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ये शाम अजीब नहीं मस्तानी भी

सुबह नई आशा का प्रतीक है, वहीं शाम को उदासी से जोड़ कर देखने की परंपरा है। हिंदी फिल्मों में भी यह भाव नजर आता है। खामोशी (1969) का हेमंत कुमार द्वारा संगीतबद्ध, गुलजार द्वारा लिखित और किशोर कुमार के गाए 'वो शाम कुछ अजीब थी ये शाम भी अजीब है’, हल्की कहरवा ताल के साथ यमन कल्याण की अनुभूति के बीच गहराती उदासी का अहसास कराता है।
राजेश खन्ना और आशा पारेख

राजेश खन्ना के ही ऊपर फिल्माए, एक अन्य उदास गीत, 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए’, में योगेश के शब्‍द सलिल चौधरी की अविस्मरणीय धुन और मुकेश की सोज भरी आवाज असाध्य बीमारी से जूझते एक व्यक्ति के आंतरिक दुख को ढलते हुए दिन की प्रतीकात्मकता के बीच स्थापित करते हैं। वहीं राज कपूर की आह (1953) के कल्याण आधारित 'ये शाम की तनहाइयां ऐसे में तेरा गम’ (लता), कवि कालिदास (1959) के भरत व्यास लिखित और एस.एन. त्रिपाठी द्वारा स्वरबद्ध जयजयवंती आधारित 'शाम भई घनश्याम न आए’ (लता), फागुन (1973) के मजरूह लिखित और दादा बर्मन द्वारा कंपोज किए गए अहीर भैरव पर आधारित 'संध्या जो आए मन उड़ जाए’ (लता), जय चित्तौड़ (1961) के एस.एन. त्रिपाठी और भरत व्यास की जुगलबंदी का गंभीर, उदात्त गीत 'सांझ हो गई प्रभो तुम्‍हीं प्रकाश दो’ (लता) जैसे गीतों में शाम फिर संवेदना के धरातल पर उदासी की सृष्टि करती दिखाई देती है। खय्याम के संगीत निर्देशन में पहाड़ की छाया लिए 'शाम-ए-गम की कसम, आज गमगीं हैं हम’ (तलत महमूद) ऐसे गीतों में श्रेष्ठ स्थान रखता है। वहीं एक नाव दो किनारे (1973) का नक्‍श लायलपुरी का लिखा और बृजभूषण का संगीतबद्ध 'ये शाम है धुंआ-धुंआ, फिजा बहुत उदास है’ (रफी) आज भले ही हमारी याददाश्त में न हो, पर गीत वाकई लाजवाब था। अप्रदर्शित फिल्में मिट्टी का देव (जिसके व्यावसायिक वितरण के लिए मुकेश और लता भी तैयार थे) में गुलजार के लिखे, सलिल चौधरी के संगीतबद्ध और मुकेश के गाए 'शाम से आंख में नमी-नमी सी है, आज फिर आपकी कमी-कमी सी है’ सलिल के खास अंदाज का अद्भुत गीत है। इसी गीत को बाद में आरडी बर्मन के संगीत निर्देशन में आशा भोंसले ने और फिर जगजीत सिंह ने भी गाया। पर जो बात सलिल और मुकेश ला पाए वह फिर नहीं आई। 

उदासी या एकाकीपन या विरह को शाम के सहारे यूं अभिव्यक्‍त करते अन्य गीतों में अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में ज्वार भाटा (1944) के 'सांझ की बेला पंछी अकेला, नैनन में दुख रैन अंधेरी’ (अरुण कुमार-साथी), चंद्रलेखा (1948) के 'सांझ की बेला जिया अकेला’ (उमा देवी-मोती), बंगाल की मिट्टी की गंध लिए अनिल विश्वास के ही स्वर और संगीत निर्देशन में आसरा (1941), 'सांझ भई बंजारे’, सफदर आह के लिखे और अनिल विश्वास के ही संगीत निर्देशन में बंगाली लोक प्रभाव को एक आधुनिक नृत्य दृश्य में समाहित करते 'सजना सांझ भई आन मिलो’ आदि गीत आज भूले बिसरे हो चुके हैं।

