बेटे प्रशांत के घर जाने के लिए यशोदा जी तैयार तो हो गईं लेकिन इसके लिए मन को मजबूत करना पड़ा। पति राघव जी ने अपने तईं खूब प्रोत्साहित किया, फिर भी संशय की काली बिल्ली उनके मन के किसी कोने में बैठी रही। राघव जी ने हंसते हुए कहा, ‘प्रशांत की मां, अपने बेटे से मिलने जा रही हो, वह भी इसी शहर में, कहीं परदेस नहीं जा रही हो।’ यशोदा जी घर से निकलीं। दरवाजे के आगे खड़ी हो-तीन बार पीछे मुड़कर देखा। राघव जी बोले, ‘दिनकर चौक पर मानसरोवर से काजू की बर्फी खरीद लेना। नेहा और अर्णव को काजू की बर्फी बहुत पसंद हैं।’ फिर उनको कुछ याद आया, ‘और सुनो, शाम होने से पहले लौट आना। बहुत भीड़-भाड़ रहती है। जाते-आते ऑटो ले लेना। शाम में सियाराम गांव से चावल-गेहूं की बोरियां ला रहा है। फोन आया था उसका।’ यशोदा जी को खुशी हुई कि चलो, अब कुछ महीनों तक राशन खरीदना नहीं पड़ेगा। गांव की एक बीघा जमीन जो बिकने से बच गई थी उसका फायदा अब मिल रहा है। पति की पेंशन राशन पर खर्च नहीं होती। सियाराम का परिवार उस एक बीघे जमीन पर खेती करता है। साल में दो बार गांव से ‘अनाज-पानी’ लाकर यहां घर तक पहुंचा देता है।
धूप तेज थी। यशोदा जी धीरे-धीरे चौराहे की तरफ जा रही थीं। मन में धुकधुकी हो रही थी। संशय घेरे हुए था कि बेटे या बहू ने इनकार कर दिया तो? यह पहला मौका था जब वह अकेली बेटे के घर जा रही थीं। इसके पहले पोती नेहा और पोते अर्णव के जन्मदिन पर ही जाती रहीं, वह भी पति के साथ। बिन बुलाए कभी नहीं गईं। बेटे के घर जाने का एक आकर्षण यह भी रहा कि उसी अपार्टमेंट में बेटे के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में पति के सहकर्मी रह चुके श्रीवास्तव जी सपरिवार रहते हैं। श्रीवास्तव जी के परिवार से राघव और यशोदा जी की घनिष्ठता के कारण प्रशांत का परिवार भी उनसे जुड़ा हुआ है।
अपार्टमेंट में फ्लैट खरीदने के पहले प्रशांत किराये के मकान में रहता था। मां-बाप के एल.आई.जी. वाले दो कमरों के खंडहर-जैसे घर में तो वह शादी के बाद दो महीने ही रह सका। एक बड़े अखबार-समूह में कंप्यूटर इंजीनियर है प्रशांत। वह भला खंडहर मकान में रहता? किराये के मकान में चला गया। फिर अपार्टमेंट में तीन कमरों का फ्लैट खरीदा। एक कमरा खाली पड़ा रहता है। उस खाली कमरे पर यशोदा जी ने कई बार सोचा है, लेकिन पति के अलावा किसी से मन की अभिलाषा नहीं कही।
चौराहे पर पहुंचकर यशोदा जी ने काजू बर्फी खरीदी पोते-पोती के लिए। ऑटो रिक्शा ले लिया। जा तो रही थीं बेटे-बहू के घर लेकिन मन में उत्साह या आत्मीयता के आवेग-जैसा कुछ नहीं था। शंका घुमड़ रही थी, कहीं बेटे या बहू ने इनकार कर दिया तो? तीर्थयात्रा पर जाने के अपने फैसले पर उनको पछतावा-सा होने लगा। बेकार ही फंस गईं मायके के मोह में। बड़े भैया, भाभी, भतीजा-भतीजी सब जा रहे थे तीर्थयात्रा पर। भैया ने फोन पर कहा, ‘यशोदा, तुम्हारा भी टिकट ले रहा हूं। बाईस दिन की यात्रा है। बहुत दिनों से हम साथ-साथ नहीं रहे। तैयारी करो। जीजा जी बीमार नहीं रहते तो उनको भी ले चलता। तीर्थयात्रा स्पेशल ट्रेन पटना से ही खुलेगी।’ सवाल था कि दमे की बीमारी से ग्रस्त पति यहां अकेले कैसे रहेंगे। राघव जी ने कहा, ‘तुम जाओ प्रशांत की मां। नौकरानी है कोई समस्या होगी तो प्रशांत को फोन कर दूंगा। ऐसा करो प्रशांत को कह आओ, बीस-बाईस दिन मुझे अपने घर रख ले।’ पति की बात पर यशोदा जी का मन व्यथा से भर गया। कितना अजीब लगता है एक ही शहर में हम मां-बाप अलग रहते हैं और बेटा-बहू अलग। हम कभी मिलते भी हैं तो रिश्तेदार की तरह।
ऑटो रिक्शा पर बैठी यशोदा जी यही सब सोच रही थीं कि हनुमान नगर चौराहे पर पहुंचकर चालक ने पूछा, ‘कौन सा अपार्टमेंट बताया था आपने माता जी?’
