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आस्था की रेल, हर सुविधा फेल

विशेष रेल श्री रामायण एक्सप्रेस की दशा तो ऐसी मानो कबाड़ से निकाल कर डिब्बों को जोड़ दिया गया हो लेकिन श्रद्धालुओं में उठतीं आस्‍था की लहरें खामियों-असुविधाओं पर भारी
नई दिल्ली में श्री रामायण एक्सप्रेस रवाना होने के मौके पर रामायण के चरित्रों के वेश में कलाकार

आगे बढ़ने के लिए ट्रेन जैसे ही प्लेटफॉर्म पर हिचकोले खाती है, सेवानिवृत्त बैंक कर्मचारी से ज्योतिषी बने रमाकांत अग्रवाल श्रद्धा से अपने हाथ छाती पर रख लेते हैं। स्लीपर कोच के इस डिब्बे में पंखों के ऊपर लगे स्पीकर से, ‘राम सिया राम सिया राम’ भजन की धुन बजने लगती है। आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ाए 70 साल के इस बुजुर्ग की उंगलियां रत्नजड़ित अंगूठियों से चमक रही हैं, उनके गले में गेंदे के फूलों की माला है, बालों में गुलाब की कुछ पंखुड़ियां फंसी हुई हैं और माथे पर लाल टीका लगा हुआ है। ये उस स्वागत की निशानियां हैं जो थोड़ी देर पहले हुआ है। उनके साथ प्रिंसिपल पद से सेवानिवृत्त उनकी पत्नी उमा भी हैं।

अग्रवाल मानते हैं कि ग्रह और सितारे उनके पक्ष में हैं जो उन्हें यह मौका मिला। अग्रवाल दंपती 800 अन्य लोगों के साथ भारतीय रेलवे द्वारा चलाई गई विशेष तीर्थयात्रा ट्रेन ‘श्री रामायण एक्सप्रेस’ का हिस्सा हैं जो 16 दिन में राम से जुड़ी सभी जगहों के दर्शन कराएगी। सफदरजंग रेलवे स्टेशन से शुरू हुई ट्रेन में तीर्थयात्रियों के स्वागत के लिए लाल कालीन बिछाया गया है। रामायण के चरित्रों की पोशाक में सजे कलाकार घूम रहे हैं। यात्रियों को ‘जय श्री राम’ और राम के चित्र वाले केसरिया दुपट्टे और पताकाएं दी जा रही हैं। माहौल में ‘जय श्री राम’ गूंज रहा है।

ट्रेन का अगला स्टॉप राम का जन्मस्थान अयोध्या है। इसके बाद ट्रेन पूरे देश में फैले रामायण से जुड़े स्थलों पर जाएगी। ये लंबी यात्रा उत्तर-दक्षिण से लेकर सीतामढ़ी, नेपाल के जनकपुर, वाराणासी, प्रयाग, चित्रकूट, हम्पी, नासिक और रामेश्वरम तक जाएगी। यह टूर आगे चलकर श्रीलंका भी जाएगा लेकिन फिलहाल यह दूर की कौड़ी है।       

ट्रेन चलते ही श्रद्धा में डूबे स्वागत का असर खत्म होने लगता है और वास्तविकता घेर लेती है। ऐसा लगता है कि रेलवे ने जल्दबाजी में कबाड़ में पड़े कुछ डिब्बे उठाए और इस विशेष ट्रेन में लगा दिए हैं। ट्रेन के डिब्बों पर लगे ‘श्री रामायण एक्सप्रेस’ के बैनर और गेंदे के फूल मालाओं के सिवा इसमें कुछ भी ‘खास’ नहीं है। गंदी बर्थ, धूल से अटी खिड़कियां और बिना सीट कवर के शौचालय, भारतीय रेल के कभी न बदलने वाले रवैए को खुद बयान कर रहे हैं। ट्रेन में बैठे लगभग सभी यात्री 60 या 70 साल के हैं। लेकिन असुविधा पर भक्ति भारी है। उनमें से एक महिला कहती हैं कि वह कितनी भाग्यशाली हैं जो इस पहली यात्रा में शामिल हैं। दूसरा उनसे सहमति जताता है-एक ही बार में रामायण से जुड़ी सारी जगहों को देखना जैसे सपना पूरा होने जैसा है।

