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'ब्‍लैक’ से डरना जरूरी है

अब बॉलीवुड में भी ब्‍लैक सिर्फ फिल्म का नाम होगा, मनी इसके आगे कहीं भी नहीं जुड़ पाएगा
बॉलीवुड काला धन खपाने में सबसे आगे

मोदी के राष्ट्र के नाम संदेश से ऐसा लगा जैसे कुछ क्षण के लिए देश थम गया हो। एक हजार और पांच सौ के नोट जब पैसे की जगह 'कागज के टुकड़े’ हो गए तो त्वरित प्रतिक्रियाएं नहीं आईं। लेकिन कुछ-कुछ होने जरूर लगा और बिलकुल फिल्मी स्टाइल में एंग्री यंग मैन ने कहा कि एक हजार का गुलाबी नोट उनकी फिल्म पिंक का असर है। अजय देवगन ने 'सौ सुनार की एक

लुहार की’ कह कर अपना समर्थन जता दिया। रजनीकांत भी नहीं चूके और मुंबइया फिल्म उद्योग में उस दिन काले धन के समर्थन में ट्वीट की बारिश शुरू हो गई। यह बॉलीवुड की आवाज थी जो बुलंद हो गई है, भ्रष्टाचार के खिलाफ। लेकिन सच तो यह है कि इस व्यवस्था से मुंबइया फिल्म उद्योग की कमर टूट गई है। कई प्रोजेक्‍ट अधर में लटक गए हैं और कुछ शायद शुरू ही न हो पाएं। बॉलीवुड वह जगह नहीं जहां पत्रकार कुछ सनसनीखेज खोजने के लिए निकल पड़े। बॉलीवुड की सनसनी की परिभाषा बिलकुल अलहदा है। यहां सनसनी का मतलब किसी नई हीरोइन की आमद या किसी का किसी के साथ रिश्ते का खुलासा होता है। इनकम टैक्‍स का छापा? बॉलीवुड के लिए यह क्‍या होता है। मासूम अदाओं से लुभाने वाली तारिकाओं को तो शायद यह भी पता नहीं होगा कि कमाने पर सरकार को कुछ टैक्‍स भी देना होता है! लेकिन कुछ सालों से कई अभिनेताओं ने बॉलीवुड में कहानियों और फिल्मों के ट्रेंड को बदलने के साथ-साथ कमाई दिखाने के तरीके भी बदल दिए। उनके लड़ाई-झगड़ों और प्रेम प्रसंगों के साथ यह खबरें भी आने लगीं कि फलां हीरो ने करोड़ों रुपये का टैक्‍स भरा, फलां नायक सबसे ज्यादा टैक्‍स देने वाला सेलीब्रिटी बन गया है। लेकिन यह ईमानदार अभिनेता बॉलीवुड का पूरा सच नहीं था।

यह सच है कि इनकम टैक्‍स विभाग निर्माता-निर्देशकों और वितरकों पर नजर रखता है। लेकिन यह भी सच है कि अभी तक कोई बड़ी कार्रवाही इन पर नहीं हुई है। इनकम टैक्‍स डिपार्टमेंट अब सेक्‍शन 14 ए के तहत कई लोगों का खाता खंगालने की तैयारी कर रहा है। उनकी यह तैयारी पुराने मामले, हाल की ऑडिट रिपोर्ट और कई दूसरे मामलों से जुड़ी हुई है। मुंबई में इनकम टैक्‍स विभाग में काम करने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, 'बॉलीवुड की हस्तियों के खातों में कई बार भारी गड़बड़ी होती है। लेकिन जब उनका इस ओर ध्यान दिलाया जाता है तो वे फौरन अपने सीए को बीच में ले आते हैं।’ वह मानते हैं कि कई बार दबाव में भी कार्रवाई नहीं हो पाती है। फिल्म उद्योग कई बार सिर्फ जबानी हिसाब-किताब पर चलता है। ज्यादातर मामलों में नगद लेनदेन होता है जिससे खाते में पैसा का स्रोत देखना और वह कहां किस मद में गया यह देखना मुश्किल हो जाता है। कापड़ी कहते हैं, 'जरूरी नहीं कि सभी बेईमानी ही करते हैं, लेकिन स्पॉट बॉय, लाइट वाले, जनरेटर वालों को हमेशा नगद भुगतान ही किया जाता है। 10 घंटे की शिक्रट के बाद वे लोग तुरंत पैसा चाहते हैं। छोटे काम करने वालों को चेक या बैंक अकाउंट में सीधे पैसे भेजने की बात समझाना भी कठिन होता है।’