‘मधुबन अपार्टमेंट।’ रविवार था। गर्मियों की उमस भरी ढलती दोपहर। सब घर में थे। कॉल बेल दबाने पर दरवाजा बहू ने खोला। चकित हो गई। ‘आप मां जी। इस तरह अचानक? पैरों पर झुक गई बहू। प्रशांत कमरे से बाहर आया। पैर छुए मां के। ‘मां कैसे आ गईं आप। बोल देतीं फोन से। गाड़ी भेज देता।’ यशोदा जी सोफे पर बैठ गईं। बहू ने एसी ऑन कर दिया। नेहा और अर्णव दादी के दाएं-बाएं सटकर बैठ गए। बहू कोल्ड ड्रिंक ले आई। प्रशांत भीतर से परेशान था मां को अकस्मात आया देखकर। ‘कोई काम है क्या मां?’ ‘हां बेटा, काम न रहता तो क्यों आती इतनी धूप-बतास में।’ यशोदा जी ने हिम्मत बटोरी, ‘ऐसा है बेटा कि बीस-बाईस दिन के लिए तीर्थाटन पर जा रही हूं। तुम्हारे मामा-मामी, ममेरे भाई-बहन सब जा रहे हैं। उन्हीं लोगों ने मेरा भी टिकट ले लिया है।’ प्रशांत ने मुस्कराते हुए कहा, ‘यह तो अच्छी बात है मां। बीस-बाईस दिन मायके के लोगों के साथ आप रहेंगी।’ ‘लेकिन एक समस्या है बेटा।’ मां का संचित साहस वक्त पर काम आया, ‘तुम्हारे बाबू जी तो जाने की स्थिति में हैं नहीं। चाहती हूं कि बीस-बाईस दिन तुम्हारे यहां उनको रख दूं।’ प्रशांत भीतर से लड़खड़ा गया। हकलाता हुआ-सा बोला, ‘लेकिन...लेकिन ऐसा है मां कि’ प्रशांत के ‘लेकिन-लेकिन’ को बहू ने पूरा किया, ‘ऐसा है मां जी, हम लोग गोवा जा रहे हैं। हवाई जहाज का टिकट भी ले लिया है।’ मां बेटे-बहू के चेहरे के भाव पढ़ती हुई बोलीं, ‘तो तुम लोग भी बाहर जा रहे हो। हवाई जहाज से।’ सात साल का पोता अर्णव जो दादी से सटा बैठा था, चहकता हुआ बोला, ‘मम्मी, हम लोग गोवा जा रहे हैं? हवाई जहाज से? तुमने बताया नहीं हम लोगों को?’
