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राष्ट्रवाद की नई खुराक

कट्टर राष्ट्रवाद, खास विचारधारा से ओत-प्रोत राजनैतिक किरदार वाली फिल्में क्या विशेष विचार को स्वीकृति दिलाने की कोशिश?
द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर में मनमोहन सिंह की भूमिका में अनुपम खेर तथा सोनिया गांधी के किरदार में सुजैन बर्नर्ट

अमेरिकी कवि और दार्शनिक क्रिस जैमी ने एक बार कहा था, “पॉपुलर कल्चर वह जगह है, जहां तरस खाने को सहानुभूति, गॉसिप को न्यूज और प्रॉपेगेंडा को सच्चाई मान लिया जाता है।” फिल्में भी इस पॉपुलर कल्चर का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। आने वाले हफ्तों में कुछ ऐसी हिंदी फिल्में रिलीज होने जा रही हैं, जिन्हें फिल्म इंडस्ट्री से लेकर मीडिया तक, हर जगह प्रॉपेगेंडा फिल्मों की तरह देखा जा रहा है। इन फिल्मों में राजनीति भी है और धार्मिक उन्माद भी, सेना के बहाने कट्टर राष्ट्रवाद भी और एक विशेष विचारधारा में लपेटकर पेश किए गए ऐतिहासिक किरदार भी।

बात हो रही है, विवेक ओबरॉय अभिनीत ‘पीएम नरेन्द्र मोदी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत ठाकरे, अनुपम खेर और अक्षय खन्ना अभिनीत द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर, कंगना रनौत अभिनीत मणिकर्णिका और विकी कौशल व परेश रावल अभिनीत उड़ी की। इनके बारे में बात करने से पहले यह समझना जरूरी है कि प्रॉपेगेंडा फिल्म का वास्तविक अर्थ क्या होता है। पारंपरिक अर्थों में प्रॉपेगेंडा फिल्म का मतलब है ऐसी फिल्म जिसे इस अंदाज में पैकेज किया गया हो कि वह या तो अपने दर्शकों के बीच किसी विशेष राजनैतिक विचार को स्वीकृत करवाने का प्रयास करे या उनके मत और व्यवहार पर ऐसा असर डाले जिससे उनके राजनैतिक निर्णय प्रभावित हों। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बायोपिक ‘पीएम नरेंद्र मोदी' का पोस्टर मुंबई में लॉंच हुआ। मोदी की भूमिका विवेक ओबेरॉय निभा रहे हैं और उनके पिता सुरेश ओबेरॉय इसके प्रोड्यूसर हैं। खास बात ये है कि पोस्टर लॉन्च कार्यक्रम में महाराष्ट् के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस चीफ गेस्ट थे। इससे भी ज्यादा खास बात ये है, कि कार्यक्रम में प्रोड्यूसर ने साफ कहा, कि उन्हें उम्मीद है, कि फिल्म इस साल अप्रैल या मई में रिलीज की जाएगी यानी लोकसभा चुनाव के दौरान या उससे ठीक पहले। आप समझ सकते हैं, कि फिल्म को किस मकसद से बनाया गया है। 25 जनवरी को रिलीज हो रही ठाकरे, दिवंगत शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे की बायोपिक है। इसमें बाल ठाकरे के राजनीति में आने, शिवसेना का गठन करने और राष्ट्रीय प्रभाव रखने वाले एक विवादास्पद नेता के रूप में मशहूर होने की कहानी है। फिल्म में मराठियों के बीच उनकी भारी लोकप्रियता से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस और मुंबई दंगों में उनकी भूमिका तक हर मुद्दे को जगह दी गई है, पर अंदाज कुछ ऐसा है, मानो उन्होंने राजनीति के नाम पर जो कुछ भी किया, सिर्फ और सिर्फ लोगों के भले के लिए किया। मजे की बात ये है कि मुस्लिमों के खिलाफ तरह-तरह के विवादास्पद बयान देने के लिए मशहूर रहे बाल ठाकरे का किरदार नवाजुद्दीन सिद्दीकी निभा रहे हैं, जो खुद एक मुस्लिम हैं। 2016 में जब नवाजुद्दीन उत्तर प्रदेश स्थित अपने कस्बे बुढ़ाना की रामलीला में एक किरदार निभाने वाले थे, तो शिवसेना के विरोध के चलते उन्हें अपना नाम वापस लेना पड़ा था। शिवसेना के नेताओं का तर्क था, कि नवाज एक मुस्लिम हैं, इसलिए वे रामलीला में काम नहीं कर सकते। उस समय नवाज मीडिया में आकर कह रहे थे कि कैसे धर्म के नाम पर एक कलाकार को उसका काम करने से रोका जा रहा है। 