हाल ही में एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था कि मुंबई फिल्म उद्योग में सबसे ज्यादा पैसा हवाला कारोबारी, बिल्डर और बड़े व्यापारी घराने लगाते हैं। यह जगह अंधा कुआं है जहां कुछ रुपये डालने पर रुपयों की गठरी बाहर निकल आती है। यहां मुनाफे के लिए कोई लिखत-पढ़त नहीं है। बहुत से काम जबानी विश्वास पर ही चल जाते हैं। यह अलग बात है कि नई पीढ़ी ने अब कॉन्ट्रैक्‍ट साइन करने को आगे कर दिया है। लघु फिल्में बनाने वाले दीपक सरीन कहते हैं, 'यदि आप किसी स्टार को साइन कर रहे हैं तो यह तय है कि कॉन्ट्रैक्‍ट में सब कुछ नहीं होगा। कुछ बातें बैठ कर तय की जाएंगी और रकम को बकायदा हिस्से में बांट दिया जाएगा।’ मतलब साफ है कि कागज पर जो रकम नहीं है उसे कलाकार किसी भी रूप में ले सकता है। पांच सौ-हजार के नोट पर पाबंदी से बॉलीवुड में बहुत हडकंप की स्थिति इसलिए भी नहीं है कि यहां बड़े कलाकार रोज पैसा नहीं लेते। कुछ निर्माताओं ने मामला ठंडा हो जाने तक फिल्म की शूटिंग रोक दी है। कुछ कलाकार बड़ी कार्रवाई के डर से खुद ही कुछ दिन चुप रहना चाहते हैं।

आमिर खान

जब कुमार सानू ने उठान नाम की फिल्म का निर्माण किया था तब खूब हल्ला हुआ था। यह शायद ऐसी इकलौती फिल्म थी जिसका सारा काम नगद में हुआ था। कलाकारों, तकनीशियनों और फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति को नकद पैसा मिला था। तब कहा जाता था कि बड़े सूटकेस में गाड़ी भर कर पैसा आता था और बंट जाता था। इस कदम से बड़े कलाकारों को फर्क नहीं पड़ेगा ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन अभी किसी भी तरह का हल्ला मचाने का मतलब होगा अपनी ईमानदारी पर खुद ही प्रश्नचिह्नï लगा लेना। लेकिन यह भी तय है कि इनकम टैक्‍स डिपार्टमेंट की नजर अब इस उद्योग पर भी गड़ गई है। अब वह दिन बीत गए जब कहानियां हवा में तैरती थीं कि काले को सफेद करना है तो बॉलीवुड आइए। बॉलीवुड किसी भी ऐसे धनपशु के लिए लाल कारपेट बिछा देता है जिसकी तिजोरी में हजार-पांच सौ रुपये के नोट कुतुबमीनार की शक्‍ल अक्चितयार कर लेते हैं। नब्‍बे के दशक में तो तय माना जाता था कि अंडरवल्र्ड न सिर्फ पैसा देता है बल्कि अपने प्रायोजित कलाकार भी बॉलीवुड पर थोप देता है। किसी ताकतवर डॉन के किसी लडक़ी पर दिल आ जाने पर उसे फिल्म की हीरोइन बना देने की कहानियां बहुत रस लेकर न सिर्फ सुनाई जाती थीं बल्कि कई नामी फिल्मी पत्रिकाओं में स्थायी रूप से जगह पाती थीं। अंडरवल्र्ड के चकाचौंध के किस्सों में पैसा और पैसा बस इसके अलावा कोई दूसरा किस्सा नहीं था। फिर इस पैसे से विदेशों में शूटिंग होने लगी और अचानक बॉलीवुड को निर्माताओं की बाढ़ से जूझना पड़ा। फिल्म की कहानी कैसी भी हो पैसा लगाने के लिए निर्माता बैचेन थे। किसी एक कलाकार को लेने की शर्त पर कई ऐसी फिल्में आईं और चली गईं लेकिन निर्माताओं की कमी नहीं हुई। कोई आंकड़ा नहीं, कोई बैलेंस शीट नहीं कोई हिसाब नहीं, पर बॉलीवुड में इसकी परवाह किसे थी। सच किसी को ठीक-ठीक और पूरा नहीं पता, बस पता है तो इतना कि बॉलीवुड सभी को एक नजर से स्वीकार कर लेता है।

मिस टनकपुर फिल्म निर्देशित कर चुके विनोद कापड़ी फिल्म निर्देशक होने से पहले एक पत्रकार थे। वह बॉलीवुड में उतना वक्‍त तो गुजार ही चुके हैं जितने में इसे समझा जा सके। विनोद कहते हैं, 'मैं नहीं मानता कि इस फैसले से बॉलीवुड में काली कमाई आना सौ फीसदी रुक जाएगी। बस कुछ हद तक अंकुश लग जाएगा। लेकिन यह भी कितने दिन चलेगा यह देखना लाजिमी होगा। भारत सपनों का देश है। यहां जैसा कह दिया जाता है जनता उसी पर भरोसा कर लेती है। यह तो वक्‍त ही बताएगा कि काले पैसे पर यह रोक कितनी कारगर होती है।’  बॉलीवुड अपनी कहानियां बदल रहा है, कहन और कथन का ढंग बदल रहा है, तो फिर उम्‍मीद की जाए कि एक दिन यहां भी बस सफेद ही सफेद होगा काला कुछ भी नहीं, सिवाय संजय लीला भंसाली की एक फिल्म के शीर्षक (ब्‍लैक) के।

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