सात दिसंबर को होने जा रहा तेलंगाना विधानसभा का चुनाव कई राजनीतिक पंडितों के लिए अचरजों से भरा है। उनके लिए अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों के मतदाताओं के मिजाज को भांप पाना आसान नहीं है। आखिरकार, हर क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक समीकरण एक-दूसरे से काफी अलग हैं। इसलिए, आंकड़ों के आधार पर अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना जमीनी हकीकत की अनदेखी जैसा होगा। देश के सबसे नए-नवेले राज्य तेलंगाना में समय से पूर्व चुनाव का दांव चलकर राज्य के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के सुप्रीमो के. चंद्रशेखर राव ने हर किसी को चौंका दिया था। बेशक, 2014 में अलग राज्य आंदोलन में टीआरएस का योगदान लोगों के दिमाग में था और इससे उपजी सहानुभूति के दम पर पार्टी सत्ता में आई थी। कई लोगों का मानना था कि इस सहानुभूति के कारण पार्टी को जबर्दस्त जीत मिलेगी, लेकिन 119 सदस्यीय विधानसभा में वह 34 फीसदी वोट के साथ 63 सीटें ही जीत पाई।
केंद्र में उस समय कांग्रेस नीत यूपीए-2 की सरकार थी, जिसकी सहमति से ही अलग राज्य का गठन हो पाया था। अलग राज्य का श्रेय लेने के दावेदारों में कांग्रेस भी प्रमुख थी और उसे 25.5 फीसदी वोट के साथ 25 सीटें मिलीं।
तेलंगाना के विभिन्न हिस्सों में रह रहे सरकारी नौकर, व्यवसाय या रियल एस्टेट के धंधे से जुड़े आंध्र प्रदेश के लोगों ने तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) को वोट दिया। टीडीपी को 12 फीसदी वोटों के साथ 15 सीटें मिलीं। अन्य दलों मसलन, भाजपा को 5 (3-4 फीसदी वोट) और एआइएमआइएम को 7 सीटों (2.7 फीसदी वोट) पर कामयाबी मिली थी।
लेकिन, इस बार मतदाताओं का मन भांपने में कोई कामयाब नहीं हो पा रहा है। असल में, अपने ‘सुशासन’ में टीआरएस ने सभी वर्गों के हितों का ख्याल रखा और सबसे ज्यादा विकास दर बरकरार रखने के लिए प्रशंसा भी हासिल की। इसके बावजूद पार्टी ने अप्रैल/मई में ‘मोदी फैक्टर’ के असर से बचने के लिए समय से पहले चुनाव का दांव खेला। लेकिन, अप्रत्याशित रूप से सत्ताधारी दल के खिलाफ विपक्षी पार्टियों के हाथ मिलाने से उसे झटका लगा है।
टीआरएस सहित ज्यादातर लोगों को तब हैरत हुई जब कांग्रेस के विरोध के नाम पर बनी टीडीपी ने सत्ताधारी दल से मुकाबले के लिए ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ की तर्ज पर अपनी परंपरागत प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से हाथ मिला लिया। सत्ताधारी दल से अलग हुए प्रो. एम. कोदांदरम की अगुआई वाली तेलंगाना जन समिति (टीजेएस) और सीपीआइ के भी साथ आने से कांग्रेस-टीडीपी के महागठबंधन ‘महाकुट्टमी’ या ‘प्रजामुक्ति’ की ताकत में और इजाफा हो गया।
इस बार मुकाबला मुख्य रूप से टीआरएस के विकास के दावों और विपक्ष के पिछड़ेपन के आरोपों के बीच है। वैसे, कागज पर कांग्रेस के नेतृत्व वाला महागठबंधन मजबूत दिखता है। 2014 के चुनावी नतीजों के आधार पर टीआरएस के 34 फीसदी वोट शेयर के मुकाबले महागठबंधन का वोट शेयर 37-38 फीसदी तक पहुंच जाता है। हालांकि करीब 25-30 कांग्रेस और टीडीपी के बागी उम्मीदवार भी हैं, जो महागठबंधन का खेल बिगाड़ सकते हैं।
इतना ही नहीं, पिछली बार 4-5 फीसदी वोट हासिल करने वाली भाजपा भी हिंदुत्व के फायरब्रांड परिपूर्णानंद स्वामी के पार्टी में शामिल होने के बाद से नए जोश में हैं। स्वामी ने पार्टी को 119 सदस्यीय विधानसभा में 12-15 सीटें दिलाने का वादा किया है। दिलचस्प बात यह है कि अतीत में कांग्रेस और इस बार क्षेत्रीय दल टीआरएस की तरह भाजपा भी सभी 119 सीटों पर चुनाव लड़कर इतिहास रचने जा रही है।