दिल्ली में जमीन-जायदाद का काम करने वाले मुकेश अरोड़ा कहते हैं कि यह ट्रेन राम के नाम पर चलेगी। तभी दिल्ली के मॉडल टाउन में मोटर पार्ट्स का व्यापार करने वाले नरेंद्र कुमार बीच में बोल पड़ते हैं, “पूरा देश राम के नाम पर चल रहा है। कुछ अहमक समझते हैं कि सरकार इस देश को चला रही है।” कुमार की पत्नी कांता देवी डिब्बे के अगले हिस्से में महिलाओं की मंडली के साथ गा रही हैं, “दुनिया चले न राम के बिना, राम चले न हनुमान के बिना।” कुछ देर पहले अपने फोन चार्जर से जूझ रहे कुमार अब अपनी बेटी से फोन पर बात कर रहे हैं, “तुम्हारी मम्मी बहुत खुश हैं, सुनो।” और वह फोन आवाज की दिशा में कर देते हैं।   

16 दिन की यात्रा पर रवाना होने से पहले ट्रेन के कोच में लीला दिखाते कलाकार 

कुछ घंटे बीतते-बीतते आस्था किनारे चली जाती है और शिकायतें आराम से पैर पसारने लगती हैं, “टॉयलेट में पानी नहीं है।”, “टोंटी काम नहीं कर रही है”, “यात्रा पहली बार हो रही है लेकिन एकदम बकवास है”, “सरकार ने साठ साल के लोगों के लिए इसी उम्र की ट्रेन चुनी है”, “इन लोगों को ट्रेन का नाम बदलकर राम भरोसे एक्सप्रेस रख देना चाहिए।” कोच इंचार्ज अशोक राजपूत लोगों को तसल्ली देते हैं, “चिंता मत कीजिए भगवान राम ट्रेन की चिंता करेंगे।” कहीं से त्वरित जवाब आता है, “तो फिर आइआरसीटीसी क्या करेगा?”

रात में शिकायत में कल्पना का पुट है। नोएडा के राजीव कुमार कहते हैं, “यह सरकार की गलती नहीं है, ये तो आइआरसीटीसी के अधिकारियों की गलती है। ये लोग कांग्रेस के वफादार हैं और मोदी को नीचा दिखाना चाहते हैं।” उनके बगल में बैठे मध्य प्रदेश के लक्ष्मी प्रसाद कहते हैं कि ट्रेन में अटेंडेंट को केसरिया पहनाने से राम खुश नहीं होंगे।

दूसरे दिन ट्रेन कुछ घंटों की देरी से फैजाबाद पहुंची। ढोल वाले और तीर्थयात्रियों पर फूल बरसाने वाले ट्रेन की बाट जोह रहे थे। तीर्थयात्रियों से कहा गया कि जरूरत भर सामान साथ रख कर बाकी को ट्रेन में ही छोड़ दें। वहां 20 बसें हैं लेकिन सभी में भीड़ है। इन्हीं बसों में तीर्थयात्रियों को फैजाबाद से 10 किलोमीटर दूर अयोध्या जाना है। कांता पीछे बैठी महिला की ओर मुड़ीं और गाने लगीं, “लिख दो मेरे रोम-रोम में ओ राम” समूह तुरंत दूसरा अंतरा गाने लगा, “कई दिनों से बुला रहे हो...कोई तो नाता होगा।” भजन तब तक चलते रहे जब तक बसें धर्मशाला नहीं पहुंच गईं। बड़े हॉल में एक तरफ गद्दे और रजाइयां रखी हुई हैं। तीर्थयात्रियों में गद्दे-रजाई लेने की होड़ लग गई है। शौचालय गुटके और पान मसाले के पैकेट से जाम हो गए हैं और बदबू से भरे हुए हैं।