उड़ीः सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी फिल्म का दृश्य

अब इंडस्ट्री के अंदर नवाज को ठाकरे फिल्म में काम करने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर में उनके साथ काम कर चुकीं रिचा चड्ढा ने नवाज का नाम लिए बिना ट्विटर पर उनका मजाक उड़ाते हुए कहा, “अरे ई हमरा फैजल तो बाइपोलर निकला बे!” उनके इस ट्वीट को इंडस्ट्री के कई लोगों ने रीट्वीट भी किया। दरअसल रिचा अपने ट्वीट से नवाज के फिल्मों के चुनाव पर निशाना साध रही थीं, जो पहले तो डायरेक्टर नंदिता दास की फिल्म मंटो में प्रगतिवादी पाकिस्तानी लेखक सआदत हसन मंटों का किरदार निभाते हैं पर फिर ठाकरे जैसी फिल्म में मंटो से ठीक विपरीत बाल ठाकरे जैसे विवादास्पद नेता की भूमिका निभाने से भी संकोच नहीं करते। रिचा चड्ढा के अलावा दक्षिण के मशहूर अभिनेता सिद्धार्थ ने भी दक्षिण भारतीय लोगों के बारे में द्वेषपूर्ण पंक्तियां दोहराने के लिए इस फिल्म की खुलकर आलोचना की और इसे नफरत बेचने वाली प्रॉपेगेंडा फिल्म करार दिया।

दरअसल ठाकरे को प्रॉपेगेंडा फिल्म के तौर पर देखे जाने का सबसे बड़ा कारण है, इसके प्रोड्यूसर और राइटर संजय राउत का शिवसेना नेता और राज्यसभा सांसद होना। वे शिवसेना के मुखपत्र सामना के एक्जिक्यूटिव एडिटर भी हैं। संजय अपने विवादास्पद बयानों के लिए चर्चित रहे हैं। 2012 में जब बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद मुंबई में बंद जैसे हालात थे, तो फेसबुक पर मुंबई की शाहीन धाडा नामक एक लड़की ने कथित रूप से इसकी आलोचना करते हुए लिखा था कि “एक ऐसे व्यक्ति के लिए पूरे शहर को ठप कैसे किया जा सकता है, जो हालिया दौर की सबसे हिंसक घटनाओं से करीब से जुड़ा रहा हो। बेहतर होगा कि हम ऐसे लोगों के बजाय भगत सिंह और सुखदेव जैसे असली नायकों को याद करें।” इसके तुरंत बाद मुंबई पुलिस ने इस लड़की को गिरफ्तार कर लिया और साथ ही उसकी रेनू नाम की एक सहेली को भी हवालात में डाल दिया, जिसने उसके इस स्टेटस को लाइक किया था। हालांकि बाद में पुलिस को इन दोनों लड़कियों को जमानत पर छोड़ना पड़ा, पर संजय राउत उनकी गिरफ्तारी को जायज ठहराते रहे। ये वही संजय राउत हैं, जिन्होंने 2015 में शिवसेना के मुखपत्र सामना में लेख लिखकर कहा था कि कि मुस्लिमों से उनके वोट देने का अधिकार छीन लेना चाहिए।

