘लोगो’ में गांधी के चश्मे का करोड़ों रुपये का विज्ञापन रोज मीडिया में दिखाया जा रहा है और 150वीं जयंती का ‘लोगो’ भी जारी हो चुका है। गांधी जी के मूल्यों और आदर्शों की कितनी रक्षा की जा रही है, यह जगजाहिर है लेकिन इतना कहा जा सकता है कि सरकारी कार्यक्रमों में गांधी के नाम का इस्तेमाल खूब हो रहा है।

सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इन आयोजनों और कार्यक्रमों से कस्तूरबा गांधी का नाम ही गायब है जो 62 साल तक गांधी जी की परछाईं बनी रहीं। शायद कम लोगों को मालूम होगा कि इस साल कस्तूरबा की जयंती के भी 150 वर्ष हो रहे हैं। वे गांधी जी से करीब छह महीने बड़ी थीं। जब उनकी शादी मोहनदास करमचंद गांधी से हुई थी, तो वे मात्र 14 वर्ष की थीं। कमला नेहरू की तरह उनका भी बाल विवाह हुआ था। वे एक आम भारतीय महिला थीं। वे स्कूल नहीं गई थीं लेकिन देश की आजादी के लिए अपने पति के साथ हर पल कंधे से कंधा मिलाकर चलीं। उन्होंने गांधी जी के सभी रचनात्मक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी की। समाज और राष्ट्र के विकास के लिए उन्होंने महिलाओं को न केवल शिक्षित किया, बल्कि उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया, उन्हें स्वच्छता का महत्व बताया, उनमें देशप्रेम की भावना जगाई, उन्हें स्वास्थ्य के प्रति सचेत किया और इस तरह वे आजादी की लड़ाई में महिला सश‌क्तीकरण की प्रतीक बनीं। अगर यह कहा जाए कि कस्तूरबा के बिना गांधी जी की कल्पना नहीं की जा सकती तो यह अतिशयोक्ति नही होगी। गांधी जी की पोती तारा भट्टाचार्य का तो यह मानना है कि कस्तूरबा के त्याग और साधारण व्यक्तित्व ने ही गांधी जी को असाधारण व्यक्ति बनाया था।

गांधी जी खुद को आदर्श दंपती मानते थे और कस्तूरबा के साथ अपने वैवाहिक जीवन पर उन्होंने गहरा संतोष भी व्यक्त किया है। दोनों ने देश के लिए उच्च नैतिक जीवन जिया और एक-दूसरे का जीवन भर साथ निभाया। गांधी जी ने जब ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया तो बा ने अपने पति के लिए दैहिक सुख भी त्याग दिया। गांधी जी जब 1888 में लंदन पढ़ने गए तो वे अपने नवजात शिशु हरिलाल के पालन-पोषण के लिए पति के साथ विदेश नहीं गईं। उस समय वे मात्र 19 वर्ष की थीं। 1900 में चौथे पुत्र देवदास गांधी का जन्म हुआ, तब उनकी उम्र 32 वर्ष हो चुकी थी। इस तरह बारह-तेरह साल के भीतर वे चार पुत्रों की मां बन चुकी थीं। चार पुत्रों का पालन-पोषण करना और परिवार को संभालना कोई आसान काम नहीं था, जब पति लंदन और दक्षिण अफ्रीका में रहा हो। जब वे दक्षिण अफ्रीका गईं तो वहां गांधी जी के आंदोलन में गिरफ्तार भी हुईं और स्वच्छता कार्यक्रमों में भाग भी लिया। भारत आने के बाद चाहे चंपारण आंदोलन हो या असहयोग आंदोलन या भारत छोड़ो आंदोलन, सबमें गांधी जी के साथ भाग लिया और गांधी जी के आश्रमों में उनके सभी कार्यक्रमों में समान रूप से भागीदारी की। वे जीवन भर साये की तरह उनके साथ रहीं और 1942 के आंदोलन में आगा खान पैलेस में नजरबंद रहीं, जहां दिल का दौरा पड़ने से 22 जनवरी, 1944 को उनका निधन हो गया। इस तरह उन्होंने छह दशक तक गांधी जी के साथ ही नहीं, पूरे राष्ट्र के लिए अपना सार्वजनिक जीवन व्यतीत किया। यह कम बड़ा त्याग नहीं था।

