डेढ़ साल पहले 30 जून की आधी रात संसद के विशेष सत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने माल व सेवा कर (जीएसटी) का ऐलान ‘एक देश, एक कर’ की “क्रांतिकारी व्यवस्था” की तरह ऐसे किया था कि “यह देश में दूसरी आजादी है।” उस वक्त उन्होंने यह भी कहा, “जीएसटी एक सरल, सहज और पारदर्शी कर व्यवस्था है, जो देश में कालेधन और भ्रष्टाचार को रोकने में मददगार होगी। इससे टैक्स आतंकवाद और इंस्पेक्टर राज से भी मुक्ति मिलेगी।” एक जुलाई 2017 से लागू जीएसटी में करीब 500 दिनों में ही 549 बदलाव किए जा चुके हैं, मगर कारोबारियों की शिकायतें थमी नहीं हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तो जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स का नाम दे चुके हैं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा का कहना है, “जल्दबाजी में लाए गए जीएसटी से सबकुछ बर्बाद हो गया। अब सरकार जीएसटी का इस्तेमाल चुनावी फायदे के लिए कर रही है।” कराधान के मामले में सक्रिय फर्म क्लीयर टैक्स के अनुसार, अभी तक जीएसटी के टैक्स नियमों में 202 बदलाव, टैक्स रेट में 235 बदलाव किए जा चुके हैं। इसके अलावा 16 ऑर्डर और 91 सर्कुलर लाए गए हैं। इसी तरह पांच ऑर्डर हटाए गए हैं। इस पर छोटे कारोबारियों का कहना है कि लगातार बदलावों से कन्फ्यूजन बढ़ा है और रिफंड अटकने से बिजनेस के लिए पूंजी की किल्लत बढ़ गई है।
दिल्ली में जॉब वर्क का कारोबार करने वाले जितेंद्र ने आउटलुक को बताया कि जीएसटी से जैसी उम्मीद थी वैसा अभी तक नहीं हुआ है। छोटे कारोबारियों का कंप्लायंस बढ़ गया है। इसी तरह ई-वे बिल के लिए नियम जमीनी हकीकत से दूर हैं। हमें उम्मीद थी कि जब कारोबारी जीएसटी के साथ जुड़ेगा तो उसके पेमेंट डिफॉल्ट नहीं होंगे। बकौल जितेंद्र, उनके ही मामले में एक साल में चार लाख रुपये से ज्यादा का पेमेंट डिफॉल्ट हो चुका है। सरकार भले ही जीएसटी रजिस्ट्रेशन में छूट दे रही है लेकिन बड़ी कंपनियां छोटे कारोबारियों से बिना जीएसटी रजिस्ट्रेशन के बिजनेस ही नहीं करती हैं।
कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन टेक्सटाइल इंडस्ट्री के प्रेसिडेंट संजय जैन के अनुसार, इस समय कारोबारियों की सबसे बड़ी समस्या टैक्स रिफंड की है। अकेले टेक्सटाइल इंडस्ट्री में छोटे कारोबारियों के 500-1000 करोड़ रुपये के रिफंड अटके पड़े हैं। वर्किंग कैपिटल (बिजनेस के लिए पूंजी) की समस्या आ रही है। पिछले छह महीने से बिजनेस मंदा है। नकदी की समस्या है। डेढ़ साल के अनुभव से लगता है कि सरकार ने जीएसटी लागू करने में थोड़ी हडबड़ी दिखाई, अगर फीडबैक थोड़ा और लिया जाता तो शायद इस तरह की परेशानियां नहीं होतीं।
पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने आउटलुक को बताया, “अब तो केवल चुनावों के मद्देनजर ही सरकार जीएसटी में बदलाव कर रही है। इससे मूल उद्देश्य ही बेमानी हो गया है।” गौरतलब है कि दिसंबर 2017 में गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले नवंबर में जीएसटी काउंसिल ने बड़े पैमाने पर बदलाव करते हुए 178 उत्पादों को 28 फीसदी के टैक्स रेट से बाहर कर दिया था। इसी तरह तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद 32वीं जीएसटी काउंसिल मीटिंग में छोटे कारोबारियों को बड़ी राहत रजिस्ट्रेशन और कंपोजीशन स्कीम में दी गई है। वे यह भी कहते हैं, “न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, न ही वित्त मंत्री अरुण जेटली को टैक्स का कोई आइडिया है। नतीजा यह है कि कभी प्रधानमंत्री कहते हैं कि दूध और मर्सडीज का एक टैक्स रेट नहीं होना चाहिए, तो कभी कहते हैं कि एक रेट में ही 99 फीसदी प्रोडक्ट होंगे। जैसे उनके विचार बदलते हैं, नीचे के लोग भी वही भाषा बोलने लगते हैं। सरकार जीएसटी में पांच रेवेन्यू न्यूट्रल रेट लेकर आई और ऊपर से सेस लगा दिया। उसके बाद सैकड़ों बदलाव कर डाले।” वे बताते हैं कि हकीकत में तीन रेट होने चाहिए थे, जिसमें अधिकतम 24 फीसदी का रेट होना चाहिए, पर सब गड़बड़ कर दिया। बकौल उनके, “एक बात और समझनी चाहिए कि जिस तरह वस्तुओं को बार-बार अलग-अलग टैक्स स्लैब में शिफ्ट किया जा रहा है, उससे रेवेन्यू का नुकसान हो रहा है। इसकी हकीकत कोई बता नहीं रहा है। हालांकि आप समझ सकते हैं कि अभी तक केवल दो बार किसी एक महीने में रेवेन्यू एक लाख करोड़ रुपये तक पहुंचा है। सरकार ने हजारों करोड़ रुपये का रिफंड रोक कर रखा है, जिसकी वजह से कारोबारियों की परेशानी बढ़ गई है। वह अपना राजस्व घाटा संभालने में लगी हुई है।”
वित्त मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार रह चुके अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी भी लगभग यही बात कहते हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, “जीएसटी को आसान करने की जगह जटिल बना दिया गया। इसको ऐसे समझिए कि अगर आप हलुआ बनाओगे तो चीनी के लिए एक जीएसटी, आटे के लिए दूसरी जीएसटी, मेवा के लिए अलग जीएसटी तो फिर जैसी उलझन होगी, वही तो हो रहा है। इसी कन्फ्यूजन के कारण लोग टैक्स भी नहीं जमा कर रहे हैं। बिना तैयारी के लाए गए जीएसटी और नोटबंदी के कारण सकल घरेलू उत्पाद में 2 फीसदी तक निगेटिव असर हुआ है। लिहाजा, सत्ता में बैठे लोगों की अनुभवहीनता साफ दिख रही है।”
"अभी तक जीएसटी के टैक्स नियम में 202 और टैक्स रेट में 235 बदलाव किए जा चुके हैं। फिर भी उलझन है"
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने आउटलुक से कहा, “जीएसटी शुरू से उलझा हुआ था। दरअसल, कांग्रेस शासित छह राज्यों की सरकारों के वित्त मंत्रियों ने केंद्र सरकार पर लगातार दबाव डालकर काउंसिल के जरिए अहम बदलाव करवाए हैं और बहुत हद तक इसी वजह से अब छोटे कारोबारियों को राहत मिली है।”
