नागरिकता किसी व्यक्ति का किसी राजनैतिक समुदाय के साथ संबंधों का ही नाम है। यह ऐसे समुदायों की पूर्ण और समान सदस्यता का ही प्रतीक है। बाहरी या परायों का बहिष्कार आधुनिक नागरिकता की अवधारणा के केंद्र में है और इस तरह यह प्राचीन भारतीय परंपरा के खिलाफ है जो बिना किसी भेदभाव के सबका स्वागत करती रही है। आधुनिक विचार भारतीयता के विचार के खिलाफ है और यह विडंबना है कि जो पार्टी हिंदू मूल्यों की बात करती है, वही इन मूल्यों के खिलाफ जाने को आतुर है। हमने 1947 में हिंदू धर्मतंत्र पर आधारित राज्य-व्यवस्था कायम करने से इनकार कर दिया, लेकिन नागरिकता विधेयक-2019 निश्चित रूप से हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में उठाया गया एक कदम है। यह विधेयक कुटिल, विभाजनकारी और घातक है। इससे भारत सभी धर्मों और आस्था वाला देश नहीं रह जाएगा।
नागरिकता हमें कुछ अधिकार देती है। भारत विचार के अनुरूप भले ही हमने नागरिकता की आधुनिक अवधारणा को स्वीकार कर लिया है, लेकिन हमारा संविधान गैर-नागरिकों को भी कुछ मौलिक अधिकार देता है, जैसे-समानता का अधिकार, जीवन का अधिकार और व्यक्तिगत आजादी और धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार वगैरह। हर नागरिक अनुच्छेद-19 के तहत मिलने वाले अधिकार जैसे, अभिव्यक्ति की आजादी, संगठन बनाने की स्वतंत्रता, व्यापार की स्वतंत्रता वगैरह का हकदार है। आधुनिक कानून के मुताबिक, नागरिकता देने के दो जाने-माने सिद्धांत हैं। जस सोलिस यानी जन्म स्थान के आधार पर नागरिकता दी जाती है, जबकि जस सैंगुनस के तहत रक्त-संबंध नागरिकता का आधार होता है।
नागरिकता भारतीय संविधान के मूल में है। संविधान ‘नागरिक’ शब्द को परिभाषित नहीं करता है, लेकिन अनुच्छेद-5 से लेकर 11 तक में उन व्यक्तियों की विभिन्न श्रेणियों का विवरण दिया गया है, जो नागरिकता के हकदार हैं। अनुच्छेद-11 संसद को कानून के जरिए नागरिकता के नियमन का अधिकार देता है और इसलिए 1955 में नागरिकता अधिनियम पारित किया गया। अब तक इस अधिनियम में चार बार यानी 1986, 2003, 2005, 2015 में संशोधन किया जा चुका है। हालिया विधेयक लोकसभा से पारित हो चुका है और राज्यसभा में लंबित है। इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई, लेकिन अदालत ने कहा कि अभी इसकी संवैधानिकता की जांच करना जल्दबाजी होगी।
संविधान के अनुच्छेद-5 में नागरिकता का जिक्र है, जिसके तहत भारत में रहने और जन्म लेने वाले हर व्यक्ति को नागरिकता दी गई है। इसके अलावा वैसे लोग जो भारत में रहते थे, लेकिन उनका जन्म यहां नहीं हुआ, पर उनके माता-पिता भारत में पैदा हुए, तो उन्हें भी नागरिक माना गया। साथ ही, कोई भी व्यक्ति जो पांच साल से अधिक समय से यहां रह रहा हो, वह भी नागरिकता के लिए आवेदन करने का हकदार था।
हमारी आजादी के वक्त देश का विभाजन हुआ, जिसकी वजह से पलायन भी हुए। इसलिए अनुच्छेद-6 में यह प्रावधान किया गया कि यदि किसी के माता-पिता का जन्म भारत में हुआ और वह 19 जुलाई 1949 से पहले भारत आ गया था, तो वह स्वत: भारतीय नागरिक माना जाएगा। लेकिन इस तारीख के बाद भारत आने वालों को खुद को पंजीकृत कराना होगा। यहां तक कि जो लोग 1 मार्च, 1947 के बाद पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन बाद में पुनर्वास के लिए वापस आ गए, तो उन्हें भी नागरिकता के दायरे में शामिल किया गया था। (अनुच्छेद-7) अनुच्छेद-8 के तहत भारतीय मूल का कोई भी व्यक्ति अगर भारत के बाहर रहता है, लेकिन उसके माता-पिता या दादा-दादी भारत में जन्मे थे, तो वह भी भारतीय राजनयिक मिशन में भारतीय नागरिक के रूप में पंजीकरण करा सकता है।
"यह विडंबना है कि जो पार्टी हिंदू मूल्यों की बात करती है, वही उसके बुनियादी मूल्यों के खिलाफ जाने को आतुर है"
यांदाबो संधि के अनुसार, 1826 में बर्मा ने असम को अंग्रेजों को सौंप दिया था। असमिया लोगों के सामाजिक और सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए 1950 में आप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम बनाया गया। पाकिस्तान के दोषपूर्ण विचार के नतीजतन पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान बने, जिनके बीच 2,000 किलोमीटर से अधिक की दूरी थी। धर्म के नाम पर राष्ट्र नहीं बनते हैं, इसलिए 25 साल के भीतर ही द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत विफल हो गया और 1971 में पूर्वी पाकिस्तान एक स्वतंत्र, संप्रभु राष्ट्र बांग्लादेश बन गया। अव्यावहारिक और मूर्खतापूर्ण विभाजन से पूर्वी क्षेत्र में अधिक समस्याएं पैदा हुईं, जहां सीमा लगभग खुली हुई थी। इन इलाकों में पलायन का संबंध नागरिकता की जगह जीविकोपार्जन से अधिक था।
