महागठबंधन एक ढकोसला है, पार्टी 2014 से भी ज्यादा सीटें जीतेगी। इस तरह के दावे भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह से लेकर दूसरे बड़े नेता लगातार कर रहे हैं। लेकिन दिल्ली में 11-12 जनवरी को हुई पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान वरिष्ठ नेताओं में महागठबंधन को लेकर खास तौर से बेचैनी दिखी। अमित शाह ने 2019 के चुनावों की तुलना पानीपत की तीसरी लड़ाई से की। नितिन गडकरी ने महागठबंधन की व्याख्या एक गाने “जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग, एक चेहरे पर कई चेहरा लगा देते हैं लोग” के जरिए कर डाली। करीब सभी बड़े नेताओं ने मंच से गठबंधन का जिक्र किया और कार्यकर्ताओं से यही कहा कि मोदी सरकार के पांच साल का काम विपक्ष की मजबूरी वाली दोस्ती पर भारी पड़ेगा।
लेकिन पार्टी के भीतर यह साफ तौर पर माना जा रहा है कि 2019 की लड़ाई कांटे की होने वाली है। ऐसे में जरा-सी चूक मोदी सरकार पर भारी पड़ सकती है। महागठबंधन क्या असर डाल सकता है, इसको लेकर भी 'नमो ऐप' पर एक सर्वेक्षण किया जा रहा है। इसमें यह सवाल पूछा गया है कि आपके क्षेत्र में गठबंधन का क्या असर होगा?
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने आउटलुक से स्वीकार किया कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन निश्चित तौर पर असर डालेगा। इसके लिए हम खास रणनीति पर काम कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी द्वारा कराए गए एक आंतरिक सर्वे के अनुसार राज्य में अगर कार्यकर्ता रणनीति को जमीनी स्तर पर सफलतापूर्वक उतार लेते हैं तो पार्टी को 50-55 सीटें मिल सकती हैं।
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इस बार चुनावों में बूथ मैनेजमेंट में भी कई अहम बदलाव किए हैं। इसके तहत बूथ समिति में युवा लोगों को खास तरजीह दी गई है। साथ ही उसमें जातिगत समीकरण का भी ध्यान रखा गया है, ताकि हर जाति को प्रतिनिधित्व मिले। बूथ समिति में अध्यक्ष, प्रभारी, एजेंट के अलावा लाभार्थी प्रमुख भी जोड़े जा रहे हैं। लाभार्थी प्रमुख की खास तौर से यह जिम्मेदारी होगी कि वह उन लोगों के साथ चुनावों तक लगातार संपर्क में रहे, जिन्हें केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं का लाभ पहुंचा है। अमित शाह की सीधे तौर पर रणनीति है कि 22 करोड़ लाभार्थियों के साथ चुनावों तक पूरी तरह से जुड़े रहना है, जिससे उन्हें वोट में परिवर्तित किया जा सके। पार्टी के एक नेता के अनुसार उत्तर प्रदेश में इस बार पार्टी मिशन 51 के तहत काम कर रही है। अभी तक हमें चुनावों में एक से 1.5 फीसदी तक वोट बढ़ाना होता था, उसे अब 8-9 फीसदी बढ़ाना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि 2014 के चुनावों के अनुसार सपा, बसपा और कांग्रेस का वोट बैंक मिलकर 50 फीसदी है। जबकि भाजपा का 42 फीसदी है। इस अंतर को कम करने के लिए बूथ स्तर पर काम करने के अलावा 'कमलदीप योजना' का आगाज भी 26 फरवरी से पार्टी पूरे देश में करने जा रही है। इसके अलावा 8-22 फरवरी तक पार्टी 'मेरा परिवार भाजपा परिवार' अभियान भी चलाएगी। इसके तहत पार्टी सदस्यों को उत्साहित करने के साथ-साथ उनके घरों पर झंडे लगाने का भी काम होगा। साथ ही विधानसभा स्तर पर मोटरसाइकिल रैली भी निकालने की तैयारी है।
एक अन्य नेता के अनुसार, हाल ही में जो सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण का कानून लाया गया है, वह पार्टी के लिए मास्टर स्ट्रोक हो सकता है। कार्यकर्ताओं को सीधा निर्देश है कि वे केवल सवर्णों को ही लक्ष्य नहीं बनाएं। नया कानून सभी जाति, धर्म के लोगों के लिए है, ऐसे में आर्थिक रूप से पिछड़े सभी लोगों तक यह बात पहुंचनी चाहिए कि सरकार गरीबों के लिए खड़ी है। पार्टी को 2014 के चुनावों में गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव अनुसूचित जाति के लोगों का भी अच्छा वोट मिला था। इस रुझान को भुनाने के लिए भी खास तौर से पार्टी का फोकस है। पार्टी सामान्य वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण के साथ-साथ प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला, सौभाग्य जैसी योजनाओं में गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव अनुसूचित जाति के लाभार्थियों को भी अपने साथ जोड़ने पर जोर दे रही है, जिससे एक बड़ा वोट बैंक उसकी तरफ परिवर्तित हो सके।
