इस समय देश में बहुत कुछ बेहद तेजी से बदल रहा है। यह बदलाव सकारात्मक के बजाय नकारात्मक ज्यादा है। इसका दूरगामी असर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था, संघीय ढांचे और स्वायत्त संस्थाओं की साख पर पड़ना तय है। ताजा प्रकरण पश्चिम बंगाल की सरकार और केंद्र के बीच टकराव का है और इसकी वजह बनी है सीबीआइ, जिसकी खुद की साख पर ही हर रोज सवाल खड़े हो रहे हैं। पश्चिम बंगाल में एक पुलिस कमिश्नर के घर जिस तरह सीबीआइ की टीम पहुंची, उससे कई तरह के सवाल खड़े हो गए हैं। हालांकि दावा किया जा रहा है कि सीबीआइ उक्त अधिकारी से पोंजी स्कीम घोटाले के दस्तावेजों के बारे में जानकारी लेना चाहती है। सीबीआइ का यह भी कहना है कि यह अधिकारी राजनैतिक आकाओं को बचाने के लिए सबूतों को नष्ट कर रहा है। ऐसा है या नहीं, यह तो अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद उनसे पूछताछ और आगे की जांच में साफ हो सकेगा। लेकिन यह बात सीबीआइ के पूर्व अधिकारी भी स्वीकार कर रहे हैं कि सीबीआइ कुछ ज्यादा ही जल्दबाजी दिखा रही थी और उसे राज्य में जरूरी प्रक्रियाओं का पालन करके आगे बढ़ना चाहिए था। वह भी ऐसे समय में जब भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार और राज्य की तृणमूल कांग्रेस सरकार के रिश्तों में कड़वाहट अपने चरम पर है। यही वजह है कि सीबीआइ को असहज स्थिति और केंद्र के इशारे पर राज्य सरकार को अस्थिर करने के आरोपों का सामना करना पड़ा।
पिछले कुछ समय से जैसे प्रकरण सामने आ रहे हैं, उसके चलते सीबीआइ पर स्वायत्त केंद्रीय जांच एजेंसी की तरह काम करने के बजाय राजनैतिक हितों के लिए काम करने के आरोप लग रहे हैं। फिर, सीबीआइ के सर्वोच्च अधिकारी जैसे एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगा चुके हैं और उनकी जांच चल रही है, उसके चलते एजेंसी की साख पर बट्टा लगा है। लेकिन ताजा घटनाक्रम केंद्र-राज्य संबंधों के निचले स्तर पर पहुंचने के उदाहरण के रूप में सामने आया है। भारत संघीय ढांचे वाला देश है और यहां केंद्र और राज्यों के बीच ही नहीं, राज्यों के बीच भी बेहतर संबंध होने चाहिए। किसी को भी यह हक नहीं है कि वह आरोपियों को बचाने या राजनैतिक हित के लिए पुलिस और प्रशासन का दुरुपयोग करे। ताजा घटनाक्रम ने संस्थाओं में देश के आम आदमी का भरोसा कमजोर किया है। राजनीतिक दलों को भी यह सोचना होगा कि कोई आरोपी अगर किसी खास पाले में है तो वह जांच एजेंसियों से संरक्षण क्यों हासिल कर लेता है, जबकि उसी प्रकरण में दूसरी पार्टी में जो व्यक्ति है, उस पर सख्त कार्रवाई होती है। पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में पोंजी स्कीम घोटाले के कई आरोपी इस समय भाजपा में हैं और वे केंद्रीय नेतृत्व के साथ मंच साझा करते हैं। क्या यह दोहरा मानदंड नहीं है?
बात केवल सीबीआइ की ही नहीं है, प्रमुख विपक्षी दल लगातार चुनाव आयोग पर सवाल उठाते रहे हैं और हाल ही में ईवीएम के मसले पर उन्होंने आयोग के साथ बैठक कर चिंताएं जाहिर की हैं। ऐसे में चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्था को भी पूरी तरह पाक-साफ दिखना होगा, क्योंकि अगले कुछ महीने में उसे लोकसभा के चुनाव कराने हैं। पिछले कुछ विधानसभा चुनावों और खासतौर से गुजरात विधानसभा चुनाव की तिथियों को लेकर उठे विवाद का जिक्र यहां गैर-मुनासिब नहीं है।
स्वायत्त संस्थाओं के कमजोर होने की फेहरिस्त में नेशनल स्टेटिस्टिकल कमीशन (एनएससी) का नाम भी जुड़ गया है। यह विवाद देश में नोटबंदी के बाद 2017-18 के दौरान बेरोजगारी के आंकड़ों को लेकर नेशनल सैंपल सर्वे संगठन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट को जारी नहीं किए जाने के चलते पैदा हुआ। नतीजतन, कमीशन के कार्यकारी चेयरमैन और एक दूसरे स्वतंत्र सदस्य ने इस्तीफा दे दिया। इस संस्था में अब दो सरकारी अधिकारी ही बचे हैं। आरोप है कि नोटबंदी के बाद के दौर में बेरोजगारी की दर के 45 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंचने की जानकारी देने वाली इस रिपोर्ट को सरकार जारी नहीं कर रही है। हालांकि रिपोर्ट के आंकड़े मीडिया में लीक हो गए। लेकिन नीति आयोग के उपाध्यक्ष और सीईओ ने सफाई पेश की कि ये आंकड़े सत्यापित नहीं हैं, जबकि यह विभाग उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीएसओ के आंकड़ों की साख है और महालनोबिस जैसे महान सांख्यिकीविद द्वारा स्थापित भारत की इस व्यवस्था को बहुत गंभीरता से लिया जाता है। लेकिन ताजा प्रकरण से इस व्यवस्था पर चोट हुई है। इसके पहले केंद्र के साथ टकराव के कारण भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने इस्तीफा दे दिया था। इस तरह के घटनाक्रम देश की अहम संस्थाओं की स्वायत्तता पर सवाल खड़े कर रहे हैं।
भले इसका कोई तात्कालिक असर न दिखे लेकिन देश की राजनीति, संघीय व्यवस्था और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए ऐसे घटनाक्रम शुभ नहीं हैं। बेहतर होगा कि इन मुद्दों को गंभीरता से लिया जाए और आने वाले दिनों में किसी भी तरह की असहज स्थिति से बचा जाए।