नतीजतन नेहरू-लियाकत समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके तहत पूर्वी सीमा पर समयसीमा 19 जुलाई 1949 से बढ़ाकर 1 दिसंबर 1950 की गई। नागरिकता अधिनियम में अधिकांश संशोधन भारत-बांग्लादेश को लेकर थे, क्योंकि पूर्वी क्षेत्र से भारत में बड़े पैमाने पर पलायन जारी था। इस घुसपैठ के खिलाफ असमिया आंदोलन के परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1985 को ऐतिहासिक असम समझौता हुआ। इस समझौते के जरिए राजीव गांधी सरकार ने असमिया लोगों को आश्वासन दिया कि केंद्र सरकार असमिया लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा और संरक्षण अवश्य करेगी।
नागरिकता अधिनियम में 1986 के संशोधन के मुताबिक, असम के लिए एक विशेष व्यवस्था की गई और असम के संबंध में नागरिकों की एक नई श्रेणी लाई गई। नई जोड़ी गई धारा-6 ए के जरिए यह निर्धारित किया गया कि 1 जनवरी 1966 से पहले असम में आने वाले भारतीय मूल के सभी व्यक्ति और वे लोग जो यहां के निवासी थे, उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। जो 1 जनवरी 1966 के बाद, लेकिन 25 मार्च 1971 से पहले आए और यहां के आम निवासी रहे हैं, उन्हें विदेशी के रूप में अपनी पहचान के 10 साल खत्म होने के बाद पंजीकरण कराने पर नागरिकता मिल जाएगी। इस अंतरिम अवधि के दौरान उनके पास वोट देने का अधिकार नहीं होगा, लेकिन वे भारतीय पासपोर्ट हासिल कर सकते हैं। अंत में 25 मार्च 1971 के बाद आने वालों को अवैध प्रवासी (ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारित) अधिनियम-1983 (आइएमडीटी) के तहत निर्वासित किया जाएगा। नए विधेयक में इस तिथि को 2014 तक बढ़ाया गया।
मूल नागरिकता अधिनियम भारत में जन्मे सभी लोगों को जस सोलिस के सिद्धांत के मुताबिक नागरिकता देता है। लेकिन 1986 का संशोधन कम समावेशी था, क्योंकि इसमें यह शर्त जोड़ी गई थी कि भारत में जन्म लेने के अलावा किसी को नागरिकता तभी मिल सकती है, जब उसके जन्म के वक्त उसके माता-पिता भारत के नागरिक हों। वाजपेयी सरकार ने बांग्लादेश से घुसपैठ को देखते हुए 2003 में संशोधन के जरिए इसे और कठोर बना दिया। अब जन्म के अलावा या तो माता-पिता दोनों भारतीय नागरिक हों या माता-पिता में से एक को भारतीय नागरिक होना चाहिए और दूसरा अवैध प्रवासी नहीं होना चाहिए। इन प्रतिबंधात्मक संशोधनों के साथ भारत जस सैंगुनस के संकीर्ण सिद्धांत की ओर बढ़ गया है यानी भारतीय जमीन पर जन्म से अधिक रक्त संबंध महत्वपूर्ण हो गया है।
2019 के विधेयक के मुताबिक, छह समुदायों हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्मों के लोग अगर 14 दिसंबर 2014 से पहले भारत आए, तो उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। इसने नागरिकता के लिए जरूरी 11 साल के निवास को घटाकर सिर्फ छह साल कर दिया है। यह विधेयक आरएसएस की भारत के बारे में विचारधारा के मुताबिक है, जो मानता है कि यह केवल हिंदुओं की भूमि है।
असम में सैकड़ों संगठन अब इस बिल के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, क्योंकि इससे अवैध बांग्लादेशी हिंदू प्रवासी नागरिक बन जाएंगे, जिससे असम में जनसंख्यागत बदलाव आ सकता है। असमिया लोग अपने ही घर में अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। ऐसा लगता है कि भाजपा धार्मिक विचारधारा से परे नहीं सोच सकती। असमिया लोगों का विरोध बांग्लादेशी हिंदुओं के साथ-साथ बांग्लादेशी मुसलमानों के प्रति भी है। असम गण परिषद एनडीए से अलग हो गई है और मोदी सरकार असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में अचानक अलोकप्रिय हो गई है। भाजपा के कई सहयोगी इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। मेघालय में भाजपा सरकार का हिस्सा है और वहां भी राज्य मंत्रिमंडल ने इस विधेयक का विरोध करने का फैसला किया है। उल्फा समर्थक वार्ताकारों ने भी शांति वार्ता से हटने की धमकी दी है। यह विधेयक अदालती प्रक्रिया में नहीं टिक पाएगा, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से मुसलमानों के खिलाफ ‘केवल धर्म के आधार पर’ भेदभाव करता है, जो अनुच्छेद-15 (1) का उल्लंघन है। तर्क यह है कि सताए गए लोगों को ही भारत की सुरक्षा की जरूरत है, तो अहमदिया और शिया भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में समान रूप से प्रताड़ित हैं।
इसके अलावा मोदी सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजने पर तुली हुई है, जो पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की तुलना में अधिक सताए गए हैं। भारत को जिन्ना के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को सही नहीं ठहराना चाहिए। भारत को सावरकर को नहीं अपनाना चाहिए, बल्कि गांधी, नेहरू और आंबेडकर के प्रति समर्पित रहना चाहिए।
(लेखक कंसोर्टियम ऑफ नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज के अध्यक्ष और संविधान विशेषज्ञ हैं)