प्रत्याशी के चयन को लेकर भी पार्टी पूरी तरह से सर्वेक्षण और जातिगत समीकरण पर फोकस कर रही है। इसके लिए संगठन के स्तर पर मौजूदा सांसद और दूसरे नेताओं के कामकाज का सर्वेक्षण किया जा रहा है। पार्टी की रणनीति है कि हर क्षेत्र से उसे कम से कम तीन ऐसे नेता का नाम मिले, जो चुनाव में उम्मीदवार के लायक हो। संगठन स्तर पर फीडबैक के अलावा नमो ऐप पर भी इस मामले में सर्वेक्षण किए जा रहे हैं, जिसमें मोदी सरकार के कामकाज के तरीके, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्चर सुविधाओं के संबंध में लोगों से राय ली जा रही है। इसके अलावा एक अहम बात यह भी पूछी जा रही है कि आपके क्षेत्र का सांसद आपके लिए कैसा काम कर रहा है, ताकि उसकी लोगों तक पहुंच से लेकर लोकप्रियता आदि पर राय ली जा सके। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का भी पार्टी सहारा ले रही है। इसके तहत खास तौर से 'अबकी बार फिर मोदी सरकार' या 'नमो अगेन' नारे के साथ टोपी और टी-शर्ट की बिक्री भी की जा रही है। राष्ट्रीय अधिवेशन में भी खास तौर से नमो अगेन टोपी को कार्यकर्ताओं में बांटा गया। यहां तक कि उन्हें कहा गया कि अगर आपको जरूरत है तो ज्यादा भी मंगा सकते हैं।
कुल मिलाकर पार्टी को इस बात का पूरा एहसास है कि 2019 की डगर 2014 जैसी नहीं होने वाली है। खास तौर पर जब सभी राज्यों में भाजपा के सामने विपक्ष मोर्चाबंदी कर रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्रीय अधिवेशन में यह बयान कि मोदी भी संगठन की पैदाइश है। साफ तौर पर कार्यकर्ताओं की नाराजगी दूर करने की कोशिश है। यही नहीं जिस तरह से मंच पर मोदी ने भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का स्वागत किया, वह भी पुराने संबंधों को फिर से बेहतर करने की कोशिश दिखाता है। आडवाणी कार्यक्रम में थोड़ी देर से पहुंचे थे तो मोदी ने खुद आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। इसी तरह मुरली मनोहर जोशी को राजनीति और विद्वता का संगम बताया।
इन कोशिशों से साफ है कि अब मोदी-शाह की जोड़ी को सभी की जरूरत है। इसी जरूरत के एहसास के साथ बिहार में पहली बार नीतीश कुमार के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली कराने की तैयारी है। ऐसा पहली बार होगा जब नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार बिहार में एक मंच से किसी चुनावी सभा को संबोधित करेंगे। इस मामले में पार्टी के एक नेता का कहना है कि यह स्वाभाविक है। जब हम गठबंधन में हैं तो ऐसा जरूर होगा।
इसी तरह पार्टी की कोशिश है कि अपने सबसे पुराने साथी शिवसेना को भी चुनावों में साथ रखा जाए। इसके लिए आंतरिक स्तर पर कवायद भी शुरू हो गई है, ताकि शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे की नाराजगी दूर की जा सके। हालांकि ऊपरी स्तर पर अभी भी दोनों पार्टियां यह दिखाने की कोशिश में हैं कि जरूरत पड़ने पर वे अपने रास्ते अलग कर सकती हैं। लेकिन अमित शाह का मानना है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस-राकांपा के गठबंधन को रोकने के लिए भाजपा और शिवसेना का साथ होना जरूरी है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, महागठबंधन से सबसे ज्यादा चुनौती उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक से मिलने वाली है, लेकिन इन जगहों से होने वाली कमी की भरपाई के लिए पार्टी ओडिशा और पश्चिम बंगाल में खास तौर से ज्यादा सीटें बढ़ाने पर फोकस कर रही है। साफ है, नरेंद्र मोदी और अमित शाह की पूरी रणनीति बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं में जोश भरने, पार्टी के वरिष्ठों की नाराजगी दूर करने और गठबंधन के साथियों को जोड़कर 2019 में फतह करने की है। अब चुनावों के परिणाम ही तस्वीर साफ करेंगे कि यह रणनीति कितनी काम आई।