अयोध्या में मानो काल पुराने दौर में ही ठहरा हुआ है। यहां हर गली में राम के कटआउट हैं और उनकी प्रशंसा में चलने वाले भजनों की आवाज आती रहती है। मालाओं, सिंदूर और चढ़ाने के लिए पोशाकों की अनगिनत दुकानें वहां सजी हुई हैं। मिठाई की दुकानों पर लड्डूओं के ढेर लगे हैं। बंदरों के झुंड छतों पर बैठे हैं या दीवारों पर लटके सामान झपटने की ताक में हैं।     

भगवान की जन्मस्थली के पास कई स्तरों में सुरक्षा है। सुरक्षा का आलम यह है कि कंघा या पेन तक अंदर नहीं ले जाने दिया जा रहा। दो सुरक्षा जांच के बाद कतार स्टील की बाड़ वाली भूल-भुलैया में पहुंची। भक्तों की सर्पीली कतार जैसे-जैसे मंदिर के पास आती जा रही है, पुलिस की जगह सीआरपीएफ कमांडो नजर आने लगते हैं। आखिरकार एक घंटे और चार बार की सुरक्षा जांच के बाद हमारे श्रद्धालु उस जगह तक पहुंच गए हैं जो देश के सबसे कठिन राजनीतिक-धार्मिक मुद्दे का केंद्र है और अस्‍थाई शामियाने में है। उन्हें प्रार्थना में शीश झुकाने के लिए एक क्षण मिलता है, वहां चमकीले पीले रंग के आसन पर राम की मूर्ति रखी हुई है। इससे पहले कि वे मूर्ति को निहारें उन्हें वहां से हटा दिया जाता है।   

शाम को ट्रेन स्टाफ के सौजन्य से जलाए गए पटाखों की रोशनी में सरयू जगमगा जाती है। राम की एक बड़ी मूर्ति के बगल में घुटने टेके हनुमान की मूर्ति उस विस्तार का ही भाग लगती है। सरयू में दीपदान के तैरते दीये सरयू को जगमग रोशनी वाली नदी का अहसास देते लगते हैं।

तीसरे दिन तीर्थयात्री दोबारा ट्रेन में लौट आए हैं। पूरी ट्रेन में गीले कपड़ों को सुखाने के लिए बंधी रस्सी पर कई कपड़े सूख रहे हैं। नरेंद्र कुछ उदास हैं। उनकी जेब से किसी ने 15,000 रुपये चुरा लिए है। कांता कहती हैं, “हम तो भूल भी गए। हम तो राम जी को दे के आए हैं।”

उमा ट्रेन के टॉयलेट की कमी विशेष के बारे में बता रही हैं। तीर्थयात्रियों को ट्रेन की पेंट्री से भी शिकायत है। सर्विस बहुत देर से और धीमी है। पेंट्री सर्विस से नाराज एक तीर्थयात्री ‌डिब्बे के गलियारे में खड़ा होकर चिल्ला रहा है, “चाय नहीं, पानी नहीं, स्टाफ कर क्या रहा है?” कोच के इंचार्ज से संतोषजनक जवाब न मिलने के बाद वह घोषणा कर रहा है, “अब तुम देखना, तुमको खाना देने के ऑर्डर दिल्ली से मिलेंगे।” 

