अपने विचारों और नए तथ्यों के साथ मुद्दों को मोड़ने में माहिर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल के एक चर्चित साक्षात्कार में दिए जवाब ने किसान, कर्ज और कृषि क्षेत्र के संकट पर बहस को नई दिशा दे दी है। उन्होंने कहा कि किसानों की कर्जमाफी का मुद्दा चुनाव जीतने की राजनीति बन गया है और उसका फायदा ज्यादातर किसानों को नहीं होता। इसकी वजह भी उन्होंने बताई कि अधिकांश किसान तो सांस्थानिक कर्ज (इंस्टीट्यूशनल क्रेडिट) लेते ही नहीं हैं, इसलिए देश के सभी किसानों को कर्जमाफी का फायदा नहीं मिल पाता है। उनके इस जवाब ने कई सवाल भी खड़े किए हैं। मसलन, जब प्रधानमंत्री को इतना साफ पता है कि किसान इंस्टीट्यूशनल क्रेडिट सिस्टम से बाहर हैं तो उनको इस सिस्टम में लाना चाहिए था। उन्हें यह काम तो सत्ता में आते ही शुरू कर देना चाहिए था, ताकि अब तक 80-90 फीसदी किसान सांस्थानिक क्रेडिट सिस्टम में आ जाते, जिसमें किसानों को कर्ज मिलना आसान है और ब्याज दर भी काफी कम है। फिर, सरकार जो ब्याज सब्सिडी देती है, वह हर साल बजट में बताई जाती है। लेकिन अब तो उनके नेतृत्व में एनडीए सरकार के कुछ ही महीने बचे हैं।
आज की हकीकत तो यही है कि लंबे अरसे बाद किसान देश की राजनीति के केंद्र में आ गया है और 2019 के लोकसभा चुनावों में केंद्र की सरकार तय करने में उसकी भूमिका अहम होने जा रही है। हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे साबित करते हैं कि किसानों की कर्जमाफी और बेहतर फसल कीमत जैसे मुद्दे बहुत प्रभावी रहे हैं। इसलिए, प्रधानमंत्री भले कर्जमाफी को वोट हासिल करने की सस्ती राजनीति बताते हों लेकिन तय लगता है कि आने वाले दिनों में उनकी सरकार किसानों को आर्थिक मदद के लिए कुछ न कुछ कदम उठाएगी।
वैसे, यहां हम बात कृषि कर्ज पर ही केंद्रित रखेंगे। 1990 की कर्जमाफी के बाद 2008 में केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की पहली सरकार ने एग्रीकल्चरल डेट वेवर एंड डेट रिलीफ स्कीम (एडीडब्ल्यूडीआरएस) लागू की थी, जो देश भर में हुई थी। इस पर शुरुआती अनुमान करीब 70 हजार करोड़ रुपये खर्च का था। लेकिन करीब 52 हजार करोड़ रुपये ही खर्च हुए। इसका नतीजा यह हुआ कि लंबे समय बाद देश में केंद्र में किसी पार्टी की सरकार दोबारा सत्ता में आई। दिलचस्प बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कृषि उत्पादों की ऊंची कीमतों के चलते उस समय देश में कृषि संकट वैसा नहीं था, जैसा इस समय है। इसलिए उस समय कर्जमाफी की कोई बड़ी मांग नहीं थी। इस फॉर्मूले को बाद में भाजपा समेत कई दलों ने अपनाया। 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भारी जीत के बाद भाजपा सरकार ने पहली ही कैबिनेट बैठक में चुनावी वादे के मुताबिक, 36 हजार करोड़ रुपये के कृषि कर्ज माफ करने का फैसला किया। उसके बाद महाराष्ट्र और असम में भी भाजपा सरकारें कर्जमाफी लागू कर चुकी हैं। अब प्रधानमंत्री के कहे मुताबिक तो उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी ने कर्जमाफी का वादा राजनैतिक फायदे के लिए ही किया था। उस चुनाव में उन्होंने जबरदस्त चुनाव प्रचार किया था और बार-बार कर्जमाफी की बात दोहराई थी। अब जब इसी फार्मूले से कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता हासिल कर ली है तो राय बदली हुई दिख रही है। वैसे, कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने इसे लोकसभा चुनावों का केंद्रीय मुद्दा बना दिया है।
अब आइए इस दलील पर कि किसान सांस्थानिक सिस्टम से बाहर हैं। 2008 से 2017 के बीच कृषि कर्ज में करीब साढ़े तीन गुना की बढ़ोतरी हुई है और वह साढ़े दस लाख करोड़ रुपये के करीब पहुंच गया। कृषि कर्ज का एनपीए भी करीब दस हजार करोड़ रुपये से बढ़कर साठ हजार करोड़ रुपये को पार कर गया है। लेकिन बैंकों के करीब 14 लाख करोड़ रुपये के एनपीए के मुकाबले यह बहुत कम है और देश में बैंकों के औसत एनपीए के स्तर से भी यह काफी कम है। इन आंकड़ों में दो तर्कों के जवाब हैं। एक, कृषि कर्ज काफी कम है, यह बात सही नहीं है। दूसरे, किसान कर्जमाफी से क्रेडिट कल्चर खराब होने की बात तमाम बैंकर और अर्थविद कह रहे हैं। इस तर्क को सही साबित करने के लिए नीति आयोग, रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय और दूसरे सरकारी विभागों के अधिकारी काफी मुखर हैं। अगर ऐसा होता तो 2008 की देशव्यापी कृषि कर्जमाफी के बाद एनपीए इससे कहीं ज्यादा होता। वैसे राजनैतिक फायदे को देखते हुए आठ राज्यों ने दो लाख करोड़ रुपये से अधिक के कर्ज माफ करने की घोषणा की है। इनमें कई भाजपा शासित राज्य भी शामिल हैं।
