राफेल न हुआ, मानो कोई बेताल हो, जो बीच बहस में मतिभ्रम पैदा कर देता है। कहने वाला कहने लगता है कि जो कहा गया, वह कहा ही नहीं गया। लिहाजा, राफेल बेताल अट्टहास कर उठता है और मामला जहां का तहां जा बैठता है। संसद के शीतकालीन सत्र में यही हुआ, उसके पहले सुप्रीम कोर्ट में भी वही हुआ। लोकसभा में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन सार्वजनिक उपक्रम हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के मामले में उलझ गईं या बकौल उनके उलझा दी गईं। उसके पहले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सरकार को अर्जी डालनी पड़ी कि उसने जो कहा था, उसे ठीक से नहीं समझा गया। इस पर जारी बहस से हिंदी कथाकार श्रीलाल शुक्ल के मशहूर उपन्यास राग दरबारी की याद भी बरबस आ जाती है, जिसके पात्र फंतासी बुनने की होड़ करते दिखते हैं। जैसे-जैसे बहस आगे बढ़ती है, रहस्य और गहराता जाता है।
रक्षा मंत्री ने संसद में लगभग ढाई घंटे बोलने का रिकॉर्ड जरूर बना दिया। यह संसद में बजट भाषणों के इतर अब तक का सबसे लंबा भाषण था। पहले दिन सुर्खियां सिर्फ यह बनीं कि बोफोर्स कांग्रेस को ले डूबा, राफेल एनडीए को नई उड़ान देगा। नया सौदा क्यों हुआ, किस दाम पर हुआ, क्यों एचएएल के बदले रिलायंस डिफेंस को ऑफसेट पार्टनर बनाया गया, ये सारे सवाल पहले की तरह खड़े रह गए। रक्षा मंत्री ने यह भी कहा कि एनडीए सरकार के दौरान करीब एक लाख करोड़ रुपये के ठेके मुहैया कराए गए जबकि यूपीए सरकार के दौरान कुछ नहीं हुआ इसलिए कांग्रेस घड़ियाली आंसू बहा रही है। लेकिन अगले ही दिन एचएएल में वेतन देने तक के लिए 1,000 करोड़ रुपये कर्ज लेने और किसी तरह का ठेका अभी न मिलने की खबरें आईं तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, “रक्षा मंत्री ने संसद में झूठ बोला, वे इस्तीफा दें।” रक्षा मंत्री का फौरन जवाब आया कि उन्होंने 26,643 करोड़ रुपये के ठेकों पर दस्तखत होने और 73,000 करोड़ रुपये ठेकों के पाइपलाइन में होने की बात की थी इसलिए “कांग्रेस अध्यक्ष को मिथ्या प्रचार के लिए शर्मसार होना चाहिए।” कांग्रेस राफेल सौदे में कथित घोटाले और प्रक्रियाओं के घोर उल्लंघन के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से जांच कराने पर अड़ी हुई थी। एनडीए सरकार के संकटमोचन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में बहस करा लेने की चुनौती दी तो लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने उसे स्वीकार लिया।
मगर पहले ही दिन कांग्रेस अध्यक्ष ने एक ऑडियो टेप बजाने की इजाजत चाही तो ऑथेनटिकेट किए बिना उसे बजाने की इजाजत नहीं मिली। बाद में यह टेप कांग्रेस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में बजाया, जिसमें गोवा के एक मंत्री कहते सुने जाते हैं कि मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर (जो राफेल सौदे पर दस्तखत के दौरान रक्षा मंत्री हुआ करते थे) ने दावा किया कि राफेल की फाइल मेरे बेडरूम में पड़ी है। कथित तौर पर पर्रीकर कह चुके हैं कि राफेल सौदे के बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी और शुरुआत में उसकी कीमत प्रति विमान 650 करोड़ रुपये थी। अब कांग्रेस का दावा है कि आखिरी कीमत 1600 करोड़ रुपये के आसपास पड़ रही है। उसका सवाल है कि यह कीमत कैसे और किस प्रक्रिया के तहत तय की गई।