कांग्रेस और टीडीपी को मिलाकर वोट शेयर 37 फीसदी होता है और उम्मीद की जा रही है कि टीजेएस इसमें एक से दो फीसदी वोट जोड़ने में कामयाब रहेगी। टीजेएस अपने नेता कोदांदरम के ‘करिश्मे’ पर निर्भर है जो खासकर उस्मानिया यूनिवर्सिटी, जहां वे पढ़ाते थे और वारंगल के ककातिया यूनिवर्सिटी के छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय बताए जाते हैं। इसके अलावा भी टीडीपी एक से दो फीसदी वोट और झटकने की कोशिश में है, ताकि महागठबंधन का वोट शेयर 39-40 फीसदी तक पहुंच जाए।
लेकिन, उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ की तरह छवि वाले परिपूर्णानंद स्वामी जिस आक्रामक तरीके से भाजपा के प्रचार अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं, वह भी हैरत में डालने वाला है। अपने अनुयायियों के बीच लोकप्रियता से वे महाकुट्टमी को तीन से चार फीसदी वोट का नुकसान पहुंचाने और अपनी पार्टी को वादे के अनुसार 12-15 सीटें दिलाने में कामयाब हो गए तो महागठबंधन मुश्किल में पड़ जाएगा। यह जगजाहिर है कि भाजपा की सीटें दहाई अंक में पहुंचीं तो वह बहुमत हासिल करने में नाकाम रहने की स्थिति में केसीआर के नेतृत्व वाली टीआरएस को समर्थन देगी। फिलहाल, भाजपा को यकीन है कि स्वामी परिपूर्णानंद के नेतृत्व में वह ‘किंगमेकर’ के तौर पर उभरने में सफल रहेगी।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली महाकुट्टमी और स्वामी परिपूर्णानंद की भाजपा के मुकाबले टीआरएस में अपने दम पर बहुमत हासिल करने का भरोसा ज्यादा दिखता है। टीआरएस के स्टार प्रचारक केसीआर सभी 119 विधानसभा क्षेत्रों को मिलाकर 120 रैली करने की योजना है। उनके अलावा, उनके बेटे केटी रामाराव, भतीजा टी. हरीश राव और सांसद बेटी कविता भी ‘स्टार प्रचारक’ से कम नहीं हैं और वे भी आक्रामक प्रचार कर रहे हैं ताकि वह आश्वस्त हो सकें कि सौ से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाने की सूरत में भी पार्टी बहुमत के जादुई आंकड़े को छू ले।
ऐसी सूरत में जब सत्ता विरोधी लहर नहीं दिखती और महाकुट्टमी बागियों से जूझ रही है, किसी भी राजनीतिक पंडित के लिए पूर्वानुमान लगाना मुश्किल हो गया है। कांग्रेस के बागियों के मोर्चा बनाने से भी टीआरएस प्रमुख के तथाकथित ‘पारिवारिक शासन’ के खिलाफ लड़ाई कमजोर हुई है। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एम. चेन्ना रेड्डी के बेटे एम. शशिधर रेड्डी भी टिकट नहीं मिलने से नाराज हैं। हालांकि उन्होंने कांग्रेस नहीं छोड़ी है। चार बार विधायक रहे रेड्डी ने कांग्रेस-टीडीपी गठबंधन को अपवित्र बताते हुए टीडीपी के मुखिया और आंध प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पर तेलंगाना में कांग्रेस में रेड्डी समुदाय के प्रभाव को खत्म करने की साजिश का आरोप लगाया है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “टीडीपी की साजिश और धूर्तता के कारण मेरा टिकट कटा है।” कांग्रेस रेड्डी पार्टी कही जाती है तो टीडीपी अमीर और प्रभावशाली कम्मा की तथा टीआरएस अब नवधनाढ्य वेल्मा की पार्टी बन चुकी है। दोनों तेलुगु प्रदेशों में सत्ता में प्रभावशाली इन तीनों वर्गों का वोट शेयर तीन-चार फीसदी ही है।
इस आरोप के उलट, रेड्डी समुदाय से जुड़े टीआरएस के दो सांसद कांग्रेस का हाथ थाम चुके हैं। पहली बार सांसद चुने गए कोंडा विश्वेश्वर रेड्डी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात के बाद अपने फैसले की घोषणा की, जबकि दूसरे सांसद गुता सुखेंदर रेड्डी हैं, जिन्होंने 2014 के पहले कांग्रेस छोड़ी थी। तो, गुत्थी उलझी हुई है।