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आस्था, लोकतंत्र और संविधान

अवैज्ञानिक दृष्टिकोण न सिर्फ संविधान की अवेहलना करता है बल्कि विकास को पीछे धकेल देता है
भारतीय विज्ञान कांग्रेस में कई ‘वैज्ञानिकों’ ने न्यूटन एवं आइंस्टाइन के सिद्धांतों को वैदिक ज्ञान के आधार पर खारिज करने की कोशिश की। एक ने तो केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन को कलाम से भी बड़ा वैज्ञानिक माना

हमारे संविधान में जहां भारत के सभी नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का उल्लेख है, वहीं उनके बुनियादी कर्तव्य भी निर्धारित किए गए हैं। इनमें से एक बुनियादी कर्तव्य है वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद तथा अन्वेषण और सुधार की भावना का लगातार विकास करना। यह देश के सभी नागरिकों का कर्तव्य है, इसलिए यह स्वतः ही सरकार का कर्तव्य भी बन जाता है, क्योंकि सरकार भी भारत के नागरिक ही संविधान की रक्षा की शपथ लेने के बाद चलाते हैं। वैज्ञानिकों का समूचा काम वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने पर केंद्रित है। लेकिन क्या ऐसा हो पा रहा है? एक शब्द में जवाब है, नहीं! इस समय यह सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और शोचनीय स्थिति है।

संविधान की शपथ लेकर सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्री, यहां तक कि उनकी हिंदुत्ववादी विचारधारा के प्रभाव में आए वैज्ञानिक भी संविधान द्वारा निर्देशित नागरिकों के बुनियादी कर्तव्य यानी वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की सतत कोशिश की अनदेखी कर रहे हैं। पिछले कुछ सालों से भारतीय विज्ञान कांग्रेस के मंच को भी इस अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

सत्तारूढ़ दल की विचारधारा के लिए मिथक, पुराण कथाएं और धार्मिक आस्था के सामने विज्ञान या संविधान का कोई महत्व नहीं है। इस हिंदुत्ववादी और अतीतजीवी विचारधारा की दृष्टि में यूं भी भारतीय संविधान पश्चिमी जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित है, उन जीवन-मूल्यों से नहीं जो इस विचारधारा की नजर में भारतीय यानी हिंदू हैं। क्योंकि उनके लिए भारतीय और हिंदू पर्यायवाची शब्द हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं कह चुके हैं कि गणेश के उदाहरण से स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी कितनी विकसित थी कि एक मनुष्य के धड़ पर हाथी का सिर प्रत्यारोपित किया जा सकता था। उनकी सरकार ने सत्ता में आते ही जिन्हें भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का अध्यक्ष नियुक्त किया, उन वाई. सुदर्शन राव का कहना था कि रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में जिस प्रकार के अस्‍त्रों का वर्णन है, उस प्रकार के परमाणु अस्‍त्र प्राचीन भारत में इस्तेमाल किए जाते थे और एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाने में सक्षम अंतरिक्ष यान भी हमारे देश में थे। अभी हाल ही में संपन्न हुए भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में भी कई ‘वैज्ञानिकों’ ने न्यूटन एवं आइंस्टाइन के गुरुत्वाकर्षण संबंधी सिद्धांतों को वैदिक ज्ञान के आधार पर खारिज करने की कोशिश की और एक ने तो यहां तक कहा कि केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन, जो स्वयं इसी तरह की बातें करते रहे हैं, को पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से भी बड़ा वैज्ञानिक माना जाएगा और मोदी के नाम पर गुरुत्वाकर्षण लहरें नाम प्रचलित होगा।

यहां सवाल यह उठता है कि अतीत पर मिथ्या गर्व देश और समाज का कितना भला कर सकता है? जितने भी दावे किए जा रहे हैं, वे उसी तरह बेबुनियाद हैं जिस तरह ताज महल, लाल किला, कुतुब मीनार और जामा मस्जिद जैसी इमारतों के हिंदू राजाओं द्वारा निर्मित होने के दावे। लेकिन यदि एक क्षण के लिए मान भी लें कि प्राचीन भारत में पांच हजार साल पहले स्टेम सेल तकनीक के आधार पर गांधारी के भ्रूण को विभाजित करके सौ टेस्ट ट्यूबों में डाल कर सौ कौरव पुत्रों का जन्म कराया जा सकता था, तो आज इस जानकारी का हमें क्या लाभ है?

यदि हजारों साल पहले हमारे देश में अंतर्ग्रहीय यात्रा कर सकने वाले अंतरिक्ष यान थे, तो आज हम इस पर गर्व करने के अलावा और क्या करें? सवाल तो यह है कि यदि प्राचीन काल में वह ज्ञान था भी, तो आज तो वह नहीं है। आज तो हम हर बात के लिए पश्चिम के विज्ञान और तकनीक का मुंह ताकते हैं। हां, यदि हिंदुत्ववादी विचारधारा के वैज्ञानिक प्राचीन ग्रंथों और रामायण या महाभारत जैसे महाकाव्यों के आधार पर प्लास्टिक सर्जरी के ये चमत्कार या स्टेम सेल तकनीक के इस्तेमाल के उदाहरण प्रस्तुत कर सकें और अंतरिक्ष यान बनाकर दिखा सकें तो इस जानकारी और गर्व का कोई अर्थ हो भी सकता है। वरना इसे केवल अतीत के महिमामंडन और मिथ्या गर्व पैदा करने के अभियान के अलावा कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

यह सच है कि मानव सभ्यता की विकास यात्रा के दौरान अनेक उन्नत सभ्यताएं विकसित हुईं और फिर अपने निशान छोड़कर विलुप्त हो गईं। मिस्र के पिरामिड आज भी प्राचीन मिस्री-सभ्यता की कीर्ति पताका फहरा रहे हैं और उनके सभी रहस्य आज तक ज्ञात नहीं हो पाए हैं। हमारी अपनी हड़प्पा सभ्यता काफी उन्नत और विकसित थी। जैसा कि इस सभ्यता के नगरों की योजना और ध्वंसावशेषों को देखकर पता चलता है। अभी तक इसकी लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है और इसकी अनेक विशेषताएं रहस्य के कुहासे में ढंकी हुई हैं। इसलिए हम इन पर केवल गर्व ही कर सकते हैं, हमारे लिए आज इनकी व्यावहारिक उपयोगिता कुछ भी नहीं है। हिंदुत्ववादी विचारधारा को मानने वाले इसके और वैदिक सभ्यता के बीच सादृश्य दिखाने और उन्हें एक ही सिद्ध करने की उसी तरह जी-जान से कोशिश करते हैं जैसे ताजमहल को राजपूत हिंदू राजा का महल सिद्ध करने की।

जरूरत इस बात पर विचार करने की है कि यदि अतीत में हमारे पास इतना समृद्ध विज्ञान और तकनीक थी तो फिर वैज्ञानिक चिंतन और अनुसंधान की यह धारा सूख क्यों गई? विज्ञान ही नहीं, दर्शन और अन्य क्षेत्रों में भी मौलिक ग्रंथों की जगह टीका ग्रंथों ने क्यों ले ली? आज कैसे उस परंपरा को पुनर्जीवित किया जा सकता है जो आर्यभट्ट जैसे गणितज्ञ और शंकर जैसे दार्शनिक को जन्म देती है? शिक्षा पर लगातार बजट कम कर, उसे निजी हाथों में सौंपकर और विज्ञान के स्थान पर मिथक और आस्था को स्थापित करके तो यह काम नहीं किया जा सकता।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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