मौजूदा रक्षा मंत्री ने कहा कि पूरी शस्त्र-व्यवस्था के साथ कीमत यूपीए के दौर में तय कीमत से नौ फीसदी कम बैठती है। लेकिन क्या जोड़ेंगे और कैसे जोड़ेंगे, यह जवाब नदारद था। उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस न जाने कहां से यूपीए के दौर में प्रति विमान कीमत 526 करोड़ रुपये होने का दावा कर रही है। हालांकि कांग्रेस के मीडिया प्रमुख रणदीप सुरजेवाला कहते हैं, “526 करोड़ रुपये और 1660 करोड़ रुपये की राशि संसद में अरुण जेटली के दिए बयानों से ही हासिल हुई है, जो यूपीए सरकार के दौरान 126 विमानों और मौजूदा 36 विमानों के सौदे की कुल राशि से एक विमान की कीमत निकालने से हासिल हुई है।” बहरहाल, 126 विमानों के बदले अचानक 36 विमान खरीदने का फैसला कैसे और क्यों लिया गया? रक्षा मंत्री का जवाब था, “126 में 18 विमान ही एकदम तैयार हालत में पूरी शस्त्र-व्यवस्था से लैश आने वाले थे, बाकी तो एचएएल में बनाए जाने थे लेकिन तात्कालिकता के मद्देनजर इसके दोगुना विमान लाने का फैसला किया गया।”
इस तरह मामला 126 का नहीं, 18 के मुकाबले 36 का है। फिर, एचएएल की जगह ऑफसेट पार्टनर अनिल अंबानी की एकदम नई-नवेली कंपनी रिलायंस डिफेंस को क्यों बनाया गया और इसका फैसला कैसे लिया गया? उनका जवाब था, एचएएल को तो कांग्रेस अगुआई वाली पूर्व यूपीए सरकार ने ही परियोजनाओं से खाली कर रखा था, एनडीए सरकार ने तो आकर उसे कई नई परियोजनाएं मुहैया कराईं और ऑफसेट पार्टनर तय तो राफेल की कंपनी दस्सां ने किया। कांग्रेस इस मामले में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रास्वां ओलांद के फ्रांसीसी मीडिया को दिए उस बयान पर जोर देती है कि रिलायंस को ऑफसेट पार्टनर बनाने का फैसला भारत सरकार का था। हालांकि सरकार उसके बाद दस्सां के सीईओ का बयान उद्धृत करती है कि रिलायंस को पार्टनर बनाने का फैसला कंपनी का ही था। यहां एक और पेच फंसा हुआ है। 2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति ओलांद भारत में गणतंत्र दिवस समारोहों में मुख्य अतिथि के नाते शामिल हुए। तब उनकी जीवन संगिनी मशहूर मॉडल जूली गायेत की एक फिल्म को रिलायंस इंटरटेनमेंट ने प्रोड्यूस किया और लेह वगैरह में शूटिंग की व्यवस्था की थी। जब यह विवाद फ्रांस की मीडिया में उभरा तो ओलांद ने सफाई पेश की। इसके पहले राहुल गांधी संसद में यह भी दावा कर चुके हैं कि फ्रांस के मौजूदा राष्ट्रपति इमैनुयल मैक्रां ने उनसे कहा कि राफेल विमानों के दाम को गुप्त रखने की कोई रणनीतिक साझेदारी नहीं हुई है। मोदी सरकार की दलील है कि दाम जाहिर करना रणनीतिक साझेदारी का उल्लंघन होगा और इसका देशहित पर बुरा असर पड़ेगा।
इसी दलील के साथ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में सीलबंद लिफाफे में अपना हलफनामा पेश किया था। सुप्रीम कोर्ट के सामने राफेल सौदे से संबंधित तीन-चार याचिकाएं लंबित थीं। एक याचिका में पहली एनडीए सरकार के पूर्व मंत्रियों यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और वकील प्रशांत भूषण ने विस्तृत ब्यौरे के साथ सौदे की कोर्ट की निगरानी में सीबीआइ जांच की मांग की थी। इन याचिकाओं पर 14 दिसंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि इसकी जांच हमारे दायरे में नहीं है और करार की शर्तें तय करने के सरकार के अधिकार पर सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता। लेकिन फैसले में यह भी लिखा गया कि इसके दाम पर नियंत्रक और महा