दूसरी ओर शिवसेना के निचले स्तर के नेता ठाकरे के प्रचार के लिए गुंडागर्दी पर भी उतर आए हैं। पार्टी की फिल्म विंग चित्रपट सेना के सेक्रेट्री बाला लोकारे ने सार्वजनिक रूप से यह धमकी दी, कि “आने वाली 25 जनवरी को ठाकरे के साथ हम किसी और फिल्म को रिलीज नहीं होने देंगे।” उनकी इस धमकी के बाद टी-सीरीज को अपनी अगली फिल्म चीट इंडिया की रिलीज डेट बदलनी पड़ी। इमरान हाशमी अभिनीत यह फिल्म पहले 25 जनवरी को ठाकरे के साथ ही रिलीज होने वाली थी, पर अब इसे एक हफ्ता पहले 18 जनवरी को रिलीज किया जा रहा है।

ठाकरे के साथ ही एक अन्य फिल्म द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर की भी आजकल बड़ी चर्चा है। यह फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारू की इसी शीर्षक वाली किताब पर आधारित है। इसे प्रॉपेगेंडा फिल्म के तौर पर देखे जाने के लिए कई कारण हैं। सबसे पहला कारण तो यही है, कि इसमें मनमोहन सिंह का किरदार अनुपम खेर निभा रहे हैं, जिन्हें आजकल उनकी एक्टिंग के लिए कम और सोशल मीडिया पर कांग्रेस पर तीखे हमले करने के लिए ज्यादा जाना जाता है। अनुपम को भाजपा का खास माना जाता है और उनकी पत्नी व अभिनेत्री किरण खेर चंडीगढ़ से भाजपा की सांसद भी हैं।

दूसरा कारण है भाजपा के आधिकारिक ट्विटर हैंडल द्वारा इस फिल्म का ट्रेलर शेयर किया जाना और वह भी इस टिप्पणी के साथ, कि “एक दिलचस्प कहानी, जो बताती है कि कैसे एक परिवार ने पूरे देश को दस साल तक बंधक बनाकर रखा। क्या डॉ. सिंह बस एक हाकिम थे, जिन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी को तब तक संभालना था, जब तक परिवार का उत्तराधिकारी उस पर बैठने के लिए तैयार नहीं हो जाता।”

मणिकर्णिकाः सद्गुजरु जग्गी वासुदेव के साथ फिल्म मणिकर्णिका में रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका निभा रही कंगना रनौत

दरअसल, भारतीय फिल्म के इतिहास में यह पहला मौका था, जब सत्तारूढ़ दल सार्वजनिक रूप से किसी ऐसी हिंदी फिल्म के समर्थन में खुलकर सामने आया हो, जिसमें विपक्षी दल के नेताओं को नकारात्मक ढंग से पेश किया गया हो। इस फिल्म में एक और चीज ऐसी है, जो किसी हिंदी फिल्म में पहली बार हो रही है। इसमें राजनीतिक किरदारों का असली नाम इस्तेमाल किया गया है। वरना हिंदी फिल्मों में तो किरदारों का असली नाम बदल देने का चलन बहुत पुराना है। यहां तक कि सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्मों में भी शुरुआत में खासतौर पर यह घोषणा की जाती है, कि यह फिल्म किसी व्यक्ति विशेष पर आधारित नहीं है। अगली फिल्म है मणिकर्णिका जो वैसे तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी है, पर इसमें उनकी धार्मिक पहचान को खासतौर पर उभारा गया है और साथ ही डायलॉग्स में बार-बार देश बचाने की बात की गई है, जबकि उस दौर में भारत देश का विचार न के बराबर ही था और हर रानी या राजा अपनी रियासत को ही अपनी मातृभूमि के रूप में देखता था। खैर यहां तक तो फिर भी बात समझ आती है, पर मामला और पेचीदा हो जाता है, अगर इस फिल्म में पैसा लगाने वाली कंपनी पर गौर करें। मिणकर्णिका को जी स्टूडियो ने प्रोड्यूस किया है। यह एस्सेल ग्रुप की कंपनी है, जिसके मालिक मीडिया मुगल सुभाष चंद्रा हैं। वे राज्यसभा सांसद हैं और भाजपा के करीबी माने जाते हैं। वहीं, दूसरी ओर मिणकर्णिका के डायलॉग और गाने प्रसून जोशी ने लिखे हैं, जिन्हें भाजपा से अच्छे रिश्तों के कारण ही सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया है। इसका फायदा मिणकर्णिका को जरूर मिलेगा, क्योंकि जो राइटर हैं, उन्हीं को सेंसर सर्टिफिकेट भी देना है। अगर इसमें आपको कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट नज़र आए, तो यकीन मानिए आपकी कोई गलती नहीं है।