डेढ़ साल बाद जीएसटी कहां पहुंचा है, इस पर क्लीयर टैक्स की जीएसटी एक्सपर्ट प्रीति खुराना ने आउटलुक को बताया कि अब तक जीएसटी में 549 बदलाव हो चुके हैं। इन बदलावों को सकारात्मक रूप से लेना चाहिए क्योंकि जीएसटी बहुत बड़ा रिफॉर्म है। शुरू में इस तरह के बदलाव में डेढ़ से दो साल लगते हैं। लेकिन यह भी देखना चाहिए कि जीएसटी जब लागू हुआ था तो मूल भावना क्या थी। उसके तहत भावना यह थी कि ज्यादा से ज्यादा लोग फॉर्मल इकोनॉमी में आएं। साथ ही सिस्टम में रिवर्स चार्ज मैकेनिज्म और इनपुट क्रेडिट ऑटोमेटिक मिलने की बात थी, अभी यह चीजें नहीं हो पाई हैं। जैसा कि सरकार कह रही है कि जून 2019 से पूरा सिस्टम ऑटोमेटेड हो जाएगा। अब लगता है कि सरकार ने अपना फोकस बदल लिया है। वह अब छोटे कारोबारियों को राहत देना चाहती है। रेवेन्यू के लिए अब बड़े कारोबारियों पर फोकस कर रही है। इसी वजह से जीएसटी में रजिस्ट्रेशन की सीमा 20 लाख रुपये से बढ़ाकर 40 लाख रुपये कर दी गई है। हालांकि यह कदम मूल भावना से अलग दिखता है जिसमें कहा गया था कि जीएसटी के जरिए इकोनॉमी में ज्यादा से ज्यादा लोग संगठित क्षेत्र में आ जाएंगे। इस समय छोटे कारोबारियों को कंप्लायंस की समस्या है, साथ ही उनको इनपुट क्रेडिट समय पर नहीं मिल रहा है जिसकी वजह से वर्किंग कैपिटल की समस्या आ रही है। इन समस्याओं को दूर करने के बाद ही जीएसटी का सही फायदा दिखेगा।
फेडरेशन ऑफ इंडियन माइक्रो, स्मॉल ऐंड मीडियम एंटरप्राइजेज के जनरल सेक्रेटरी अनिल भारद्वाज ने आउटलुक को बताया कि जीएसटी पर काम 2002 से चल रहा था। यह काफी पेचीदा था। दुनिया के दूसरे देशों में भी जीएसटी को सेटल होने में 18-24 महीने लगते हैं। साथ ही जीएसटी कब लागू किया जाय, यह एक राजनैतिक फैसला था। सरकार चुनावी साल में इसे लागू करती तो जैसी परेशानियां आ रही हैं, उससे उसकी हार तय होती। ऐसे में सरकार ने कार्यकाल के दो-तीन साल के अंदर ही लागू करने का फैसला किया, जिससे चुनावों तक स्थिति सामान्य हो जाए। आज की तारीख में 80-90 फीसदी समस्याएं हल हो चुकी हैं। अभी जो सबसे बड़ी समस्या है, वह इनपुट टैक्स क्रेडिट की है। इसमें भी समस्या आइटी इन्फ्रास्ट्रक्चर की है। कई राज्यों में अभी वैसा सिस्टम नहीं है जो पूरी तरह से ऑटोमेशन पर काम कर सके। निर्यातकों को बंदरगाहों पर आइटी इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर न होने से परेशानी है।
भारत सरकार के चीफ स्टैटेशियन रह चुके अर्थशास्त्री प्रणब सेन का कहना है कि जब आप पूरे टैक्स सिस्टम को पलट रहे हों तो उसमें वक्त लगता है। मेरे हिसाब से पूरे सिस्टम को स्थिर होने में कम से कम तीन साल का वक्त लगता है। ऐसे में जो 500 से ज्यादा बदलाव हुए हैं, यह अच्छी बात है कि इससे सिस्टम में सुधार हो रहा है। दूसरे देशों में इससे भी बुरा हाल था। नाइजीरिया में तो दंगे हो गए, मलेशिया में तो नई सरकार ने इसे खत्म कर दिया। हम सही दिशा में चल रहे हैं। जहां तक रेवेन्यू न्यूट्रल रेट में पांच स्लैब रखने की बात है तो वह ठीक कदम था। क्योंकि इसे धीरे-धीरे ही कम किया जा सकता है।
कुल मिलाकर यह साफ है कि जीएसटी अब ऐसे चरण में पहुंच चुका है कि सरकार को उसकी मूलभावना की दिशा में तेजी से काम करना चाहिए। क्योंकि अगर कारोबारियों का कंप्लायंस और रिफंड ऑटोमेटेड नहीं होगा तो जीएसटी का सही फायदा अर्थव्यवस्था को नहीं मिलेगा।