लेखा परीक्षक (कैग) की जांच हो चुकी है और उसकी रपट संसद की लोकलेखा समिति (पीएसी) देख चुकी है और संसद में पेश हो चुकी है। बस यहीं मामला फंस गया। फैसले के फौरन बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में पीएसी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि उन्होंने रिपोर्ट नहीं देखी है और डिप्टी कैग ने उन्हें बताया कि ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है। उसके दो दिनों बाद सरकार ने कोर्ट में अर्जी लगाई कि उसने कहा था कि कैग जांच करेगा और रिपोर्ट पीएसी और संसद में पेश होगी, इसलिए फैसले में सुधार कर लिया जाए।
इसी वजह से यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में समीक्षा याचिका लगाई है। सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या फैसला सुनाता है, यह देखने की बात होगी। लेकिन क्या यह गजब का मामला नहीं है कि देश की सर्वोच्च अदालत को भी नए सिरे से विचार करना पड़ सकता है। यही राफेल का रहस्य है जो सुलझाने की हर कोशिश के साथ उलझता जा रहा है। सामान्य तर्क तो यही कहता है कि जब सवाल ही सवाल हावी हो जाए तो मुकम्मल जांच की ओर बढ़ना चाहिए। इससे सरकार पर अधिक भरोसा कायम हो जाएगा। लेकिन इसके बदले तर्कों की गुगली का सहारा लिया जा रहा है। रक्षा मंत्री ने 2014 के फरवरी महीने में पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी के एक बयान का जिक्र किया कि पैसा कहां है। एंटनी का आशय शायद यह था कि पिछले साल के बजट की अवधि समाप्त हुई और अब नए बजट के आवंटन से ही सौदा आगे बढ़ाया जा सकता है। लेकिन मौजूदा रक्षा मंत्री ने इसे इस रूप में पेश किया कि मामला मनी का था इसलिए सौदा लटका रहा। इसी तरह कांग्रेस की ओर से भी बहस के दौरान कागजी जहाज उड़ाना, गंभीरता को कम करता है।
दरअसल 2007 में शुरू हुई 126 विमानों के सौदे पर बातचीत 2014 के जनवरी में आकर मुकम्मल हुई थी, तब तक उस वित्त वर्ष का रक्षा बजट पूरा हो चुका था और अगले बजट में ही उस पर अमल हो सकता था। इतने लंबे समय तक लटकने की वजह दाम पर विवाद से लेकर शस्त्रों के आकार-प्रकार तक के मसले बताए जाते हैं। इस दौरान पूरे सौदे की जांच-परख तत्कालीन पीएसी ने भी की थी, जिसके अध्यक्ष भाजपा नेता मुरलीमनोहर जोशी थे। 18 विमान तैयार हालत में आने थे। बाकी 108 का निर्माण दस्सां के तकनीक हस्तांतरण के साथ एचएएल में होना था। 8 अगस्त 2014 को तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने इसकी पुष्टि भी की थी। 2015 में दस्सां के सीईओ ने कहा कि एचएएल से करार 95 फीसदी तक पूरा हो गया है लेकिन उसके दो दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने फ्रांस दौरे में इसे खारिज करके नए सौदे के तहत 36 विमान तैयार हालत में लेने के फैसले का ऐलान किया। इसमें िरलायंस को ऑफसेट पार्टनर बनाया गया और उसे बिना कुछ किए ऑफसेट करार का 70 फीसदी 21,000 करोड़ रुपये मिलने हैं क्योंकि विमान तो दस्सां से तैयार हालत में आएंगे।
जो भी हो, यह 2019 के चुनावों में बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इसके जरिए ‘चौकीदार चोर है’ का नारा उछाल रहे हैं जबकि भाजपा अगस्ता वेस्टलैंड से वीवीआइपी हेलीकॉप्टरों के सौदे में बिचौलिए मिशेल के प्रत्यर्पण के जरिए कांग्रेस को घेरने की कोशिश कर रही है। ये कोशिशें कितनी कामयाब होंगी, इसका जवाब तो आम चुनावों के जनादेश से ही जाहिर होगा।