कुछ महीनों पहले जब मिणकर्णिका का पहला ट्रेलर रिलीज हुआ, तो फिल्म के प्रमोशन के लिए कंगना रनौत अचानक सद्‍गुरु जग्गी वासुदेव का इंटरव्यू लेने पहुंच गईं। उन्हें भी भाजपा का करीबी माना जाता है। जबकि सद्‍गुरु का न तो कंगना से कोई लेना-देना है, न मिणकर्णिका से। इस इंटरव्यू में कंगना और सद्‍गुरु ने देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर गंभीर चर्चा की, जैसे राष्ट्रवाद, गाय, योग वगैरह। बातों-बातों में कंगना ने बीफ बैन को भी सही ठहरा दिया और खुद को शाकाहारी बता डाला। जबकि इसके कुछ महीनों पहले ही उन्होंने एक अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में कहा था, कि बीफ खाना उन्हें बहुत पसंद है और वे जब भी विदेश यात्रा पर जाती हैं, बीफ जरूर खाती हैं।

पीएम नरेंद्र मोदीः प्रधानमंत्री पर बनने वाली फिल्म का पोस्टर

खैर, सवाल ये है, कि इस फिल्म के साथ ये निहायत ही छिछले विवाद क्यों जुड़ गए? यह प्रॉपेगेंडा फिल्म कैसे बन गई? जबकि असल में तो यह फिल्म रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना की कहानी है, जिन्होंने अकेले अपने दम पर ढेरों अंग्रेजों को पछाड़ दिया था। इसका कारण यह है कि आज राजनीति हमारी जिंदगी के हर पहलू में घुस गई है। आज हम अपने दोस्तों के बीच भी ये फर्क बड़ी आसानी से करने लगे हैं कि उनमें से कौन राइट विंग वाला है और कौन लेफ्ट विंग वाला। फिल्म इंडस्ट्री भी कुछ अलग नहीं है। मणिकर्णिका के मामले का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह भी है, कि आज हिंदी फिल्मों की दुनिया में फिल्म के कंटेट से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं, फिल्म से जुड़ी अन्य चीजें, जैसे उसकी मार्केटिंग, प्रमोशन और पोजिशनिंग वगैरह। तभी तो खोसला का घोंसला, चक दे इंडिया और शुद्ध देसी रोमांस जैसी फिल्में लिख चुके जयदीप साहनी कहते हैं, कि “बॉलीवुड में फिल्म सिर्फ एक बाई-प्रोडक्ट होती है, असली प्रोडक्ट तो मार्केटिंग है।” इसलिए फिल्म के कंटेट में भले ही प्रॉपेगेंडा कम नजर आए, लेकिन इसकी मार्केटिंग और प्रमोशन में सत्तारूढ़ दल के लिए फायदेमंद राजनीतिक मुद्दों को खूब भुनाया जा रहा है, जो प्रॉपेगेंडा का ही एक और रूप है।

इन्हीं फिल्मों में से एक है उड़ी, जो 2016 में भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है। आपको याद होगा, हमारे देश के मुख्य राजनीतिक दलों के बीच सर्जिकल स्ट्राइक कितना बड़ा मुद्दा बन गया था। यहां तक कि इसके चक्कर में भारतीय सेना के बारे में भी काफी कुछ कहा गया। जबकि सेना तो बस अपना काम करती है, भले ही सरकार किसी भी पार्टी की हो। उड़ी फिल्म का ट्रेलर रिलीज होते ही दर्शकों ने इसे

