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किधर दिखेगा जाटों का जलवा

कभी राज्य की राजनीति में खासा असर रखने वाले जाट समुदाय पर इस बार कांग्रेस-भाजपा दोनों की नजर, बेनीवाल ने बनाया तीसरा मोर्चा
छोड़ पाएंगे छापः  निर्दलीय विधायक हनुमान बेनीवाल (दाएं बीच में माला पहने)

राजस्थान की सियासत में यूं तो तीसरा मोर्चा बहुत प्रभावी नहीं रहा है। लेकिन, निर्दलीय विधायक हनुमान बेनीवाल की ‘हुंकार’ ने राज्य के सियासी तापमान को चरम पर पहुंचा दिया। 29 अक्टूबर को जयपुर की उनकी हुंकार रैली में उमड़ी भीड़ ने न केवल जाट राजनीति को चर्चा के केंद्र में ला दिया है, बल्कि इस बात पर भी नए सिरे से बहस छेड़ दी है कि उनकी सियासत भाजपा और कांग्रेस में से किसे ज्यादा भारी पड़ेगी। हालांकि बेनीवाल को यकीन है कि उनकी नई-नवेली ‘राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी’ सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्ष में बैठी कांग्रेस का विकल्प बनने में कामयाब रहेगी। इस पार्टी के गठन का ऐलान उन्होंने जयपुर की रैली के दौरान ही किया। लगे हाथ उन्होंने भाजपा से बगावत कर अपनी पार्टी बनाने वाले विधायक धनश्याम तिवाड़ी के साथ गठजोड़ का ऐलान भी कर दिया है।

भाजपा में रह चुके इन दोनों नेताओं की जुगलबंदी राज्य की सियासत में कितना असर छोड़ पाती है, यह तो 11 दिसंबर को ही पता चलेगा जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आएंगे। लेकिन, बेनीवाल का दावा है कि ‘मुद्दों पर आधारित उनकी राजनीतिक पहल बहुत आगे तक जाएगी।’ हालांकि जाटों की नुमाइंदगी करने वाले कई संगठन इससे इत्तेफाक नहीं रखते।

राजाराम मील के नेतृत्व वाली ‘राजस्थान जाट महासभा’ इसे फिजूल की कवायद बता रही है। मील ने आउटलुक से कहा, “न केवल जाट बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियां, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग और किसान भी मौजूदा हालात से खुश नहीं हैं। सभी लोग कांग्रेस की तरफ जाते दिख रहे हैं।”

राजस्थान की राजनीति में जाटों को प्रभावशाली तबका माना जाता है। सबसे ज्यादा विधायक इसी वर्ग से आते हैं। फिलहाल राज्य के 30 से ज्यादा विधायक जाट समुदाय से हैं। नागौर, सीकर, झुंझुंनू, भरतपुर, जोधपुर जैसे इलाके जाट बेल्ट माने जाते हैं। 200 विधानसभा सीटों में से करीब 60 पर जाट मतदाता प्रभावी हैं। इसी समीकरण को देखते हुए भाजपा ने अपनी पहली लिस्ट में 131 में से 26 जाट उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं। कभी इस वर्ग के पास नाथूराम मिर्धा, राम निवास मिर्धा, परसराम मदेरणा और शीशराम ओला जैसे कई नेता थे, जिनका पूरे प्रदेश में असर था। दिवंगत नाथूराम मिर्धा का तो ऐसा जलवा था कि 1977 की जनता लहर में भी वे नागौर में अपना किला बचाने में कामयाब रहे थे। लेकिन, अब इस वर्ग का नुमाइंदा होने का दावा करने वाले नेताओं का प्रभाव अपने-अपने इलाकों तक सीमित हो चुका है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि बेनीवाल जाट समुदाय में राजनीतिक नेतृत्व के शून्य को भर पाएंगे? जाट उनकी पार्टी का हाथ थामेंगे या फिर कांग्रेस और भाजपा में से किसी एक के ही साथ जाएंगे? 130 सीटों पर जाटों के प्रभावी होने का दावा करने वाले मील ने बताया, “जाट समुदाय के कुछ नौजवान भले बेनीवाल के साथ चले जाएं, लेकिन बहुसंख्यक समाज का मत इससे अलग है।” आदर्श जाट महासभा के रामनारायण चौधरी ने आउटलुक से कहा, “समाज के लोग अपने आदमी को वोट देंगे। लेकिन जहां समाज का व्यक्ति नहीं होगा वहां कांग्रेस को वोट देंगे।”