कांता शाश्वत आशावादी हैं। वह कहती हैं, “ये इतना चिल्ला क्यों रहे हैं? घर में भी खाना बनाने में देर हो जाती है।” उमा उनकी बात काटते हुए बताती हैं कि उन्होंने इस यात्रा के लिए प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से 15,000 रुपये दिए हैं। कांता कुछ देर चुप रहती हैं और फिर भजन गाने वाले समूह की ओर चली जाती हैं। थोड़ी देर बाद वह नरेंद्र से डायरी मांगने आती हैं, “मुझे उसमें भजन लिखना है। आजकल तो सब फिल्मी भजन मिलते हैं।”  

सुबह बातचीत राजनीतिक हो गई है। सामान्य मत है कि अयोध्या में रामजन्मभूमि वाली जगह पर जहां 1992 तक मस्जिद थी जिसे दक्षिणपंथियों ने गिरा दिया था, वहां बिना देरी किए मंदिर बनाना चाहिए। नरेंद्र कहते हैं, “भाजपा को कम से कम इस बारे में बात करनी चाहिए। दूसरी पार्टियां राम का नाम लेने से डरती हैं।” वह आगे जोड़ते हैं, पार्टी कभी मंदिर नहीं बनाएगी क्योंकि वह मौलिक मतदान के मुद्दे को छोड़ने से नाराज है। मुकेश तर्क देते हैं कि हो सकता है मुस्लिम प्रतिकार करें, लेकिन नरेंद्र कहते हैं कि ज्यादातर मुस्लिम मंदिर बनने के पक्ष में हैं, “आधे मुस्लिम तो राम-राम करके मिलते हैं।” एक टीवी रिपोर्टर जो फैजाबाद से चढ़ा था, बातचीत रेकॉर्ड करने की जुगत में है। अरोड़ा माइक्रोफोन पर बुदबुदाते हैं, “बहुत ही अविश्वसनीय, अविस्मरणीय यात्रा है।”

सीतामढ़ी में तीर्थयात्री जानकी माता के मंदिर पहुंचते हैं। गलियों में बेतरतीब ट्रैफिक है। बी ग्रेड की भोजपुरी फिल्मों के दीवारों पर चस्पां पोस्टर और रिक्शा पर लगे प्लास्टिक के फूल इसे छोटे शहर का अहसास कराता है।

यात्रियों को नेपाल में जनकपुर जाने के लिए फिर से जर्जर बसों में धकेल दिया गया है। गड्ढों से भरे रास्ते पर धूल उड़ रही है, एक बुजुर्ग हिम्मत से कहते हैं, इस बस में चलना तो बहुत कठिन है। भिट्टामोड़ सीमा पर एक महिला कमांडो बस में आती है और यात्रियों की गिनती करने लगती है। जानकी मंदिर पहुंचने तक बस एक घंटा और कीचड़ और ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलते हुए खेतों में खेलते नग्न बच्चों, ईंट भट्‍टों और धूल से सने टूटे पेड़ों को पीछे छोड़ती जा रही है। इस मंदिर के प्रांगण में वह मंडप है जहां राम और सीता का विवाह हुआ था।

एक बुजुर्ग जोड़ा मंदिर पर पड़ती सूर्य की किरणों से बचने के लिए आंखें तिरछी करता है और एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर अंदर प्रवेश कर लेता है। आसपास छोटी-छोटी दुकानें हैं जिन पर पीतल के बर्तन, सिंदूर और ऐसी ही छोटी-मोटी चीजें बिक रही हैं। एक दुकानदार हांक लगाता है, “भारतीय सौ रुपये के बदले नेपाल के 160 रुपये।” वह याद करता है कि कैसे 2015 के भूकंप में इस मंदिर के कई भाग क्षतिग्रस्त हो गए थे।

यात्री वाराणसी जाने के लिए फिर से ट्रेन में हैं। वे भक्ति और असुविधा के बीच अभी भी झूल रहे हैं। लेकिन आस्था ने असंतोष का हाथ थाम कर रखा है। उनमें से एक टिप्पणी करता है, “राम जी ने तो 14 साल का वनवास भोगा हम यह परेशानी भी नहीं झेल सकते क्या?”

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