फिल्मी गीतों में शाम का एक मुलायम, खुशनुमा रूमानी पक्ष भी रहा है, जहां प्यार की संवेदना कविता की तरह से स्पर्श करती है। 'हर शाम आंखों पर तेरा आंचल लहराए, हर रात यादों की बारात ले आए’ जैसे अंतरे के साथ ब्‍लैकमेल (1973) का राजेंद्र कृष्ण लिखित 'पल-पल दिल के पास तुम रहती हो’ (किशोर) तो कल्याण जी आनंद जी की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में अपना स्थान रखता है। वही बात लक्ष्मी-प्यारे की इम्‍तेहान (1974) के 'रोज शाम आती थी मगर ऐसी न थी (लता) की ऊंची पट्टी आधारित कंपोजीशन के बारे में कही जा सकती है, जहां ढलते सूरज की लालिमा से खिले आकाश की पृष्ठभूमि में फिल्मांकन भी कमाल का था। वासना (1968) के साहिर लिखित और चित्रगुप्त द्वारा संगीतबद्ध 'ये पर्वतों के दायरे ये शाम का धुंआ, ऐसे में क्‍यों न छेड़ दे दिलों की दास्तां’ (लता-रफी) और शगुन (1964) का पुन: साहिर द्वारा ही लिखित और खय्याम द्वारा स्वरबद्ध 'पर्वतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है, सुरमई उजाला है चंपई अंधेरा है’ (सुमन-रफी) में राग पहाड़ी के सुरों के साथ शाम की रूमानियत पूरी नरमी से प्रकट होती है। शाम के साथ नशीले जाम को जोड़ कर देखे जाने वाले उल्लेखनीय ऐन्द्रीय लालसा के गीतों में राजेश रोशन के संगीत से सजे दूसरा आदमी का 'आओ मनाएं जश्ने मुहब्‍बत, जाम उठाएं जाम के बाद, शाम से पहले कौन ये सोचे क्‍या होना है शाम के बाद’ (लता-किशोर-मन्ना डे) और फिल्म लंबू इन हांगकांग के 'शाम है जाम है हुस्न खाम खाम है’ को शामिल किया जा सकता है। जब शाम के गीतों की बात हो तो कल्याण पर आधारित, जिसे मूलत: कलकत्ते में मृच्छकटिकम नाटक के लिए, रवींद्र जैन ने कंपोज किया था भूला नहीं जा सकता। चितचोर (1976) के 'जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना’ (येसुदास-हेमलता) का तो कोई जवाब ही नहीं है। शाम को लेकर सृजित विविध गीतों में सपना (1969) के राग कलावती पर आधारित कवितामय, 'सांझ भई झांझ भेद जियरा के खोले’ (उषा मंगेशकर), प्रेम के उल्लासित रूप को सांझ की उपमा के साथ अभिव्यक्‍त करते काला बाजार के 'सांझ ढली दिल की लगी थक चली पुकार के’ (शैलेंद्र-एसडी बर्मन-मन्ना डे-आशा) और हनीमून का 'सांझ भई सुन री सखी मन छीने किसकी बंसी’ (शैलेंद्र-सलिल-लता-उषा) हमेशा कर्णप्रिय रहे। अपने जमाने के बेहद मशहूर गीत अलबेला 'शाम ढले खिडक़ी तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो (लता-चितलकर), श्री 420 'शाम गई रात आई कि बलम आजा’ (लता), पुष्पाजंली 'शाम ढली जमुना किनारे’ (लता-मन्ना डे), अंजान है कोई, 'शाम देखो ढल रही है, पंछी देखो जा रहे हैं (उषा खन्ना-रफी), गहरी चाल का मादकता भरे 'शाम भीगी-भीगी बदन जल रहा है (आशा), जिंदादिल, 'शाम सुहानी आई खुशियां बन के पहली बार (शैलेंद्र सिंह-महेंद्र-लता), योगेश और सलिल की ऑफबीट खूबसूरत रचना, जीना यहां का 'ओ शाम आई रंगों में रंगी हुई’ (लता) और इन सब से बढ़ कर कटी पतंग का 'ये शाम मस्तानी मदहोश किए जाए’ (किशोर) तो सदाबहार गीत है। इधर के गीतों में एम.एम. करीम के संगीत से मजे सुर फिल्म (2003) के वायलिन और क्रलूट की अद्भुत जुगलबंदी वाले 'कभी शाम ढले तो मेरे दिल में आ जाना’ (महालक्ष्मी अय्यर) और गिटार की संगत के साथ आयशा के 'शाम भी कोई जैसे है नदी, लहर लहर जैसे बह रही है’ जैसे जावेद अख्‍तर लिखित गीत इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि हिंदी फिल्म संगीत में शाम की उपमा विभिन्न भावों के संदर्भ के रूप में अभी भी कायम है।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं।)

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