उन्होंने बताया, “मोदी सरकार की नीतियों से किसान वर्ग परेशान है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि वे काश्तकार की आमदनी दोगुनी कर देंगे, पर हालात ऐसे हैं कि किसान तो खड़ा ही नहीं हो पा रहा है। खाद, बिजली और बीज किसान के बूते से बाहर की बात हो गए हैं। यही कारण है कि बदलाव के लिए लोग कांग्रेस की तरफ देख रहे हैं।”

झुंझुनू से विधायक और पूर्व मंत्री ब्रजेंद्र ओला का कहना है कि बेनीवाल की पार्टी कोई ज्यादा प्रभाव नहीं छोड़ पाएगी। उन्होंने आउटलुक को बताया, “जाट शुरुआत से ही कांग्रेस के साथ रहे हैं। कांग्रेस से पहले जब प्रजा मंडल था, तब यह वर्ग उसके साथ था।” विधानसभा की अध्यक्ष रहीं सुमित्रा सिंह का कहना है, “बेनीवाल की पार्टी का कितना असर होगा, अभी कहना कठिन है।” आठ बार विधायक रहीं सुमित्रा सिंह ने बताया कि यह सही है कि अब कुंभाराम आर्य जैसे प्रभावशाली जाट नेता नहीं हैं जिनका प्रभाव अपनी जाति के बाहर भी था। यह भी सच है कि जाट समाज कांग्रेस के साथ रहा है। उन्होंने बताया, “यह दुख की बात है कि आर्य समाज और जंगे-आजादी के सेनानियों से प्रभावित जाट समाज अब बंट गया है।” भाजपा विधायक फूलचंद भिंडा का मानना है कि कुछ युवा बेनीवाल की पार्टी के साथ जा सकते हैं। उन्होंने बताया, “किसानों की भलाई के लिए भाजपा सरकार ने बहुतेरे काम किए हैं। इसलिए जाट समुदाय भाजपा की तरफ ही मुखातिब होगा।”

भिंडा मानते हैं कि इस वक्त जाट समुदाय में नेतृत्व की रिक्तता है। लेकिन, उनके अनुसार ऐसा अन्य वर्गों में भी है। उन्होंने कहा, “समाज में नेता होना ठीक है, लेकिन समाज का नेता होना ठीक नहीं है। हर समाज में जाति के नेता उभरने लगे हैं।” चूरू जिले के तारानगर से भाजपा विधायक जयनारायण पुनिया का मानना है कि बेनीवाल की पार्टी चुनाव के दौरान कोई असर नहीं छोड़ पाएगी। पुनिया ने कहा, “एक जाति के आधार पर सियासत में कोई आगे नहीं बढ़ सकता। लोग जाति के आधार पर वोट नहीं देंगे।” उनका दावा है कि जाटों के वोट दोनों प्रमुख दल में बंटेंगे। उन्होंने बताया, “भाजपा के साथ सर्व समाज है। इसमें दलित, पिछड़े, मजदूर और अल्पसंख्यक भी शामिल हैं।” लेकिन, कुछ जानकारों का मानना है कि बेनीवाल का यह कदम भाजपा को लाभ पहुंचा सकता है। 2013 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा से बगावत कर बेनीवाल नागौर जिले की खींवसर सीट से चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे थे। इसके बाद से ही वे भाजपा और कांग्रेस दोनों से बराबर दूरी बनाकर चल रहे हैं। 2016 में उन्होंने नागौर में अपनी पहली रैली की थी। बाद में बाड़मेर और बीकानेर में भी रैलियां कीं। इन रैलियों के बाद से ही उनके विरोधी लगातार यह सवाल पूछ रहे हैं कि इतने बड़े आयोजनों के लिए उन्हें संसाधन कौन मुहैया करवा रहा है? लेकिन बेनीवाल का कहना है, “मैं न तो किसी के पक्ष में हूं, न किसी के विरोध में। मेरा मकसद जवान और किसान की बहबूदी की राजनीति को आगे बढ़ाना है क्योंकि, मेरी राजनीति के केंद्र में किसान और जवान हैं।”

घनश्याम तिवाड़ी की भारत वाहिनी पार्टी से चुनावी समझौता करने वाले बेनीवाल का यह भी दावा है कि भाजपा और कांग्रेस के कई नेता उनके शामियाने में आने वाले हैं। हालांकि राजस्थान में बारी-बारी से कांग्रेस और भाजपा के सत्ता में आने का इतिहास रहा है। इसलिए, बेनीवाल के दांवों की असल परीक्षा तो 7 दिसंबर को होगी जब जनता वोट डालेगी। तब तक रैलियों के कारण रेगिस्तानी राजमार्गों पर वाहनों और पंगडंडियों से गुजरती भीड़ के कारण छाए गर्दो-गुबार के बीच चुनावी गणित कभी इधर तो कभी उधर हिचकोले खाता रहेगा।

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