सुशीला नायर ने 1948 में ही हमारी बा नामक एक पुस्तक लिखी। गांधी जी भी बा के योगदन के महत्व को समझते थे और 1945 में उन्होंने अपनी पत्नी की स्मृति में कस्तूरबा स्मारक ट्रस्ट भी बनाया। लेकिन आज जब गांधी जी की 150वीं जयंती मनाई जा रही है तो कस्तूरबा को क्यों विस्मृत कर दिया गया, यह बात समझ में नहीं आती, जबकि उनकी भी 150वीं जयंती है? क्या यह पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा है, जो सरकार ही नहीं, बल्कि समाज में भी काम करता है। तारा भट्टाचार्य का मानना है कि गांधी जी के साथ ही कस्तूरबा की भी 150वीं जयंती मनाई जानी चाहिए। उनकी शिकायत सरकार के साथ-साथ तथाकथित गांधीवादी संगठनों से भी है, जिन्होंने कस्तूरबा की अनदेखी की है।

गांधी और कस्तूरबा ही नहीं, बल्कि जेपी (लोकनायक जयप्रकाश नारायण) और प्रभावती भी एक-दूसरे के पूरक रहे। आजादी की लड़ाई साथ-साथ लड़े और दोनों जेल भी गए, लेकिन जब सरकार ने जेपी की जन्मशती मनाई तो प्रभावती को याद करने का कोई उपक्रम नहीं किया। प्रभावती की तरह कमला नेहरू ने भी आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया पर जब नेहरू जी की जन्मशती या 125वीं जयंती मनाई गई तो कमला नेहरू की भी अनदेखी हुई। दरअसल, हमारे समाज का ढांचा पितृसत्तात्मक रहा है, जिसके कारण इतिहास में महिलाओं के योगदान की उपेक्षा हुई। यही कारण है कि हम अपने महापुरुषों को स्मरण करते वक्त अक्सर उनकी पत्नियों को याद नहीं करते और उन्हें जानने के बारे में दिलचस्पी नहीं रखते। उन ‌स्त्रियों पर शोध कार्य, पुस्तक लेखन, सेमिनार, कार्यक्रम भी कम होते हैं और पाठ्यक्रमों का हिस्सा भी वे कम होती हैं। अगर कोई फिल्म वगैरह भी बनती है तो नायक पति ही होते हैं और उनकी चर्चा अधिक होती है जबकि उनकी पत्नियों को वह श्रेय नहीं मिलता। समाज उन महिलाओं को महापुरुषों की पत्नी के रूप में ही देखता है। उन्हें स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में नहीं देखता और मूल्यांकन नहीं करता।

क्या बा का व्यक्तित्व गांधी जी से पृथक नहीं है? क्या उनका मूल्यांकन अलग नहीं होना चाहिए? कुछ साल पहले अरुण गांधी और नीलिमा डालमिया ने बा पर स्वतंत्र पुस्तकें लिखकर और नारायण देसाई ने नाटक लिख कर बा का अलग मूल्यांकन करने की कोशिश की है। हाल में पत्रकार अरविन्द मोहन की बा और बापू किताब आई है। लेकिन गांधी जी की 150वीं जयंती के सिलसिले में देश-विदेश में हुए आयोजनों में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने बा को याद नहीं किया, यह अधिक चिंता की बात है। इतिहासकारों ने भी महिला स्वतंत्रता सेनानियों, चाहे वे सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, राजकुमारी अमृत कौर, भीकाजी कामा आदि हों, उन पर यथोचित काम नहीं किया, जो उनसे अपेक्षित था। पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार में जब अर्जुन सिंह ने राजीव गांधी के नाम पर क्रेच खोलने की घोषणा की तो उनसे पूछा गया कि सरकार सरोजिनी नायडू के नाम पर यह क्रेच क्यों नहीं खोलना चाहती, जिनकी इस वर्ष 125वीं जयंती है? इस सवाल पर अर्जुन सिंह निरुत्तर हो गए। इस सबसे जाहिर होता है कि हमारा समाज मर्दवादी सोच से ही चलता है।

अगर आज बा की 150वीं जयंती राष्ट्रीय स्तर पर नहीं मनाई जा रही है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इसलिए तारा भट्टाचार्य कहती हैं कि सरकार से ही हम केवल उम्मीद क्यों करें, संस्थाओं को भी तो सोचना चाहिए। उनका सवाल है, “मोदी सरकार राजमाता सिंधिया की जन्मशती मना रही है लेकिन बा की 150वीं जयंती मनाने के लिए उसने कोई राष्ट्रीय समिति गठित नहीं की। क्या राजमाता सिंधिया का योगदान बा से बड़ा है?”

(लेखक कवि और पत्रकार हैं। सपने में एक औरत से बातचीत; चोर पुराण; सत्ता,समाज और बाजार उनकी चर्चित कृतियां हैं)

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