हाथों-हाथ लिया। यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि आज के राजनीतिक उथल-पुथल के माहौल में पाकिस्तान पर चीखने वाली यह पहली फिल्म है। हालांकि भारत में कट्टर राष्ट्रवाद वाली फिल्में - जिनमें असली विलेन पाकिस्तान होता है - पहले भी बनती रही हैं। सालों पहले रिलीज हुईं बॉर्डर और गदर जैसी फिल्में इसी श्रेणी में आती हैं।

उड़ी के ट्रेलर में ऐसे कई डायलॉग हैं, जो कट्टर राष्ट्रवाद की मिसाल बन सकते हैं, जैसे “खून का बदला खून से लेंगे” और “उन्हें कश्मीर चाहिए और हमें उनका सर।” इसके अलावा इसके ट्रेलर में एक और डायलॉग था, “अपनी 72 हूरों को हमारा सलाम बोलना, कहना दावत पर इंतजार करें, हम आज बहुत सारे मेहमान भेजने वाले हैं।” मजे की बात यह है कि बाद में इस डायलॉग को ट्रेलर से हटा दिया गया। क्योंकि तब तक शायद उड़ी के प्रोड्यूसर रॉनी स्क्रूवाला को समझ आ गया होगा, कि पाकिस्तान की खिलाफत करने के चक्कर में उनके राइटर्स इस डायलॉग से जाने-अंजाने मुस्लिमों के धार्मिक विश्वासों पर निशाना साध रहे थे।

ऐसा नहीं है कि बॉलीवुड में प्रॉपेगेंडा फिल्में पहली बार बन रही हैं। अक्षय कुमार की पिछली चार-पांच फिल्मों को याद कीजिए, उनमें आपको सत्तारूढ़ दल के साथ अक्षय के अच्छे रिश्तों की झलक जरूर मिल जाएगी। दूसरी ओर संजू और अजहर जैसी फिल्में भी इसी श्रेणी में आती हैं। फर्क इतना है कि ये राजनीतिक प्रॉपेगेंडा के बजाय निजी प्रॉपेगेंडा करने वाली फिल्में हैं। संजू में जहां संजय दत्त की सारी गलतियों का ठीकरा उनकी गलत संगत और सेंसेशनल हेडलाइन बनाकर न्यूज बेचने वाले मीडिया पर फोड़ दिया गया। वहीं, मैच फिक्सिंग से पूरी दुनिया में भारतीय क्रिकेट का नाम बदनाम करने वाले मोहम्मद अजहरुद्दीन को अजहर में एक ऐसे क्रिकेटर के रूप में पेश किया गया, जो मैच फिक्सिंग करके दरअसल अपना ही बलिदान दे रहा था।

इस तरह की प्रॉपेगेंडा फिल्में हॉलीवुड में भी बनती रहती हैं। पिछले साल जब मशहूर अभिनेता गैरी ओल्डमैन को फिल्म डार्केस्ट आवर के लिए बेस्ट एक्टर का ऑस्कर अवॉर्ड मिला, तो मीडिया के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय सिनेमा की कई हस्तियों ने इसकी आलोचना की। ऐसा नहीं था, कि किसी को उनकी एक्टिंग से शिकायत थी। बात दरअसल यह थी कि गैरी ओल्डमैन ने इस फिल्म में विंस्टन चर्चिल का किरदार निभाया था, जिन्हें आज इतने सालों बाद भी ब्रिटेन का सबसे विवादास्पद नेता माना जाता है।

जब राजनीति फिल्मों में घुस जाती है, तभी इस तरह की चीजें देखने को मिलती हैं। हिंदी फिल्मों के साथ आज यही हो रहा है। हालांकि, एक लोकतांत्रिक देश में हर फिल्मकार को अपनी पसंद की फिल्म बनाने की पूरी छूट होनी चाहिए, लेकिन जिस देश के अंतस में सिनेमा का असर सबसे गहरा हो, वहां के फिल्मकार अगर थोड़ा और जिम्मेदारी से काम लें, तो शायद हम सबके लिए बेहतर होगा।

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