बतौर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने से हर जुबान पर कई सवाल हैं। क्या प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश और खासकर पूर्वांचल में कांग्रेस का भाग्य बदल सकती हैं? क्या उत्तर प्रदेश सही मायने में कांग्रेस, सपा-बसपा गठबंधन और एनडीए के बीच त्रिकोणीय मुकाबले का गवाह बनेगा? और, अगर वाकई कांग्रेस अपनी खोई हुई जमीन हासिल करती है, तो क्या वह भाजपा को अधिक नुकसान पहुंचाएगी या फिर सपा-बसपा गठबंधन को?
एक आम धारणा है कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता है। कभी-कभी पार्टियों की तकदीर महज एक पखवाड़े या उससे भी कम समय में बदल जाती है। कुछ लोगों को लगता है कि प्रियंका गांधी कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता हैं, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले के जरिए उत्तर प्रदेश में पार्टी को पुनर्जीवित करने में सक्षम रहेंगी। हालांकि, कुछ का मानना है कि ऐसा कहना आसान है, लेकिन उसे हकीकत में बदल पाना मुश्किल।
बेशक, प्रियंका गांधी के लिए यह काम आसान तो नहीं है, क्योंकि 2009 के लोकसभा चुनावों में अच्छे प्रदर्शन के बाद से कांग्रेस पार्टी राज्य में बहुत शिथिल है। 2009 के चुनाव के दौरान कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में 18.3 फीसदी वोट शेयर के साथ 80 में से कुल 21 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफलता हासिल की थी। हालांकि, 2014 में उसे मात्र 7.5 फीसदी वोट ही मिल सके और वह सिर्फ दो सीटों अमेठी (राहुल गांधी) और रायबरेली (सोनिया गांधी) में ही जीत दर्ज कर सकी। 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने के बावजूद पार्टी अपनी तकदीर नहीं बदल सकी। कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में 6.3 फीसदी वोट मिले और वह विधानसभा की सिर्फ सात सीटें ही जीत पाई। यहां तक कि वह जिन सीटों पर चुनाव लड़ी, वहां भी उसका वोट शेयर बहुत कम महज 22 फीसदी प्रति सीट था। प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान दी गई है, ऐसे में उनकी यह जिम्मेदारी और भी मुश्किल है, क्योंकि अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा कांग्रेस का यहां जनाधार कमजोर है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश और अवध इन दोनों क्षेत्रों में प्रदेश की कुल सीटों के आधे से अधिक सीटें आती हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में 29 सीटें हैं, तो अवध क्षेत्र में लोकसभा की 14 सीटें हैं। पार्टी को इन दोनों क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन करना होगा। कांग्रेस ने इन दोनों क्षेत्रों में अच्छे प्रदर्शन की बदौलत ही 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन किया था। अवध क्षेत्र में इसने 35 फीसदी वोट के साथ नौ सीटें जीती थीं, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में 12.97 फीसदी वोट हासिल कर छह सीटों पर कब्जा जमाया था। कांग्रेस ने 2009 में लोकसभा की कुल 21 सीटों पर जीत दर्ज की थी। उनमें से 15 सीटें इसी क्षेत्र से खाते में आई थीं। कांग्रेस पार्टी ने तब यहां अच्छा प्रदर्शन किया, क्योंकि उसे वर्चस्वशाली जातियों, दलितों, गैर-यादव ओबीसी और मुस्लिम मतदाताओं का अच्छा-खासा समर्थन मिला था (इस क्षेत्र में ब्राह्मण, यादव, दलित और मुसलमान आबादी अधिक है)। कांग्रेस को 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान इस और दूसरे क्षेत्रों में काफी बड़ा झटका लगा, क्योंकि वर्चस्वशाली जातियों, दलितों, गैर-यादव ओबीसी और मुस्लिमों के वोट शेयर में बहुत व्यापक बदलाव देखा गया। लेकिन सपा से गठजोड़ के बावजूद कांग्रेस की तकदीर नहीं बदली, क्योंकि वह इन समुदायों का समर्थन अपनी तरफ मोड़ने में असफल रही।
कांग्रेस प्रियंका गांधी के नेतृत्व में पूर्वी उत्तर प्रदेश में तभी अपनी खोई जमीन हासिल कर सकती है, जब वह वर्चस्वशाली जातियों, दलितों और खासतौर पर मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो पाए। साथ ही, उसे गैर-यादव ओबीसी मतदाताओं के भी व्यापक समर्थन की जरूरत होगी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में मतदाताओं की सामाजिक संरचना को देखते हुए कांग्रेस अगर अपनी खोई जमीन हासिल करती है तो भाजपा के साथ-साथ सपा-बसपा गठबंधन को भी समान रूप से नुकसान हो सकता है। वर्चस्वशाली जातियों का रुझान बड़े पैमाने पर भाजपा की ओर हो गया है, इसलिए उनके वोटों में बदलाव से भाजपा को नुकसान होगा। वहीं, मुसलमान और दलित वोटों का रुझान बदलता है, तो सपा-बसपा गठबंधन की संभावनाओं को नुकसान होगा, क्योंकि ये दोनों ही गठबंधन के मुख्य जनाधार माने जाते हैं। उम्मीदवारों की घोषणा अभी बाकी है, चुनाव प्रचार शुरू होना भी शेष है, ऐसे में हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं। दरअसल, नतीजों के बाद ही यह पता चलेगा कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन हासिल करने में सफल होती है या नहीं? इससे भाजपा को अधिक नुकसान होता है या फिर सपा-बसपा गठबंधन को?
(लेखक सीएसडीएस, दिल्ली के निदेशक हैं)