एक तर्क यह भी है कि कर्जमाफी से करीब तीस फीसदी किसानों को ही फायदा होता है और उनमें कई बड़े किसान हैं। लेकिन अगर कर्जमाफी के लिए तय शर्तों पर गौर करें तो अधिकांश मामलों में पांच एकड़ या दो हेक्टेयर जोत वाले किसानों के ही कर्ज माफ किए गए हैं। कर्जमाफी की सीमा भी 50 हजार रुपये से लेकर दो लाख रुपये तक की रखी गई है। कई राज्यों में तो तय सीमा से ऊपर कर्ज होने की स्थिति में बकाया कर्ज चुकाने पर ही उनके कर्ज माफ हो रहे हैं। वैसे भी फसली ऋण ही माफ किया जा रहा है और एक सीजन के बाद किसान को कर्ज चाहिए तो उसे पहले सीजन का कर्ज चुकाना है। साल के अंत में उसे मूलधन और ब्याज पूरा चुकाना होता है और उसके बाद ही अगला कर्ज मिलता है।
कर्ज न चुकाने की स्थिति में उसे रिस्ट्रक्चर करने की कोई व्यवस्था फसली ऋण में नहीं है। इसीलिए अधिकांश किसान तय समयसीमा में कर्ज चुका देते हैं। कई बार कुछ दिनों के लिए साहूकारों से ऊंची ब्याज दर पर कर्ज लेकर बैंक के कर्ज चुका कर अगले सीजन का कर्ज लेते हैं।
एक विचार यह भी आ रहा है कि किसानों को कर्जमाफी के बजाय सीधे पैसा दे दिया जाए। जैसा तेलंगाना ने किया है, जिसमें एक फसल के लिए चार हजार रुपये प्रति एकड़ और दो फसलों के लिए आठ हजार रुपये प्रति एकड़ दिए गए। वहां यह स्कीम कुछ हद तक कामयाब रही है क्योंकि भू-अभिलेख बहुत हद तक डिजिटलाइज किए जा चुके हैं। लेकिन देश के अधिकांश राज्यों में ऐसा नहीं है। इसलिए वास्तविक लाभार्थी तक यह राशि पहुंचेगी, इसमें संदेह है। फिर, बंटाईदार किसानों की संख्या ज्यादा है और इस तरह की राशि उसके खाते में नहीं पहुंच सकती है। राज्यों में हो रही कर्जमाफी में भी यह दिक्कत आ रही है क्योंकि लैंड रिकॉर्ड को आधार से जोड़ने जैसी पेचीदा शर्त भी कई जगह लागू की गई है। दिलचस्प बात यह है कि इसका इलाज लैंड लीजिंग एक्ट में देखा गया था। केंद्र सरकार के पास मॉडल लैंड लीजिंग एक्ट तैयार है लेकिन राजनैतिक रूप से संवेदनशील होने की वजह से इसे लागू नहीं किया गया है। इससे बंटाईदार किसान सब्सिडी से लेकर बैंकों से कर्ज तक के लिए योग्य हो जाता।
वैसे, हमारे नीति-निर्धारकों और अर्थशास्त्रियों को थोड़ा बाहर भी देखना चाहिए। दुनिया भर में कृषि उपज की कीमतों में गिरावट से किसानों की आर्थिक दिक्कतें बढ़ी हैं और अमेरिका से लेकर कनाडा, यूरोपीय देशों और न्यूजीलैंड जैसे देशों की सरकारों ने किसानों के कर्ज के मामले में रियायतें दी हैं। फिर, यहां दिक्कत क्यों है? अमेरिका के 867 अरब डॉलर वाले यूएस फार्म बिल, 2018 का एक बड़ा हिस्सा किसानों की दिक्कत को हल करने से संबंधित है।
संसाधनों का सवाल भी उठाया जा रहा है। संसाधनों के मामले में मुद्दा घूम-फिरकर करीब चार लाख करोड़ रुपये पर आ रहा है। इसे डायरेक्ट इनकम सपोर्ट में दिया जाए या कर्जमाफी में। कर्जमाफी का फायदा यह है कि बैंकों की बैलेंसशीट साफ हो जाएगी क्योंकि यह पैसा बैंकों में ही ट्रांसफर होगा। इसके चलते किसान अगला कर्ज लेने के लिए पात्र हो जाएगा। तो फिर बैंकों के संकट का हवाला देने वाले तर्क में दम नहीं है।
दरअसल, आल इंडिया किसान संघर्ष को-ऑर्डिनेशन कमेटी ने किसान कर्ज मुक्ति विधेयक का खाका तैयार किया और पहली बार 21 राजनैतिक दलों को इससे जोड़ा और समर्थन हासिल किया। किसान संगठनों समेत सभी इस पर लगभग एकमत हैं कि टिकाऊ उपाय यह नहीं कुछ और है, और वह है कृषि उपज के लाभकारी मूल्य देने की व्यावहारिक व्यवस्था। जब तक वह व्यवस्था बनती है तब तक उसे जिंदा रखने के लिए कर्ज के मोर्चे पर राहत देने के विकल्प पर अमल करने में क्या बुराई है?