यशोदा जी चलने को हुईं। नेहा और अर्णव अपनी दादी से लिपटे हुए थे। छोड़ते नहीं थे। बहुत दिक्कत हुई यशोदा जी को। आंखें डबडबा आईं जब प्रशांत का ड्राइवर बुलाने आया, ‘चलिए माता जी।’ नेहा और अर्णव रूआंसे हो दादी को देखते रहे।
ड्राइवर ने यशोदा जी को घर तक पहुंचा दिया। दरवाजा खुला था। अंदर गईं तो देखा, स्टूल पर बैठा सियाराम राघव जी से बतिया रहा है। ‘गोड़ लागी चाची’ बोलते हुए सियाराम ने यशोदा जी के पैर छुए। यशोदा जी मुस्करा रही थीं। राघव जी ने पूछा, ‘मुस्करा रही हो प्रशांत की मां। लेकिन इस मुस्कराहट में भीतरी खुशी झलक नहीं रही है। बेटे-बहू ने इनकार कर दिया, यही न?’ यशोदा जी झेंपती हुई बोलीं, ‘मैं कहती थी न, जाना बेकार होगा।’ सियाराम ने यशोदा जी का उदास चेहरा देखा। बोला, ‘चाची, चाचा ने मुझे बता दिया है कि आप प्रशांत बाबू के यहां क्यों गई थीं। इसमें चिंता की क्या बात है चाची। आप निश्चिंत होकर जाइए तीर्थ यात्रा पर। मैं हूं न। मैं तो आप लोगों के साथ रहने का मौका ही खोज रहा था। अकेला रहता हूं चाची। ड्यूटी से आकर कमरे में झख मारता हूं। आप अपने साथ रख लीजिए चाची। सारे घरेलू काम जानता हूं। सात साल यहीं पटना में इंजीनियर साहब के साथ रहा हूं।’
सियाराम को अपने ही गांव के अधीक्षण अभियंता ठाकुर रणविजय सिंह घरेलू नौकर के रूप में यहां लाए थे। चीफ इंजीनियर के पद से सेवानिवृत्त होने के पहले उन्होंने सियाराम को अपने ही दफ्तर में चपरासी के पद पर बहाल कर लिया। बाद में वह अपने बेटे के पास अमेरिका चले गए। सियाराम ने हंसते हुए पूछा, ‘तो बात पक्की रही चाची? कल ही आ जाता हूं सामान लेकर। आपका बाहर वाला बरामदा तो खाली ही रहता है। उसी में सोया करूंगा। अभी चावल-गेहूं की दो बोरियां लाता हूं न, आगे से तीन बोरियां लाऊंगा। सारे काम जानता हूं चाची। एकदम अनपढ़ नहीं हूं। नन मैट्रिक हूं।’ ‘नन मैट्रिक’ सुनकर राघव जी और यशोदा जी हंसने लगे। राघव जी ने पूछा, ‘नन मैट्रिक क्या होता है सियाराम?’ ‘नन मैट्रिक माने मैट्रिक फेल।’ अपनी ही बात पर सियाराम ठठाकर हंसा। यशोदा जी काले-कलूटे ‘नन मैट्रिक’ युवक को देर तक देखती रहीं और मुस्कराती रहीं। जाते समय सियाराम ने राघव जी और यशोदा के पैर छुए। भावुक हो गए राघव जी। यशोदा जी सियाराम के सिर पर हाथ रख देर तक असीसती रहीं, जुग-जुग जीओ बेटा। फिर से आंचल से आंखें पोछने लगीं।
तीर्थयात्रा पर जाने के एक दिन पहले यशोदा जी बिग बाजार में सामान खरीदने गईं तो श्रीवास्तव जी की पत्नी से मुलाकात हो गई। कुशल-क्षेम के बाद श्रीवास्तव जी की पत्नी ने कहा, ‘आप उस दिन अपने बेटे के घर गईं लेकिन मेरे घर नहीं आईं। जानती हैं भाभी जी, आपकी बहू ने क्या कहा मुझसे? बोली, बुढ़ऊ को मेरे घर रखने की बात लेकर सासू जी आईं थीं। कौन रखेगा बुढ़ऊ को? दिन-रात खांसते रहते हैं। उनके पलंग के नीचे पतीली रखनी पड़ती है। उसी में थूकते हैं। कौन साफ करेगा थूक-खखार वाली पतीली? घर में दो बच्चे हैं। बुढ़ऊ को समय पर उबाला हुआ खाना चाहिए। दोनों टाइम दूध चाहिए, गर्म पानी चाहिए। कौन सहेगा इतनी ‘फुटानी।’ सो, मैंने जवाब दे दिया, हम गोवा जा रहे हैं, कहकर।’
यशोदा जी श्रीवास्तव जी की पत्नी को एकटक देखती कुछ दूसरी ही बातें सोच रही थीं। याद कर रही थीं जब प्रशांत के लिए अपनी इस बहू को पति के साथ देखने गई थीं। पति अभिभूत थे, ‘बहुत सुंदर है। सुशील, विनम्र, मितभाषी। कॉन्वेंट की पढ़ी है। मगध महिला कॉलेज से फर्स्ट क्लास बीए. ऑनर्स। पिता लेबर कमिश्नर हैं। बड़े घर की बेटी है। तुमने तो प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ पढ़ी होगी प्रशांत की मां?’ पिछली बातें याद कर यशोदा जी मुस्करा रही थीं। श्रीवास्तव की पत्नी चकित थीं यशोदा जी मुस्करा क्यों रही हैं। यह तो दुखी होने की बात है।